हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 143 ☆ गीत – दिल आबाद कर रही यादें… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण गीत दिल आबाद कर रही यादें)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 143 ☆ 

☆ गीत – दिल आबाद कर रही यादें ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

गीत:

जब जग मुझ पर झूम हँसा

मैं दुनिया पर खूब हँसा

.

रंग न बदला, ढंग न बदला

अहं वहं का जंग न बदला

दिल उदार पर हाथ हमेशा

ज्यों का त्यों है तंग न बदला

दिल आबाद कर रही यादें

शूल विरह का खूब धँसा

.

मैंने उसको, उसने मुझको

ताँका-झाँका किसने-किसको

कौन कहेगा दिल का किस्सा?

पूछा तो दिल बोला खिसको

जब देखे दिलवर के तेवर

हिम्मत टूटी कहाँ फँसा?

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२६-५-२०२३, जबलपुर

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #195 – 81 – “कल न जाने फिर क्या हो…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “कल न जाने फिर क्या हो…”)

? ग़ज़ल # 81 – “कल न जाने फिर क्या हो…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

आओ मौज मनालें कल न जाने फिर क्या हो,

आ जा हंसलें गालें कल न जानें फिर क्या हो।

सूरज ढ़लने  लगा  छाया तो लम्बी होनी है,

आ जाम लगा लें कल न जाने फिर क्या हो।

रात अमावस वाली है अंधकार भी लाज़िम है,

तुमको गले लगालें कल न जाने फिर क्या हो।

लहरें आलिंगन करतीं झील किनारे आ गई हैं,

आ मन को डुबा लें कल न जाने फिर क्या हो

सरसों फूली बसंती गोद हरी भरी दिखती है,

पीली चूनर लहरा लें कल न जाने फिर क्याहो

बिखरी पलाश लालिमा महुआ की मादक गंध,

फाग सुर में गालें कल न जानें फिर क्या हो।

भुला दो वो बातें जो पीड़ा  देतीं  हो “आतिश”,

दिन जीभर जी लें कल न जाने फिर क्या हो।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लेखन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लेखन ??

पत्थर से टकराता प्रवाह ;

उकेर देता है सदियों की गाथाएँ

पहाड़ों के वक्ष पर,

बदलते काल और

ऋतुचक्र के संस्मरण

लिखे होते हैं

चट्टानों की छाती पर,

और तो और

जीवाश्म होते हैं

उत्क्रांति का

एनसाइक्लोपीडिया

…और तुम कहते हो,

लिखने के लिए शब्द नहीं मिलते..!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना- यह साधना आषाढ़ प्रतिपदा तदनुसार सोमवार 5 जून से आरम्भ होकर देवशयनी एकादशी गुरुवार 29 जून तक चलेगी। 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 73 ☆ कविता – ।। शब्द, प्रेम की लकीर देते हैं या फिर कलेजा चीर देते हैं ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ कविता ☆ ।। शब्द, प्रेम की लकीर देते हैं या फिर कलेजा चीर देते हैं ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

।।विधा।।  मुक्तक।।

[1]

शब्द तीर तलवार देते घाव  आपार हैं।

मत बोलो कटु कि कटार    सी धार है।।

समस्या निदान नहीं तो रिश्ते तार तार।

तब सुलह नहीं  अंत में होती तकरार है।।

[2]

शब्दों से दिखता मनुष्य का संस्कार है।

आपके प्रभाव का ये सटीक आधार है।।

कुशब्द स्थान निशब्द रह जाओ हमेशा।

दोनों को लगती ठेस दिल जार जार है।।

[3]

शब्दों के दाँत नहीं काटते बहुत जोर से।

शब्द बांट देते भाई भाई को हर छोर से।।

मर्यादा में ही बोलो  ज्यादा भी मत बोलो।

दोस्ती में गिरह लग  जाती हर ओर से।।

[4]

मीठी जुबानआदमी को मिली नियामत है।

मानव लोकप्रियता मिली जैसे जमानत है।।

जंग नहीं बस जुबां से होती दिलों पे हकूमत।

खराब व्यवहार केवल   लाता कयामत है।।

[5]

