हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #147 – ग़ज़ल-33 – “नश्तर सी चुभतीं बुज़ुर्ग नसीहतें…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “नश्तर सी चुभतीं बुज़ुर्ग नसीहतें…”)

? ग़ज़ल # 33 – “नश्तर सी चुभतीं बुज़ुर्ग नसीहतें…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

सर-ए-आईना सच्ची बात रखना,

मुवक्किल हो सही हालात रखना।

 

माना बहुत रोशन दिमाग़ हो तुम,

जिरह वास्ते वकील साथ रखना। 

 

भले ही आँसुओं पर हो पाबंदियाँ,

दिल हल्का करने बरसात रखना।

 

बड़ा ख़ुराफ़ाती बच्चा होता दिल,

उसकी शरारतों की ख़ैरात रखना।

 

खुलकर बाँटो ख़ुशियाँ जमाने को,

ख़ुशनुमा लम्हों की सौगात रखना।

 

नश्तर सी चुभतीं बुज़ुर्ग नसीहतें,

धीरे से तुम अपनी  बात रखना।

 

दिल्लगी ज़िंदगी आसान करती है,

मुस्कान होंठों पर बेबात रखना।

 

भले ही चाँद छुपा हो बादल में,

“आतिश” उजले जज़्बात रखना।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मुक्तक – ।। इंसान बनने का सफर, हमेशा जारी रखो।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना ।इंसान बनने का सफर, हमेशा जारी रखो)

☆ मुक्तक – ।। इंसान बनने का सफर, हमेशा जारी रखो।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

[1]

चलता चल   अभी इंसान होने का सफर  बाकी  है।

अभी    समाज  के  लिये करने की डगर  बाकी  है।।

बहुत से इम्तिहान  देने हैं अभी  इस     जीवन    में।

अभी      हौसलें   दिखाने को जिगर     बाकी       है।।

[2]

बनना है    अभी       एक अच्छा इंसान    जीवन में।

अभी   होना किसी दुर्बल पर     मेहरबान जीवन में।।

किसी साथी का दर्द  गम बांटना  इसी     जिंदगी में।

सुनना अभी  किसी  महा पुरुष  व्यख्यान जीवन में।।

[3]

किसी चुनौती मुश्किल का सामना   करना    बाकी है।

किसी भी   गुनाह के लिए प्रभु से   डरना     बाकी है।।

सीखना क्रोध और  अहम को अभी  वश  में   रखना।

इस   अनमोल जिंदगी का अभी कर्ज़ भरना  बाकी है।।

[4]

मन में विश्वास और दिल में तुम जरूर  खुद्दारी      रखो।

लोभ द्वेष तृष्णा को भी तुम त्यागने   की    तैयारी  रखो।।

भीतर स्वाभिमान  का अंश रखना  खूब      संभाल कर।

तुम इंसान    बनने  का  यह सफर हमेशा  जारी      रखो।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – शब्द-ब्रह्म ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – शब्द-ब्रह्म ??

जंजालों में उलझी

अपनी लघुता पर

जब कभी लज्जित होता हूँ,

मेरे चारों ओर

उमगने लगते हैं

शब्द ही शब्द,

अपने विराट पर

चकित होता हूँ..!

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 88 ☆ ’’कौन है जिसको न भाता आगमन बरसात का…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता  “’कौन है जिसको न भाता आगमन बरसात का…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 88 ☆ ’’कौन है जिसको न भाता आगमन बरसात का…”  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

कौन है जिसको न भाता आगमन बरसात का

सब को होता गर्व एक सज्जन स्वजन के साथ का

वर्षा का मौसम मिटा देता सकल संताप दुख

लगता है संसार आतुर है नई शुरुआत का

 

बढ़ती जाती ग्रीष्म में हर दिन सतत रवि की तपन

एक दिन आता , ना होता ताप जब बिल्कुल सहन

निरंतर बहता पसीना सूखता फिर फिर बदन

है कठिन कह कर बताना उन विकल हर पल का

 

