हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – दोहे – मेरा गाँव – ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ – दोहे – मेरा गाँव  ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे 

गाँव बहुत नेहिल लगे, लगता नित अभिराम।

सब कुछ प्यारा है वहाँ, सृष्टि-चक्र अविराम।।

*

सुंदरता है गाँव में, फलता है मधुमास।

जी भर देखो जो इसे, तो हर ग़म का नाश।।

*

सुंदर हैं नदियाँ सभी, भाता पर्वतराज।

वन-उपवन मोहित करें, दिल खुश होता आज।।

*

हरियाली है गाँव में, गूँजें मंगलगान।

प्रकृति सदा ही कर रही, गाँवों का यशगान।।

*

खेतों में धन-धान्य है, लगते मस्त किसान।

हैं लहरातीं बालियाँ, करें सुरक्षित शान।।

*

कभी शीत, आतप कभी, पावस का है दौर।

नयन खोल देखो ज़रा, करो प्रकृति पर गौर।।

*

खग चहकें, दौड़ें हिरण, कूके कोयल, मोर।

प्रकृति-शिल्प मन-मोहता, किंचित भी ना शोर।।

*

जीवन हर्षाने लगा, पा मीठा अहसास।

प्रकृति-प्रांगण में सदा, स्वर्गिक सुख-आभास।।

*

जीवन को नित दे रही, प्रकृति सतत उल्लास।

हर पल ऐसा लग रहा, गाँव सदा ही ख़ास।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अपरिहार्य ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – अपरिहार्य ? ?

राजा का मुकुट देख

विस्मित थे नगरवासी,

दुर्लभ रत्नों का

आभामंडल देख

चकित थे नगरवासी,

चकाचौंध में नहीं

देख पाए वे

मुकुट के भीतर के

तीक्ष्ण काँटे और

राजा का

लथपथ रक्ताभिषेक,

जय-जयकार,

हर्ष-उल्लास,

स्वार्थ-प्रमाद,

चाटुकारिता,

कलुष, विडंबना,

बनावटी अपनत्व,

मुकुट ढोने वालों के दुख की

मूक परिणति होती है;

सत्य जानते हुए

चुप रहना

राजा की नियति होती है,

फिर शनैः-शनैः

रीत जाता है सब कुछ,

पूरी कर अपनी पिपासा

मुकुट बंद कर देता है दरवाज़ा;

शासन-प्रशासन से

निर्वासित हो जाता है राजा,

नीति कहती है-

सुरक्षा, अनुशासन,

विकास, संगठन,

सीमाएँ, प्रसार,

उत्थान, खुशहाली के लिए

किसी न किसीको

होना पड़ता है राजा

और हाँ,

व्यवस्था के लिए

अनिवार्य होता है राजा..!

© संजय भारद्वाज 

(प्रातः 8:15 बजे, दि.10.12.2015)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #219 ☆ – ख्वाब – ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  आपकी  एक भावप्रवण रचना … ख्वाब)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 219 – साहित्य निकुंज ☆

☆ ख्वाब ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

ख्वाब आँखों से ऐसे न देखा करें

ख्वाब जन्नत ही ऐसी  दिखाते  फिरे ।

*

ख्वाब देखो न तुम दिखाओ कभी

ख्वाब जीवन से होते है कितने परे।

*

ख़्वाब देखे तो जीवन महकने लगा

ख्वाब में फूल ही फूल कितने झरे।

*

ख़्वाब जब देखा तो ये लगा टूटने

ख्वाब में अश्क तो कितने ही गिरे।

*

ख्वाब ने मुझको तो टूटने न दिया

ख्बाब में ख्वाब तो कितने ही धरे।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #200 ☆ आज  अवध  में  धूम मची है… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज भगवान श्री राम की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा के अवसर पर प्रस्तुत है आज  अवध  में  धूम मची हैआप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 200 ☆