कोशिश करो  बस दिल में उतर जाने की।

कोशिश हो सबकीआपके उधर जाने की।।

वाणी वचन  आपकीं पूंजी है सबसे बड़ी।

कोशिश न हो बस दिल से उतर जाने की।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 137 ☆ 24 जून बलिदान दिवस विशेष – “रानी दुर्गावती…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित 24 जून बलिदान दिवस पर विशेष रचना “रानी दुर्गावती…”हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

24 जून बलिदान दिवस विशेष – “रानी दुर्गावती…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

गूंज रहा यश कालजयी उस वीरव्रती क्षत्राणी का

दुर्गावती गौडवाने की स्वाभिमानिनी रानी का।

उपजाये हैं वीर अनेको विध्ंयाचल की माटी ने

दिये कई है रत्न देश को माॅ रेवा की घाटी ने

उनमें से ही एक अनोखी गढ मंडला की रानी थी

गुणी साहसी शासक योद्धा धर्मनिष्ठ कल्याणी थी

युद्ध भूमि में मर्दानी थी पर ममतामयी माता थी

प्रजा वत्सला गौड राज्य की सक्षम भाग्य विधाता थी

दूर दूर तक मुगल राज्य भारत मे बढता जाता था

हरेक दिशा मे चमकदार सूरज सा चढता जाता था

साम्राज्य विस्तार मार्ग में जो भी राज्य अटकता था

बादशाह अकबर की आॅखो में वह बहुत खटकता था

एक बार रानी को अकबर ने स्वर्ण करेला भिजवाया

राज सभा को पर उसका कडवा निहितार्थ नहीं भाया

बदले मेे रानी ने सोने का एक पिंजन बनवाया

और कूट संकेत रूप मे उसे आगरा पहुॅचाया

दोनों ने समझी दोनों की अटपट सांकेतिक भाषा

बढा क्रोध अकबर का रानी से न थी वांछित आशा

एक तो था मेवाड प्रतापी अरावली सा अडिग महान

और दूसरा उठा गोंडवाना बन विंध्या की पहचान

घने वनों पर्वत नदियों से गौड राज्य था हरा भरा

लोग सुखी थे धन वैभव था थी समुचित सम्पन्न धरा

आती हैें जीवन मेे विपदायें प्रायः बिना कहे

राजा दलपत शाह अचानक बीमारी से नहीं रहे

पुत्र वीर नारायण बच्चा था जिसका था तब तिलक हुआ

विधवा रानी पर खुद इससे रक्षा का आ पडा जुआ

रानी की शासन क्षमताओ, सूझ बूझ से जलकर के

अकबर ने आसफ खाॅ को तब सेना दे भेजा लडने

बडी मुगल सेना को भी रानी ने बढकर ललकारा

आसफ खाॅ सा सेनानी भी तीन बार उससे हारा  

तीन बार का हारा आसफ रानी से लेने बदला

नई फौज ले बढते बढते जबलपुर तक आ धमका

तब रानी ले अपनी सेना हो हाथी पर स्वतः सवार

युद्ध क्षेत्र मे रण चंडी सी उतरी ले कर मे तलवार

युद्ध हुआ चमकी तलवारे सेनाओ ने किये प्रहार

लगे भागने मुगल सिपाही खा गौडी सेना की मार

तभी अचानक पासा पलटा छोटी सी घटना के साथ

काली घटा गौडवानें पर छाई की जो हुई बरसात

भूमि बडी उबड खाबड थी और महिना था आषाढ

बादल छाये अति वर्षा हुई नर्रई नाले मे थी बाढ

छोटी सी सेना रानी की वर्षा के थे प्रबल प्रहार

तेज धार मे हाथी आगे बढ न सका नाले के पार

तभी फंसी रानी को आकर लगा आॅख मे तीखा बाण

सारी सेना हतप्रभ हो गई विजय आश सब हो गई म्लान

सेना का नेतृत्व संभालें संकट मे भी अपने हाथ

ल्रडने को आई थी रानी लेकर सहज आत्म विष्वाश

