श्री संजय भारद्वाज
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(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 273 ☆ किमाश्चर्यमतः परम् ! 
देख रहा हूँ कि एक चिड़िया दाना चुग रही है। एक दाना चोंच में लेने से पहले चारों तरफ चौकन्ना होकर देखती है, कहीं किसी शिकारी के वेश में काल तो घात लगाये नहीं बैठा। हर दाना चुगने से पहले, हर बार न्यूनाधिक यही प्रक्रिया अपनाती है।
माना जाता है कि पशु-पक्षी बुद्धि तत्व में विपन्न हैं पर जीवन के सत्य को सरलता से स्वीकार करने की दृष्टि से वे सम्पन्न हैं। मनुष्य में बुद्धितत्व विपुल है पर सरल को जटिल करना, भ्रम में रहना, मनुष्य के स्वभाव में प्रचुर है।
मनुष्य की इसी असंगति को लेकर यक्ष ने युधिष्ठिर से प्रश्न किया था,
दिने दिने हि भूतनि प्रविशन्ति यमालयम्।शेषास्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम्।।
अर्थात प्रतिदिन ही प्राणी यम के घर में प्रवेश करते हैं, तब भी शेष प्राणी अनन्त काल तक यहाँ बने रहने की इच्छा करते हैं। क्या इससे बड़ा कोई आश्चर्य है?
युधिष्ठिर ने प्रश्न में ही उत्तर ढूँढ़कर कहा था,
अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम्।शेषाः स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम् ॥
अर्थात प्रतिदिन ही प्राणी यम के घर में प्रवेश करते हैं, तब भी शेष प्राणी अनन्त काल तक यहीं बने रहने की इच्छा करते हैं। क्या इससे बड़ा कोई आश्चर्य हो सकता है?
सचमुच इससे बड़ा आश्चर्य क्या हो सकता है कि लोग रोज़ मरते हैं पर ऐसे जीते हैं जैसे कभी मरेंगे ही नहीं। हास्यास्पद है कि पर मनुष्य चोर-डाकू से डरता है, खिड़की-दरवाज़े मज़बूत रखता है पर किसी अवरोध के बिना कहीं से किसी भी समय आ सकनेवाली मृत्यु को भूला रहता है।
संभवत: इसका कारण ज़ंग लगना है। जैसे लम्बे समय एक स्थान पर पड़े लोहे में वातावरण की नमी से ज़ंग लग जाती है, वैसे ही जगत में रहते हुए मनुष्य की बुद्धि पर अहंकार की परत चढ़ जाती है। सामान्य मनुष्य की तो छोड़िए, अपने उत्तर से यक्ष को निरुत्तर करनेवाले धर्मराज युधिष्ठिर भी इसी ज़ंग का शिकार बने।
हुआ यूँ कि महाराज युधिष्ठिर राज्य के विषयों पर मंत्री से गहन विचार- विमर्श कर रहे थे। तभी अपनी शिकायत लेकर एक निर्धन ब्राह्मण वहाँ पहुँचा। कुछ असामाजिक तत्वों ने उसकी गाय छीन ली थी। यह गाय उसके परिवार की उदरपूर्ति का मुख्य स्रोत थी।
महाराज ने उससे प्रतीक्षा करने के लिए कहा। अभी मंत्री से चर्चा पूरी हुई भी नहीं थी कि किसी देश का दूत आ पहुँचा। फिर नागरी समस्याओं को लेकर एक प्रतिनिधिमंडल आ गया। तत्पश्चात सेना से सम्बंधित किसी नीतिविषयक निर्णय के लिए राज्य के सेनापति, महाराज से मिलने आ गए। दरबार के काम पूरे कर महाराज विश्राम के लिए निकले तो निर्धन को प्रतीक्षारत पाया।
उसे देखकर धर्मराज बोले, “आपको न्याय मिलेगा पर आज मैं थक चुका हूँ। आप कल सुबह आइएगा।”
निराश ब्राह्मण लौट पड़ा। अभी वापसी के लिए चरण उठाये ही थे कि सामने से भीम आते दिखाई दिए। सारा प्रसंग जानने के बाद भीम ने ब्राह्मण से प्रतीक्षा करने के लिए कहा। तदुपरांत भीम ने सैनिकों से युद्ध में विजयी होने पर बजाये जानेवाले नगाड़े बजाने के लिए कहा।
उस समय राज्य की सेना कहीं किसी तरह का कोई युद्ध नहीं लड़ रही थी। अत: नगाड़ों की आवाज़ से आश्चर्यचकित महाराज युधिष्ठिर ने भीम से इसका कारण जानना चाहा। भीम ने उत्तर दिया, ” महाराज युधिष्ठिर ने एक नागरिक को उसकी समस्या के समाधान के लिए कल आने के लिए कहा है। इससे सिद्ध होता है कि महाराज ने जीवन की क्षणभंगुरता को परास्त कर दिया है तथा काल पर विजय प्राप्त कर ली है।”
महाराज युधिष्ठिर को अपनी भूल का ज्ञान हुआ। ब्राह्मण को तुरंत न्याय मिला।
हर क्षण मृत्यु का भान रखने का अर्थ जीवन से विमुखता नहीं अपितु हर क्षण में जीवन जीने की समग्रता है। अपनी कविता ‘चौकन्ना’ स्मरण हो आती है-
सीने की / ठक-ठक / के बीच
कभी-कभार / सुनता हूँ
मृत्यु की भी / खट-खट,
ठक-ठक.. / खट-खट..,
कान अब / चौकन्ना हुए हैं
अन्यथा / ठक-ठक और /
खट-खट तो / जन्म से ही /
चल रही हैं साथ / और अनवरत..,
आदमी यदि / निरंतर /सुनता रहे /
ठक-ठक / खट-खट / साथ-साथ,
बहुत संभव है / उसकी सोच / निखर जाए,
खट-खट तक / पहुँचने से पहले
ठक-ठक / सँवर जाए..!
मनुष्य यदि ठक-ठक और खट-खट में समुचित संतुलन बैठा ले तो संभव है कि भविष्य के किसी यक्ष को भविष्य के किसी युधिष्ठिर से यह पूछना ही न पड़े कि किमाश्चर्यमतः परम् !
© संजय भारद्वाज
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा 
इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें 
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