हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – स्वार्थ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – स्वार्थ ??

सारा जीवन

जो मरता रहा

स्वार्थ के पीछे,

ज़रा पूछना उससे,

अपनी मृत्यु पर

स्वार्थ जियेगा कैसे?

© संजय भारद्वाज 

सुबह 10:37 बजे,24.7.2019

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना संपन्न हुई साथ ही आपदां अपहर्तारं के तीन वर्ष पूर्ण हुए 🕉️

💥 अगली साधना की जानकारी शीघ्र ही आपको दी जाएगी💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #183 ☆ भावना के दोहे… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे…।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 183 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे… ☆

ग्रीष्म काल की तपन का, अब होता आभास।

झुलस रहे देखो सभी, बस वर्षा की आस।।

धरती तपती ताप से, पंछी हैं बेहाल।

सूखे है जल कूप अब, बुरा हुआ है हाल।।

गर्मी जब से आ गई, नहीं मिली है ठांव।

गांव-गांव सब सूखते, गायब होती छांव।।

जितनी बढ़ती तपन हैं, सूरज खेले दांव।

धीरे-धीरे बढ़ रहे, वर्षा के अब पांव।।

धरती कहे आकाश से, तपन बहुत है आज।

बरसो घन अब आज तुम, हे बादल सरताज।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #169 ☆ “संतोष के दोहे…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – “संतोष के दोहे ”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 169 ☆

☆ “संतोष के दोहे …☆ श्री संतोष नेमा ☆

(विधा:-  कुंडलिया छंद,  विधान:-1 दोहा (13-11) 2 रोला (11-13))

गरमी में जो रख रहे, पशु-पक्षी का ध्यान

रखें सकोरा जल सहित, धन्य वही इंसान। 

धन्य वही इंसान, समझते जो पर पीड़ा

रख ओरों का मान, बनो मत बिच्छू कीड़ा।

कहते कवि “संतोष”, बनें हम सच्चे धरमी

खोजें खुद में दोष, रखें शांत मन गरमी। 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ माटी कहे कुम्हार से… ☆ सुश्री रुचिता तुषार नीमा ☆

सुश्री रुचिता तुषार नीमा

☆ कविता ☆ माटी कहे कुम्हार से…   ☆ सुश्री रुचिता तुषार नीमा ☆

मैं भी माटी का बना हुआ

तू भी माटी से बना हुआ

 

मैं भट्टी की आंच में पका हुआ

तू जीवन संघर्ष से तपा हुआ

 

मैं प्यासे की प्यास बुझाता हुआ

तू अपनों की आस लगाता हुआ

 

मैं भी इंसानों की प्रतिक्षा में

तू भी उनकी राह तकता हुआ

 

मैं हर रंग, रूप और आकार में

तू अनुभव के स्वरूप साकार में

 

बस तुझमें मुझमें इतना अंतर

मैं चोट लगी तो टूट जाऊंगा

तू चोट लेकर और पक जाएगा।।।।

 

© सुश्री रुचिता तुषार नीमा

इंदौर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कविता ☆ “विश्व विवशता दिवस…” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ “विश्व विवशता दिवस…” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

(कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा अङ्ग्रेज़ी भावानुवाद पढ़ने के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें  👉 Compulsion… .)

[1] 

मछली

अपने आँसू

दिखा नहीं सकती

समंदर

देख नहीं सकता

यह विवशता है।

 

[2] 

बादल हों न हों

पानी

बरसे न बरसे

कुछ मेंढ़कों को

डराँव डराँव

करना ही पड़ता है

यह विवशता है।

 

[3] 

पानी और तंत्र की

सांठगांठ है

कुछ लोग जंगल की आग

शब्दों से

बुझाने में लगे हैं

यह भी तो विवशता है।

 

[4] 

बिल्ली के गले में

घंटी बाँधना तो

चाहती हैं

चूहे 

पर

ख्वाब में

यह भी विवशता है।

 

[5] 

ऐसे हैं वैसे हैं

काँटे

खुद के जैसे हैं

ढोंगियों के पाँव तले

फूलों की तरह

बिछाए नहीं जाते

दोनों की विवशता है।।

 

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कालातीत ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – कालातीत ??

जिन्हें तुम नोट कहते थे

एकाएक काग़ज़ हो गए,

अलबत्ता मुझे फ़र्क नहीं पड़ा,

मेरे लिए तो हमेशा ही काग़ज़ थे,

हर काग़ज़ की अपनी दुनिया है,

हर काग़ज़ की अपनी वज़ह है,

तुम उनके बिना जी नहीं सकते,

मैं उनके बिना लिख नहीं सकता,

सुनो मित्र !

लिखा हुआ ही टिकता है

अल्पकाल, दीर्घकाल

या कभी-कभी

काल की सीमा के परे भी,

पर बिका हुआ और टिका हुआ

का मेल नहीं होता,

न दीर्घकाल, न अल्पकाल

और काल के परे तो अकल्पनीय..!