फिर भी निधडक रहीं बंधाती सभी सैनिको को वह आस

बाण निकाला स्वतः हाथ से यद्यपि हार का था आभास

क्षण मे सारे दृश्य बदल गये बढें जोश और हाहाकार

दुश्मन के दस्ते बढ आये हुई सेना मे चीख पुकार

घिर गई रानी जब अंजानी रहा ना स्थिति पर अधिकार

तब सम्मान सुरक्षित रखने किया कटार हृदय के पार

स्वाभिमान सम्मान ज्ञान है माॅ रेवा के पानी मे

जिसकी आभा साफ झलकती हैं मंडला की रानी में

महोबे की बिटिया थी रानी गढ मंडला मे ब्याही थी

सारे गोैडवाने मे जन जन से जो गई सराही थी

असमय विधवा हुई थी रानी माॅ बन भरी जवानी में

दुख की कई गाथाये भरी है उसकी एक कहानी में

जीकर दुख मे अपना जीवन था जनहित जिसका अभियान

24 जून 1564 को इस जग से किया प्रयाण

है समाधी अब भी रानी की नर्रई नाला के उस पार

गौर नदी के पार जहाॅ हुई गौडो की मुगलों से हार

कभी जीत भी यश नहीं देती कभी जीत बन जाती हार

बडी जटिल है जीवन की गति समय जिसे दें जो उपहार

कभी दगा देती यह दुनियाॅ कभी दगा देता आकाश

अगर न बरसा होता पानी तो कुछ और हुआ होता इतिहास

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ अहल्या ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय कविता – अहल्या-)

☆ कविता ☆ अहल्या ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

(काव्य संग्रह ‘कुंभ में छूटी औरतें’ में से)

युगों से विजन वन में

धूप में तपती

आँधियों के थपेड़े सहती

अकेलेपन की यंत्रणा भोगती

पाषाण-प्रतिमा

जिससे आकर पीठ रगड़ते थे

जंगल के जीव

राम की पा चरण-रज

अपूर्व-अनिंद्य सुंदरी बन

राम के सम्मुख खड़ी थी

उसकी प्रश्नाकुल आग्नेय दृष्टि को

झेल नहीं पा रहे थे राम

राम बोले –

‘तुम अहल्या हो, स्मरण करो

गौतम ऋषि की पत्नी

गौतम के शाप से शिला में परिवर्तित

मैं राम हूँ, विष्णु का अवतार

मेरी चरण-रज से ही

तुम्हारा उद्धार होना बदा था।’

 

‘मुझे स्मरण है विष्णु अवतार!

मुझे तुम्हारी चरण-रज पा धन्य होना था

और शीश धरना था तुम्हारे चरणों पर

मुझे गद्गद् होकर तुम्हारा आभारी होना था

इसी की आशा कर रहे थे न तुम राम

परंतु मैं उपकृत नहीं हुई विष्णु अवतार!

मैं धन्य भी नहीं हुई

मैं आहत हुई हूँ।

 

एक बात पूछूँ विष्णु अवतार!

मेरा अपराध क्या था

कि मैंने युगों तक भोगा

शिला होने का अभिशाप

मैं तो छलित थी

दलित, दमित, बलात्कृत

फिर मैं ही क्यों हुई अभिशप्त?

तुम्हारी चरण-रज में

पाषाण में प्राण फूँकने का बल है

पापियों को दंड देने का बल क्यों नहीं?

इंद्र आज भी क्यों जीवित हैं देवराज बनकर?

अविवेकी गौतम क्यों नहीं हुए पाषाण?’

राम निरुत्तर थे, मौन, निरादृत

अहल्या फिर बोली –

‘मुझे वांछित नहीं तुम्हारी चरण-धूलि

लौटा लो अपना कृपापूर्ण उपकार

तुम्हारा वरदान मुझे जीवन दे

इससे मैं शिला ही भली विष्णु अवतार!’

 

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अमर लिप्सा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – अमर लिप्सा ??

