हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – तार-तार ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – तार-तार ? ?

तार-तार चिथड़ों में लिपटी थी

काली कोठरियों में जा छिपती थी,

अकस्मात अंधेरे की

रंगीनियों ने दबोच लिया,

अब दिन तो दिन

उसकी रातें भी उजली थी

पर एक तस्वीर

अब भी नहीं बदली थी,

तार-तार गुरबत

तब उसकी म़ज़बूरी थी

तार-तार अस्मत

खुशहाली के लिये

अब ज़रूरी थी!

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ महाशिवरात्रि साधना पूरा करने हेतु आप सबका अभिनंदन। अगली साधना की जानकारी से शीघ्र ही आपको अवगत कराया जाएगा। 🕉️💥

 अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ अब है उस पर निभाये या कि नहीं… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “अब है उस पर निभाये या कि नहीं“)

✍ अब है उस पर निभाये या कि नहीं… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

अपने घर को सजा के बैठे हैं

हम खुशी को बुला के बैठे हैं

 *

पांसे सत्ता के है शकुनि मलता

न्यायविद सर झुका के बैठे हैं

 *

काम पर लग गए गधे सारे

डिग्रियाँ हम दिखा के बैठे है

 *

अब अयोध्या से देखिये बाहर

कुछ शिवाले दबा के बैठे हैं

 *

अब है उस पर निभाये या कि नहीं

हम तो वादा निभा के बैठे हैं

 *

तेरी मर्ज़ी है दे न दे छप्पर

हम तो नीचे ख़ला के बैठे हैं

 *

सारे शिकबे गिले मैं भूल गया

जब वो पहलू में आ के बैठे हैं

 *

कौन पनपेगा उंनके नीचे अब

बरगदों से जो छा के बैठे हैं

 *

अपने अंदर भी वो अरुण झांकें

आइना जो दिखा के बैठे हैं

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 47 – अहसास की बातें… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – अहसास की बातें…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 47 – अहसास की बातें… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

करते हो, आज क्यों फिर उल्लास की बातें 

पूछीं न तुमने मुझसे संन्यास की बातें

*

पतझर के सिवा, हमने जीवन में कुछ न पाया 

करती रहीं छलावा, मधुमास की बातें

*

दो बोल अपनेपन के, सुनने को तरसे हैं हम 

सबसे मिली हैं सुनने, उपहास की बातें

*

रस-रंग की कथाएँ, कैसे उसे सुहायें 

जिसने सुनी हैं हर पल, संत्रास की बातें

*

आस्थाएँ हैं अपाहिज, श्रद्धा हुई है घायल 

लगतीं फरेब जैसी, विश्वास की बातें

*

हारा नहीं है जीवन, मेरा विपत्तियों से 

विपदा ने की हैं मुझसे, उल्लास की बातें

*

है खंडहर ही केवल, अब साक्षी समय का 

हर ईंट ने सुनी हैं, अहसास की बातें

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 123 – रिश्तों में खट्टास का… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “रिश्तों में खट्टास का…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 123 – रिश्तों में खट्टास का… ☆

रिश्तों में खट्टास का, बढ़ता जाता रोग ।

समय अगर बदला नहीं, तो रोएँगे लोग ।।

 *

लोभ मोह में लिप्त हैं, आज सभी इंसान ।

ऊपर बैठा देखता, समदर्शी भगवान ।।

 *

अगला पिछला सब यहीं, करना है भुगतान ।

पुनर्जन्म तक शेष ना, कभी रहेगा जान ।।

 *

जीवन का यह सत्य है, ग्रंथों का है सार ।

जो बोया तुमने सदा, वही काटना यार ।।

 *

संस्कृति कहती है सदा, यह मोती की माल ।

गुथी हुयी उस डोर सेटूटे ना हर हाल ।।

 *

रिश्तों में बंधकर रहें, हँसी खुशी के साथ ।

बरगद सी छाया मिले, सिर पर होवे हाथ ।।

 *

रिश्ते नाते हैं सदा, खुशियों के भंडार ।

सदियों से हैं रच रहे, उत्सव के संसार  ।।7

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कवित्व ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी का छत्रपति शिवाजी महाराज राष्ट्रीय एकता जीवन गौरव सम्मान से सम्मानित होने पर श्री संजय भारद्वाज जी को हार्दिक बधाई एवं अभिनंदन। 

(इस संदर्भ में श्री आनंद सिंह द्वारा लिया संक्षिप्त साक्षात्कार)

? संजय दृष्टि – कवित्व ? ?

वह बाँच लेती है

मेरे शब्दोेंं में

अपना नाम,

मेरी कलम का

कवित्व

निखरने लगा है या

उसकी आँंख में

कवित्व उतरने लगा है,

…पता नहीं!

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 271 ☆ कविता – लंदन से 7 – उस तरह का धन ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कविता लंदन से 7 – उस तरह का धन। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 271 ☆

? कविता – उस तरह का धन ?