☆ आज  अवध  में  धूम मची है.. ☆ श्री संतोष नेमा ☆

आज  अवध  में धूम  मची है

सरयू -सलिला  सजी-धजी है

आएंगे    प्रभु    राम    हमारे

ढोलक  घंटी  झाँझ  बजी  है

*

बरसों  से  थी  आस   हमारी

आज मिली हैँ  खुशियां सारी

सब मिल गाओ  गीत प्रेम  के

प्रभु मिलन की  आई  घड़ी है

*

प्रभु  का मन्दिर भव्य बना है

बिराजे  जिसमें राम लला  हैँ

केंद्र  बना  सबकी  आशा का

सबको अब आने  की पड़ी है

*

हर   घर  में  उत्सव   दीवाली

खूब  सजीं   पूजा  की  थाली

दिल की बातें कर लो  प्रभु से

आज  कृपा की   हवा चली है

*

सारे   जग  से   न्यारा   मंदिर

हम  सबका   है  प्यारा  मंदिर

आस   दरश “संतोष” लिए  है

बढ़ी   हृदय  में   उतावली   है

*

आज  अवध  में  धूम मची है

सरयू सलिला  सजी-धजी  है

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – जन्मांतर ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – जन्मांतर ? ?

आदमी

जन्म से ही इकट्ठा

करने लगता है

दीवारें,

घर,

पेड़,

रिश्ते,

नाते,

संंबंध,

मित्र,

और बहुत कुछ..,

फिर जब

एक-एक कर

बिखरने लगते हैं

दीवारें,

घर,

पेड़,

रिश्ते,

नाते,

संबंध,

मित्र,

और बहुत कुछ..,

समझ लो

अगला जन्म

तुम्हारी प्रतीक्षा में है!

© संजय भारद्वाज 

(अपराह्न 12 बजे, 6.12. 2017)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 192 ☆ गीत – फूल भी मसले गए ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 193 ☆

☆ गीत – फूल भी मसले गए ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

हम अकेले चल रहे हैं

जिंद़गी की राह में।

गीत मैं कितने लिखूँगा

वेदना से और अपने

अश्रुओं का अर्घ्य देकर

पूर्ण होते कहाँ सपने

 *

तप रहे आज भी हम

एक अन्तर्दाह में।

हम अकेले——-।।

 *

चल पड़ी पगडंडियाँ हैं

हर तरफ से बस शहर में

सच नहीं वे जानती हैं

खुशी मिलती गाँव-घर में

 *

दिन दुखों का बोझ ढोते

रैन कटती आह में।

हम अकेले——-।।

 *

छोड़ कर कर्तव्य – पालन

लग गए हैं होड़ में सब

कुछ पलटकर जोड़ते हैं

प्रेम में देखो गणित अब

 *

फूल भी मसले गए हैं

तालियों की वाह में।

हम अकेले——-।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #33 ☆ कविता – “इश्क तू कर…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 33 ☆

☆ कविता ☆ “इश्क तू कर…☆ श्री आशिष मुळे ☆

(सूफी रॅप)