राजाओं ने

अपने शिल्प

बनवाये,

अपने चेहरे वाले

सिक्के ढलवाये,

कुछ ने

अपनी श्वासहीन देह

रसायन में लपेटकर

पिरामिड बनाने की

आज्ञा करवाई,

कुछ ने

जीते-जी

भव्य समाधि

की व्यवस्था लगवाई,

काल के साथ

तरीके बदले

आदमी वही रहा,

अब आदमी

अपने ही पुतले,

बनवा रहा है

खुद ही अनावरण

कर रहा है,

वॉट्स एप से लेकर

फेसबुक, इंस्टाग्राम,

ट्विटर पर आ रहा है

अपनी तस्वीरों से

सोशल मीडिया

हैंग करा रहा है,

प्रवृत्ति बदलती नहीं है

मर्त्यलोक के आदमी की

अमर होने की लिप्सा

कभी मरती नहीं है!

 

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना- यह साधना आषाढ़ प्रतिपदा तदनुसार सोमवार 5 जून से आरम्भ होकर देवशयनी एकादशी गुरुवार 29 जून तक चलेगी। 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ ‘अनादि समुच्चय…’ श्री संजय भारद्वाज (भावानुवाद) – ‘Eternal Assemblage…’ ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi poem ~ अनादि समुच्चय ~.  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

श्री संजय भारद्वाज जी की मूल रचना

? संजय दृष्टि- अनादि समुच्चय ??

रोज निद्रा तजना

रोज नया हो जाना

सारा देखा- भोगा

अतीत में समाना,

शरीर छूटने का भय

सचमुच विस्मय है

मनुष्य का देहकाल

अनगिनत मृत्यु और

अनेक जीवन का

अनादि समुच्चय है!

© संजय भारद्वाज 

मोबाइल– 9890122603, संजयउवाच@डाटामेल.भारत, [email protected]

☆☆☆☆☆

English Version by – Captain Pravin Raghuvanshi

(E-Abhivyakti Congratulates Capt. Raghuvanshi ji for The Passion of Poetry Certificate and for taking the Indian literature across the Globe.) 

? ~ Eternal Assemblage ??

Getting up from the sleep

in a new incarnation everyday,

Seeing and facing everything;

Fear of leaving the body, and

vanishing into the forlorn past,

Man’s lifetime is actually

perplexingly amazing;

It is nothing but an

eternal assemblage of

countless lives and

innumerable deaths…!

~Pravin

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #187 ☆ पितृ दिवस पर विशेष – पिता धरा आकाश हैं… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “पितृ दिवस पर विशेष – पिता धरा आकाश हैं।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 187 – साहित्य निकुंज ☆

☆ पितृ दिवस पर विशेष – पिता धरा आकाश हैं ☆

पापा मेरे साथ हैं, हूँ मैं बड़ी महान।

साहित्यिक आकाश में, मिली उन्हें पहचान।।

 

पापा मेरी प्रेरणा, पापा मेरी शान।

पापा से हम सीखते, जीवन का हर ज्ञान।।

 

पिता धरा आकाश हैं, पिता हमारी छाँव।

मुश्किल क्षण में पिता ने, पार लगाई नाव।।

 

पिता से जीवन मिलता, पिता खुशी का साज।

आए दौड़े  वो अभी, बच्चों की आवाज।।

 

सुमित्र हैं मेरे पिता, साहित्यिक वरदान।

लिखा आपने बहुत कुछ, किया बड़ा अवदान।।

 

दिए हमें ही आपने, बड़े ही संस्कार।

होली दिवाली साथ ही, मना रहे त्योहार।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #173 ☆ “संतोष के दोहे…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – “संतोष के दोहे”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 173 ☆

 ☆ “संतोष के दोहे…☆ श्री संतोष नेमा ☆

संकट में जिसने दिया, सदा हमारा साथ

करें प्रकट आभार हम, जिनका सिर पर हाथ

रहा निर्धनों का कभी, अन्न बाजरा ज्वार

किन्तु आज उनमे दिखें, न्यूट्रीशन- भरमार

बचपन से ही बन गये, बच्चे जब सुकुमार

संघर्षों से डरें तभी, हो जाते लाचार

दिल की पुलकन तब बढ़े, जब हो खुशी अपार

सुखद लगे आबोहवा, सुरभित चले बयार

चितवन मेरे श्याम की, मन हर लेती रोज

कहतीं राधा प्रेम से, आज करें हम खोज

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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