हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 74 ☆ कविता – ।। सम्मान अपने कर्मों संस्कारों से कमाना पड़ता है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ कविता ☆ ।। सम्मान अपने कर्मों संस्कारों से कमाना पड़ता है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

।।विधा।।  मुक्तक।।

[1]

तू  जिंदगी  में  शुकराने  को  जारी  रख।

गमों में भी मुस्कराने  को   जारी  रख।।

बहुत  छोटी  जिंदगी  सुख दुःख से भरी।

तू मत किसी दिल दुखाने को जारी रख।।

[2]

सुन लो तो    सुलझ     जातें हैं यह रिश्ते।

सुना लो तो उलझ   जातें हैं  यह  रिश्ते।।

रिश्तों में बस कोरी दुनियादारी ठीक नहीं।

कोशिश से संवर समझ जातें हैं यह रिश्ते।।

[3]

अपने परिश्रम से ही भाग्य बनाना पड़ता है।

क्रिया कलापों से जीवन उठाना पड़ता है।।

तारीफ  और सम्मान मांगने से मिलते नहीं।

अपने कर्मों संस्कारों    से कमाना पड़ता है।।

 

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 138 ☆ बाल गीतिका से – “सदा स्वार्थ-व्यवहार…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित बाल साहित्य ‘बाल गीतिका ‘से एक बाल गीत  – “सदा स्वार्थ-व्यवहार…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण   प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

 ☆ बाल गीतिका से – “सदा स्वार्थ-व्यवहार…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

आजादी के पहले भारत में था अंग्रेजों का राज।

लूट रहे थे वे हम सबको दीन दुखी था यहाँ समाज ॥

 

तिलक और गाँधी ने देखे सपने, चाहा देशी राज।

कष्ट सहे, समझाया सबको, लाई चेतना और स्वराज ॥

 

उनके उस निस्वार्थ त्याग का सुख हम भोग रहे हैं आज ।

किन्तु खेद है उन्हें भुला कर स्वार्थमुखी हो चला समाज

 

सदा स्वार्थ-व्यवहार जगत् में होता है दुख का आधार ।

धन सुख का आधार नहीं है, वह तो है ममता औ’ प्यार ॥

 

जो चरित्र का पतन दिख रहा यह है बड़ी हमारी हार ।

बहुत जरूरी जन हित में फिर सुधरे हम सबका व्यवहार ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “दोहा मुक्तक प्रेम के…” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

 

दोहा मुक्तक प्रेम के…” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

(१)

प्रेम मधुर इक भावना, प्रेम प्रखर विश्वास।

प्रेम मधुर इक कामना, प्रेम लबों पर हास।

प्रेम सुहाना है समां, है सुखमय परिवेश। 

पियो प्रेमरस डूबकर , रहे संग नित आस।। 

(२)

प्रेम ह्रदय की चेतना, प्रेम लगे आलोक।

प्रेम रचे नित हर्ष को, बना प्रेम से लोक।।

प्रेम एक आनंद है, जो जीवन का सार,  

प्रेम राधिका-कृष्ण है, दूर करे हर शोक।। 

(३)

राँझा है, अरु हीर है, प्रेम मिलन है, गीत।

प्रेम सुखद अहसास है, प्रेम मनुज की जीत।

प्रेम रीति है, नीति है, पावनता का भाव,

प्रेम जहाँ है, है वहाँ चंदा की मृदु शीत।।

(४)

प्रेम गीत, लय, ताल है, प्रेम सदा अनुराग।

प्रेम नहीं हो एक का, प्रेम सदा सहभाग।

पीकर मानव प्रेमरस, जग से रखे लगाव,

प्रेम मिले तो सुप्तता, निश्चित जाती भाग।। 

(५)

खिली धूप है प्रेम तो, प्रेम सुहानी छाँव।

पावन करता प्रेम नित,  नगर,  बस्तियाँ, गाँव।

पीता है जो प्रेमरस, वह पीता उपहार,  

प्रेम भटकते को सदा, देता है नित ठाँव।। 

(६)

प्रेम सदा अमरत्व है, प्रेम सदा गतिमान। 

प्रेम पियो, फिर नित जियो, पूर्ण करो अरमान। 

प्रेम बिना अवसान है, प्रेम बिना सब सून,  

प्रेमपान करके मनुज, पाता है नव शान।। 

(७)

प्रेम मिले तो ज़िन्दगी, पाती है उत्थान। 

प्रेम मिले तो ज़िन्दगी, पाती सकल जहान। 

प्रेम एक है चेतना, प्रेम ईश का रूप,

जो पीते हैं प्रेमरस, पाते नवल विहान।। 

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सदाफूली ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – सदाफूली ??

वे खोदते रहे

जड़, ज़मीन, धरातल,

महामार्ग बनाने के लिए,

नवजात पादप रौंदे गए,

वानप्रस्थी वृक्ष धराशायी हुए,

वह निपट बावरा

अथक चलता रहा

पगडंडी गढ़ता रहा,

पगडंडी के दोनों ओर

आशीर्वाद बरसाते

अनुभवी वृक्ष खड़े रहे,

चहुँ ओर बिखरी हरी घास के

पगडंडी को आशीष मिले,

महामार्ग और सरपट टायर

के समीकरण विशेष हैं,

पग और पगडंडी

शाश्वत हैं, अशेष हैं,

हे विधाता!