सूख जाते पेड़ पौधे सूख जाती है धरा

सूख जाती वनस्पतियां दिखता न पत्ता कोई हरा

सारा वातावरण दिखता रुखा झुलसा अधमरा

रूप रंग हो जाता बद रंग सब शहर देहात का

 

लू लपट चलती भयानक लोगों को लगता है डर

धूप से बचने सभी जन बंद कर लेते हैं घर सिर्फ

कुछ मजदूर ही हैं धूप में आते नजर सिर्फ

एक गमछा लपेटे शायद बस दो हाथ का

 

देख जग की दुर्दशा यह, दौड़ते घनश्याम हैं

हवा आंधी पानी की बौछार लेकर साथ में

दुखियों की रक्षा के हित मन में बटोरे कामना

बांटने जल सब को उनकी चाह के अनुपात में

 

कौन है जिसको न भाता आगमन बरसात का

लाभ मिलता है सभी को सज्जनों के साथ का

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ सृजन शब्द – बरखा ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ 

(साहित्यकार श्रीमति योगिता चौरसिया जी की रचनाएँ प्रतिष्ठित समाचार पत्रों/पत्र पत्रिकाओं में विभिन्न विधाओं में सतत प्रकाशित। कई साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित। राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय मंच / संस्थाओं से 150 से अधिक पुरस्कारों / सम्मानों से सम्मानित। साहित्य के साथ ही समाजसेवा में भी सेवारत। हम समय समय पर आपकी रचनाएँ अपने प्रबुद्ध पाठकों से साझा करते रहेंगे।)  

☆ सृजन शब्द – बरखा ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

(विधा-मनहरण घनाक्षरी)

बरखा बरसा नेह, प्रेमिल गुँजन मेह,

दामिनी दमके देख, छुपा क्षिति राज है ।

 

सजा रखी हिय चाह, पवन दिखाए राह,

अंबर अंतस प्रीत, कहे सरताज है ।।

 

बदरा बरसा नीर, धरे नहीं अब धीर,

ध्वनि करें अति वृष्टि,  जैसे कोई साज है ।

 

प्रकृति दामन सजा, हरियाली का लें मजा,

हर प्राणी सुखी लगे, नूतन अंदाज है ।।

© श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ 

मंडला, मध्यप्रदेश 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ मानस में लोकोत्तियां – भाग – 1॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ मानस में लोकोत्तियां – भाग – 1 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

बालकाण्ड

सठ सुधरहिं सत्संगति पाई-पारस परसु कुधातु सुहाई।

गुन अवगुन जानत सब कोई-जौ जेहिं भाव नीक तेहि सोई।

होइहिं सोई जौ राम रुचि राखा-को करि तर्क बढ़ावै साखा।

नहिं कोउ अस उपजा जग माहीं-प्रभुता पाई जाहिं मद नाहीं।

जहां विरोध माने कहुं कोई, तहां गये कल्याण न होई।

समरथ को नहिं दोष गुँसाईं-रवि पावक सुरसरि की नाँई।

परहित लागि तजई जो दैही-संतत संत प्रशंसहि तेही।

बांझ कि जान प्रसव की पीरा।

पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं।

हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता, कहहिं सुनहिं बहुविधि सब संता।

जिनकी रही भावना जैसी, प्रभु मुरति देखी तिन्ह तैसी।

जेहि के जा पर सत्य सनैहू, सौ तेहि मिलई न कछु संदेहु।

का वर्षा जब कृषि सुखानै, समय चूकि पुनि का पछिताने।

मन मलीन तन सुन्दर कैसे, विष रस भरा कनक घट जैसे।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कविता – अंतर्प्रवाह ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – कविता – अंतर्प्रवाह  ??

हलाहल निरखता हूँ

अचर हो जाता हूँ,

अमृत देखता हूँ

प्रवाह बन जाता हूँ,

जगत में विचरती देह

देह की असीम अभीप्सा,

जीवन-मरण, भय-मोह से

मुक्त जिज्ञासु अनिच्छा,

दृश्य और अदृश्य का

विपरीतगामी अंतर्प्रवाह हूँ,

स्थूल और सूक्ष्म के बीच

सोचता हूँ मैं कहाँ हूँ..!