मेरे पास उस तरह का धन

शून्य है

पर मेरे

बड़ी मेहनत से कमाए ,इस तरह के धन को

तो मेरे पास रहने दो सरकार

कितना प्रगट, परोक्ष, टैक्स लगाओगी सरकार

टैक्स लोगों को मजबूर करता है

इस तरह के धन को उस तरह के धन में बदलने के लिए

अग्रिम टैक्स ले लेती हो

कभी अग्रिम वेतन भी दे सकती हो?

अपना ही इस तरह का धन

बेटी को विदेश भेजना हो तो

ढेर सा अग्रिम टैक्स कट जाता है

बिना किसी देयता के

तभी तो हवाला बंद नहीं होता

और

इस तरह का धन उस तरह के धन में

बदलता रहता है।

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

इन दिनों, क्रिसेंट, रिक्समेनवर्थ, लंदन

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 182 – सुमित्र के दोहे… जीवन ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपके अप्रतिम दोहे – जीवन के संदर्भ में दोहे।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 182 – सुमित्र के दोहे… जीवन ✍

जीवन के वनवास को, हमने काटा खूब।

अंगारों की सेज पर, रही दमकती दूब।।

*

एक तुम्हारा रूप है, एक तुम्हारा नाम ।

धूप चांदनी से अंटी, आंखों की गोदाम।।

*

केसर ,शहद, गुलाब ने, धारण किया शरीर ।

लेकिन मुझको तुम दिखीं, पहिन चांदनी चीर।।

*

 गंध कहां से आ रही, कहां वही रसधार ।

शायद गुन गुन हो रही, केश संवार संवार।।

*

सन्यासी – सा मन बना, घना नहीं है मोह।

 ले जाएगा क्या भला, लूटे अगर गिरोह ।।

*

कुंतल काले देखकर, मन ने किया विचार ।

दमकेगा सूरज अभी, जरा छंटे अंधियार।।

*

इधर-उधर भटका किए, चलती रही तलाश।

एक दिन उसको पा लिया, थीं सपनों की लाश।।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 183 – “जंजीर पिता जी की…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत  जंजीर पिता जी की...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 183 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “जंजीर पिता जी की...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

टँगी रही पश्चिमी भींट,

तस्वीर पिता जी की ।

बची हुई हुई थी वही यहाँ,

जागीर पिता जी की ॥

 

बेटा संध्या समय रोज

परनाम ‘  किया करता ।

अगरबत्तियाँ चौखट में

था खोंस दिया करता।

 

बहू देख मुँह बिदकाती थी

मरे ससुर जी को –

समझ नहीं पायी थी जो,

तासीर पिता जी की ॥

 

तनिक देर से हुआ युद्ध

लेकिन भर पूर हुआ ।

सास बहू के चिन्तन में

ज्यों चढ़ आया महुआ ।

 

उन दोनों के विकट युद्ध में

आखिर यही हुआ –

टूट फूट कर विखर गयी

तस्वीर पिता जी की ॥

 

बेटा, टुकड़ों को सहेज

कर सुबुक रहा ऐसे ।

दोबारा मर गये पिता जी

जीवित हो जैसे ।

 

बेटे की यह हालत देख

कहा करते हैं सब –

एक सूत्र में बाँधे थी,

जंजीर पिता जी की ॥

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

22-03-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – विस्मृति ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – विस्मृति ? ?

उसके अक्षम्य अपराधों की

सूची बनाता हूँ मैं

फिर एक-एक कर

क्षमा करता जाता हूँ मैं,

वह भी शायद

ऐसा ही कुछ करती है

विस्मृति की कोख में

स्मृति पलती है।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 171 ☆ # “रंगों सा छल ही जायेगा” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता रंगों सा छल ही जायेगा) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 171 ☆

☆ # कविता – “रंगों सा छल ही जायेगा” # ☆ 

यह रंगों का मौसम

रंगों सा छल ही जायेगा

सहेज लें इस वक्त को बंदे

वर्ना यह पल निकल ही जायेगा

*

चाहे फौलाद सा तन हो

पाषाण सा कठोर मन हो

संघर्षों का भारी घन हो

वक्त के निर्मम थपेड़ों से

दहल ही जायेगा

यह रंगों का मौसम

रंगों सा छल ही जायेगा

*

शब्दों में तेरे दम हो

सिने में तेरे ग़म हो

आंखें तेरी नम हो

तो राह का पत्थर भी

पिघल ही जायेगा

यह रंगों का मौसम

रंगों सा छल ही जायेगा

*

चाहे दिनकर का नक्षत्रों पर राज हो

सृष्टि का सरताज हो

जीवन का आगाज हो

दिनकर दिन में प्रखर हो

पर संध्या को ढल ही जायेगा

यह रंगों का मौसम

रंगों सा छल ही जायेगा

*

किसलिए यह अहंकार हो

द्वेष और तकरार हो

नफ़रत का बाजार हो

यह संकीर्णता का दौर

सब कुछ निगल ही जायेगा

यह रंगों का मौसम

रंगों सा छल ही जायेगा

सहेज लें इस वक्त को बंदे

वर्ना यह पल निकल ही जायेगा /

*

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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