© संजय भारद्वाज 

( रात्रि 9 बजे, 2 मार्च 2019)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिंदी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ जुनून और जज्बे को सलाम… ☆ प्रस्तुति – श्री जयप्रकाश पाण्डेय ☆

श्री सूरज तिवारी

☆ जुनून और जज्बे को सलाम… दुर्भाग्य तुम्हारी ऐसी तैसी… ☆ प्रस्तुति – श्री जयप्रकाश पाण्डेय ☆

आप हैं मैनपुरी के सूरज तिवारी। २०१७ में ट्रेन दुर्घटना में दोनों पैर और एक हाथ गंवा चुके सूरज ने आज आईएएस परीक्षा में कामयाबी पाई है।

उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले के कुरावली कस्बे के रहने वाले सूरज तिवारी. सूरज एक मध्यम वर्गीय परिवार से आते हैं. उनके पिता दर्जी का काम करते हैं. सूरज यूपीएससी परीक्षा पहले अटेम्पट में पास की है. उन्हें 917 रैंक मिली है।

यकीनन, हिम्मत करने वालों की कभी हार नहीं होती…

💐 श्री सूरज तिवारी जी को ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से बहुत बहुत बधाई 💐 शुभकामनाएं 💐

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 161 ☆ बाल गीत – लंबी गर्दन लंबे पैर ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 161 ☆

☆ बाल गीत – लंबी गर्दन लंबे पैर ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

लंबी गर्दन लंबे पैर।

सदा वनों में करता सैर।।

 

थल पशुओं में सबसे लंबा

धरती का है बड़ा अचम्भा

अट्ठारह फुट ऊँचा होता

शाकाहारी जैसे तोता।।

 

जो भी इस पर हमला करता

मार दुलत्ती लेता खैर।

सदा वनों में करता सैर।।

 

अफ्रीका का जंतु अनोखा

नहीं आक्रमण का दे मौका

घास – पात है इसका चारा

चितकबरा है अद्भुत प्यारा।।

 

सदा शांत रहने वाला यह

नहीं किसी से रखता बैर।

सदा वनों में करता सैर।।

 

जू की सैर कर रहे सोनू

साथ में उनके भैया मोनू

थी जिराफ की उसमें प्रतिमा

हमें बिठाओ इस पर अम्मा।।

 

बैठे दोनों उड़े गगन में

खूब मजे में कर ली सैर।।

सदा वनों में करता सैर।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #183 – कविता – चलो हम पेड़ बन जाएँ… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता  “चलो हम पेड़ बन जाएँ…”)

☆  तन्मय साहित्य  #183 ☆

☆ चलो हम पेड़ बन जाएँ… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

 किसी के काम आ जाएँ

 चलो हम पेड़ बन जाएँ

 हवाओं को करें निर्मल,

 पथिक को छाँव मिल जाए।

 

हमारे फूल-फल-पत्ते

मिले बिन मूल्य ही सबको

न बंदिश है यहाँ कोई,

जिसे जो चाहिए पाएँ।

 

करो पहचान तो हमसे

अंग प्रत्यंग में औषध

हकीम आयुष वैद्यों में,

हमारी नित्य चर्चाएँ।

 

करो तुम प्यार या दुत्कार

या पत्थर हमें मारो

रखें ना भेद समता भाव से

सबको ही अपनाएँ।

 

मेल हर एक मौसम से

सभी से मित्रता गहरी

सहज पर्यावरण के दूत,

सम्मुख है विषमताएँ।

 

ये धरती जीव जल जंगल

उगी है खेत में फसलें

सुरक्षा गर हमें दोगे,

न होगी अशुभ विपदाएँ।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 08 ☆ लिखो स्वागतम… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “लिखो स्वागतम।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 08 ☆ लिखो स्वागतम… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

खोल खिड़कियाँ

दरवाज़ों पर लिखो स्वागतम

ख़ुशियों से भर दो आँगन को।

 

अभी बादलों का फेरा है

अंधकार ने भी घेरा है

घोर निशा में पथ न सूझे

अंतस में दुख का डेरा है

 

तोड़ संधियाँ

दुविधाओं को जीतो हरदम

इतना छोटा करो न मन को।

 

ऊबड़-खाबड़ वाले बंजर

उगते हैं आक्रोश निरंतर

पर बैठे हैं बीज भरोसे

देख रहे सपनीला मंजर

 

ओढ़ बिजलियाँ

संकल्पों की,जीतो हर तम

भरो उजालों से जीवन को।

 

बरस दर बरस आते रहते

दिन चरखे पर गाते रहते

समय किसी की बाट न जोहे

मौसम आते-जाते रहते।

 

बनें सुर्ख़ियाँ

ऐसा कुछ तो कर जाओ तुम

तिलक लगा माटी चंदन को।

          ***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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