© संजय भारद्वाज

(रात्रि 3: 33, 23.3.2020)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #138 ☆ भावना के दोहे… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे …।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 138 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे … 

व्याकुल है पंछी सभी,नहीं बुझ रही प्यास।

गरमी इतनी बढ़ रही,बस पानी की आस।।

 

प्यासी धरा पुकारती, कब बरसोगे श्याम।

अब तो सुनो पुकार तुम ,मिले चैन आराम।।

 

प्रेम प्यार की पड़ रही,कैसी गजब फुहार।

मिलना है तुमको अभी,आई प्रीति बहार।।

 

तपी जेठ की धूप में,लगा धरा को घात।

बूँद-बूँद छिड़काव से,ठंडक होता गात।।

 

मन खुशी से झूम रहा,झड़ी लगी है खूब।

थिरक रही है आज धरा,हरी हो रही दूब।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #127 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत हैं   “संतोष के दोहे… । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 127 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा ☆

नशा कभी मत कीजिये, यह अवगुण की खान

बुरा असर परिवार पर, गिरे मान सम्मान

 

लाभ न होता है कभी, धन जाता बेकार

रोष बढ़ाता है यही, जबरन कर तकरार

 

दारू गुटखा, पान अरु, पीते खूब शराब

हासिल कुछ होता नहीं, जीवन करे खराब

 

नव युवक हैं गिरफ्त में, बुरा नशे का जाल

गांजा, हीरोइन, चरस, करे अफीम कमाल

 

मद से ग्रसित न हों कभी, करता सबसे दूर

पद,दौलत सत्ता सभी, मद में करते चूर

 

मन कुंठित तन खोखला, लगें अनेकों रोग

बदले नजर समाज की, समझें सारे लोग

 

घर में बढ़ती है कलह, छोड़ नशे की राह

खुशहाली आये तभी, यही सभी की चाह

 

नशा मौत सम समझिए, होता जहर समान

बिक जाते घर-द्वार भी, धन-दौलत सम्मान

 

हरता बुद्धि विवेक भी, करता यह कमजोर

कुछ नशेड़ी स्वयं ही, घर में बनते चोर

 

दूर रहें सब नारियाँ, नशा पाप का मूल

देता है अपमान, दुख, सोना करता धूल

 

कला और साहित्य का, खूब करें विस्तार

तन-मन हो संगीतमय, झंकृत मन के तार

 

ध्यान-योग निश दिन करें, गर चाहें “संतोष”

बचकर रहें प्रमत्त से, यह जीवन का कोष

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 169 ☆ आभास दायिनी है बिजली !☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता  – आभास दायिनी है बिजली !।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 169 ☆  

? कविता  – आभास दायिनी है बिजली ! ?

शक्ति स्वरूपा, चपल चंचला, दीप्ति स्वामिनी है बिजली ,

निराकार पर सर्व व्याप्त है, आभास दायिनी है बिजली !

 

मेघ प्रिया की गगन गर्जना, क्षितिज छोर से नभ तक है,

वर्षा ॠतु में प्रबल प्रकाशित, तड़ित प्रवाहिनी है बिजली !

 

क्षण भर में ही कर उजियारा, अंधकार को विगलित करती ,

हर पल बनती, तिल तिल जलती, तीव्र गामिनी है बिजली !

 

कभी उजाला, कभी ताप तो, कभी मशीनों का ईंधन बन जाती है,

रूप बदल, सेवा में तत्पर, हर पल हाजिर है बिजली !

 

सावधान ! चोरी से इसकी, छूने से भी, दुर्घटना घट सकती है ,

मितव्ययिता से सदुपयोग हो, माँग अधिक, कम है बिजली !

 

गिरे अगर दिल पर दामिनि तो, सचमुच, बचना मुश्किल है,

प्रिये हमारी ! हम घायल हैं, कातिल हो तुम, अदा तुम्हारी है बिजली !

 

सर्वधर्म समभाव सिखाये, छुआछूत से परे तार से, घर घर जोड़े ,

एक देश है ज्यों शरीर और, तार नसों से , रक्त वाहिनी है बिजली !!

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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