परिवर्तन के नियम से

अमरबेलों को बचाए रखना,

पग और पगडंडी के रिश्ते को

यूँ ही सदाफूली बनाए रखना..!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना- यह साधना आषाढ़ प्रतिपदा तदनुसार सोमवार 5 जून से आरम्भ होकर देवशयनी एकादशी गुरुवार 29 जून तक चलेगी। 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #188 ☆ भावना के चित्राधारित दोहे… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 188 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के चित्राधारित दोहे ☆

देख रही है वह मुझे, दरवाजे की ओट।

मंद मधुर मुस्कान है, नहीं दिख रही खोट।।

कजरारी आँखें लिए, काले -काले बाल।

लुक छिपकर वह देखती, कुंडल झूमें गाल।।

देख उसे मन खिंच रहा, उभरा यौवन आज।

बिंदिया मुझे बुला रही, हूँ सजनी का साज।।

नयन अभी कुछ कह रहे, भरा हुआ है जाम।

आ जाओ अब तुम सजन, लिखा तेरा ही नाम।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #174 ☆ एक पूर्णिका – “कई चाहतें खड़ी हुई हैं…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – “एक पूर्णिका – “कई चाहतें खड़ी हुई हैं…”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 174 ☆

 ☆ एक पूर्णिका – “कई चाहतें खड़ी हुई हैं☆ श्री संतोष नेमा ☆

खींचा-तानी   मची   हुई    हैं

आकांक्षाएँ     बढ़ी   हुई    हैं

 

जिस थाली  में करते  भोजन

वही  छेद   से  भरी   हुई  हैं

 

कौन  किसे समझाये  अब तो

समझ  सभी  की  बढ़ी हुई  हैं

 

उलझाते   आपस  में   सबको

फितरत  उनकी  सड़ी  हुई   हैं

 

हमी   रहें   बस   सबसे   आगे

यही   हसरतें   पली    हुई    हैं

 

अंधे   हो  गये  इश्क  में वह तो

आँख   में  पट्टी   चढ़ी   हुई   हैं

 

कैसे   अब    संतोष     मिलेगा

कई    चाहतें   खड़ी    हुई    हैं

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संतृप्त ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – संतृप्त ??

दुनिया को जितना देखोगे,

दुनिया को जितना समझोगे,

दुनिया को जितना जानोगे,

दुनिया को उतना पाओगे..,

अशेष लिप्सा है दुनिया,

जितना कंठ तर करेगी,

तृष्णा उतनी ही बढ़ेगी..,

मैं अपवाद रहा

या शायद असफल,

दुनिया को जितना देखा,

दुनिया को जितना समझा,

दुनिया में जितना उतरा,

तृष्णा का कद घटता गया,

भीतर ही भीतर एक

संतृप्त जगत बनता गया

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना- यह साधना आषाढ़ प्रतिपदा तदनुसार सोमवार 5 जून से आरम्भ होकर देवशयनी एकादशी गुरुवार 29 जून तक चलेगी। 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #4 ☆ कविता – “यादें…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #4 ☆

 ☆ कविता ☆ “यादें…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

यादें आपकी छुपी है

उस धड़कन की तरह

जो दूसरों को नहीं दिखती

मगर इंसान को जिंदा रखती है

 

क्या किसी पल में

है कभी धड़कन रुकी?

क्या किसी लम्हें से कभी

है आप जुदा हुई?

 

जब भी आता है

दिन वो हार का

आपकी यादें तरसाती हैं

उस खूबसूरत चांद की तरह

 

और जब भी आती है

वोह रात जीत की

आपकी यादें सुलगती हैं

उस बेदिल सूरज की तरह

 

जंग के लम्हों में

तुम खूब याद आती हो

 

और …..

 

जीत के लम्हों में

तुम ‘बेहद‘ याद आती हो…

 

©️ आशिष मुळे

 

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 166 ☆ गीत – पुकारती माँ भारती ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 166 ☆

गीत – पुकारती माँ भारती ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

जाग जाओ अब युवा

पुकारती माँ भारती।

लक्ष्य लेकर चल पड़ो

पूर्णिमा निहारती।।

 

अंधकार चीर दो।

न किसी को पीर दो।

श्रम का हाथ थामकर

कुछ नई लकीर दो।।

 

धीरता को पूज कर

नित्य करो आरती।

जाग जाओ अब युवा

पुकारती माँ भारती।।

 

इस धरा का रक्त है।

अल्प – सा ही वक्त है।

सामने आगे खड़ा

वीरता का तख्त है।।

 

जो शिखर पर बढ़ चले

मुश्किलें भी हारतीं।

जाग जाओ अब युवा

पुकारती माँ भारती।।

 

सत्यता की जीत है

श्रेष्ठ सबसे प्रीत है।

साधना ही त्याग का

माधुरी नवनीत है।।

 

शत्रुओं को दो सबक

माँ भारती पुकारती।

जाग जाओ अब युवा

पुकारती माँ भारती।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #188 – कविता – मानसून की पहली बूंदे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता  “मानसून की पहली बूंदे)

☆  तन्मय साहित्य  #188 ☆

☆ मानसून की पहली बूंदे☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

मानसून की पहली बूंदे 

धरती पर आई

महकी सोंधी खुशबू

खुशियाँ जन मन में छाई।

 

 बड़े दिनों के बाद

 सुखद शीतल झोंके आए

 पशु पक्षी वनचर विभोर

 मन ही मन हरसाये,

      बजी बाँसुरी ग्वाले की

      बछड़े ने हाँक लगाई।…..

 

 ताल तलैया पनघट

 सरिताओं के पेट भरे

 पावस की बौछारें

 प्रेमी जनों के ताप हरे,

      गाँव गली पगडंडी में

      बूंदों ने धूम मचाई।……

 

 उम्मीदों के बीज

 चले बोने किसान खेतों में

 पुलकित है नव युगल

 प्रीत की बातें संकेतों में,

       कुहुक उठी कोकिला

       गूँजने लगे गीत अमराई।

       मानसून की पहली बूंदें

       धरती पर आई..

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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