ए बंदेया तू देख इधर

ना जा तू इधर उधर

सुन कान खोल के

जरा ठंडा कर जिगर

मोह माया में है फंसा

दिल को ना दुखी कर

 *

जो जो तू समझा

वोह एक कहानी

असलियत समझो तो

है तेरी कुर्बानी

 *

वो तुझे चलाते हैं 

झूठी रोशनी दिखाते हैं 

ना है उनके पास

अल्ला या राम

झुकाना है तुमको

बस यही काम

ख़ुदा तो ख़ुदा है

बाकी सब नाम

नाम से क्या होगा

जब अंदर भरा काम

 *

आंखों का तेरा बस

चश्मा उसने बदला है

जो भी सब चलता था

वही सब चलता है

कहेंगे तुझे देख

दुनियां कितनी बदली है

कुछ नहीं बदला

बस तरीक़े तेरे बदले है

 *

उस टाइम में भी

झगड़े होते थे

पत्थर से लोग

लड़ाई करते थे

आज तुझे चॉइस है

किससे तुझे मरना है

बंदूक से मरना है या

संदूक में घुटना है

बदलनी है ये सूरत

तो इसका एक इलाज

खोलो प्यार के रास्ते

हो जन्नत का लिहाज़

 *

खुद को भी प्यार कर

खुद की भी रिस्पेक्ट कर

उसको भी प्यार कर

उसकी भी रिस्पेक्ट कर

 *

बाबा बुलेशाह हो

या अमीर मेरा यार

हो मीरा बाई

या रूमी दर्याकार

हो कबीर या हो

शम्स सूफिकार

इनकी नज़र में

बस प्यार ही प्यार

इश्क़ के बिना

है जिंदगी बीमार

इन्होंने कही

बात असली मेरे यार

 *

इश्क़ कर मीरेया

इश्क़ तू कर

चाहे आसमां

या दर्या से कर

फूलों से कर तू

पौधों से कर

इंसान से कर तू

कायनात से कर

जवानी में कर

चाहें बुढ़ापे में कर

इश्क़ से कर मीरेया

इश्क़ तू कर

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #216 – कविता – ☆ तू चलता चल, अपने बल पर… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपके “तू चलता चल, अपने बल पर…”।)

☆ तन्मय साहित्य  #216 ☆

☆ तू चलता चल, अपने बल पर☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

संकल्प नहीं सौगंध नहीं, अब जो जैसा है ढलने दें

उस कालचक्र की मर्जी पर, वो जैसा चाहें चलने दें

जो हैं शुभचिंतक बने रहें, उनसे ही तो ऊर्जा मिलती

हैं जो ईर्ष्या भावी साथी ,वे जलते हैं तो जलने दें।

हो कर निश्छल मन निर्मल कर।

तू चलता चल,अपने बल पर।।

*

अब भले बुरे की चाह नही, अपमान मान से हो विरक्त

हो नहीं शत्रुता बैर किसी से, नहीं किसी के रहें भक्त

एकात्म भाव समतामूलक, चिंता भय से हों बहुत दूर,

हो देह शिथिल,पर अंतर्मन की सोच सात्विक हो सशक्त।

मत ले सम्बल, आश्रित कल पर।

तू चलता चल,अपने बल पर।।

*

जीवन अनमोल मिला इसको अन्तर्मन से स्वीकार करें

सत्कर्म अधूरे रहे उन्हें, फिर-फिर प्रयास साकार करें

बोझिल हो मन या हो थकान, तब उम्मीदों की छाँव तले

बैठें विश्राम करें कुछ पल, विचलित मन का संताप हरें

मत आँखें मल, पथ है उज्ज्वल।

तू चलता चल,अपने बल पर।।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 40 ☆ खिलखिलाती अमराइयाँ… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “खिलखिलाती अमराइयाँ…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 40 ☆ खिलखिलाती अमराइयाँ… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

हवा कुछ ऐसी चली है

खिलखिलाने लगीं हैं अमराइयाँ।

 

माघ की ख़ुशबू

सोंधापन लिए है

चटकती सी धूप

सर्दी भंग पिए है

 

रात छोटी लग रही हैं

नापने दिन लगे हैं गहराइयाँ।

 

नदी की सिकुड़न

ठंडे पाँव लेकर

लग गई हैं घाट

सारी नाव चलकर

 

रेत पर मेले लगे हैं

बड़ी होने लगीं हैं परछाइयाँ।

 

खेत पीले मन

सरसों हँस रही है

और अलसी,बीच

गेंहूँ फँस रही है

 

खेत बासंती हुए हैं

बज रहीं हैं गाँव में शहनाइयाँ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सिक्का ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – सिक्का ? ?

मेरा शून्य;

मेरा संतृप्त,

समांतर चलते हैं,

शून्य संभावनाओं को

खंगालता है..,

संतृप्त आशंकाओं को

नकारता है..,

सिक्के की विपरीत सतहें

किसने निर्धारित की ?

संभावना और आशंका

किसने परिभाषित की?

शिकारी की संभावना

शिकार के लिए आशंका है,

संतृप्त की आशंका

शून्य के लिए संभावना है,

जीवन परिस्थिति सापेक्ष होता है

बस काल है जो निरपेक्ष होता है..!

© संजय भारद्वाज 

(प्रात: 9:27 बजे, विजयादशमी, 8.10.2019)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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