हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 59 ☆ ।। जिन्दगी अभी बाकी है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।। जिन्दगी अभी बाकी है ।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 59 ☆

☆ मुक्तक  ☆ ।। जिन्दगी अभी बाकी है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

नई उड़ान नए आगाज़   का वक़्त बाकी है।

नई सोच किसी नए साज का वक़्त बाकी है।।

अभी तो खेली है बस पहली पारी जीवन की।

दूसरी पारी का  खुलना राज़ अभी बाकी है।।

[2]

अधूरी हसरतों को नए परवाज़ अभी देना है।

जो पीछे छूट गए उनको आवाज़ अभी देना है।।

अभी तक जो सुप्त  ललक लगन कई कामों की।

जगाकर उस जोश कोअपनाआज अभी देना है।।

[3]

देश समाज के लिए सरोकार अभी निभाना है।

बढ़करआगे कुछ नया करके दिखाना है।।

अभी उम्र गर साठ   की  हुई तो क्या बात।

नई नई मंजिलों पर लगानाअभी निशाना है।।

[4]

बहुत दूर जाना कि जिंदगी अभी बाकी है।

जोशो जनून का जाम खुद बनेगा साकी है।।

बच्चों परिवार को दिखाना हरअच्छा रास्ता।

जिस पल ठहरे बनेगा जीवन बैसाखी है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 123 ☆ कविता – “बने रिश्तों को हरदम प्रेम जल से  सींचते रहिये…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक गावव ग़ज़ल  – “बने रिश्तों को हरदम प्रेम जल से  सींचते रहिये…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण   प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

काव्य धारा #123 ☆  गजल – “बने रिश्तों को हरदम प्रेम जल से  सींचते रहिये…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अचानक राह चलते साथ जो जब छोड़ जाते हैं

वे साथी जिन्दगी भर, सच, हमेशा याद आते हैं।

 

बने रिश्तों को हरदम प्रेम जल से  सींचते रहिये

कठिन मौकोें पै आखिर अपने ही तो काम आते हैं।

 

नहीं देखे किसी के दिन हमेशा एक से हमने

बरसते हैं जहाँ आंसू वे घर भी जगमगाते हैं।

 

बुरा भी हो तो भी अपना ही सबके मन को भाता है

इसी से अपनी टूटी झोपड़ी भी सब सजाते हैं।

 

समझना सोचना हर काम के पहले जरूरी है

किये कर्मो का फल क्योंकि हमेशा  लोग पाते हैं।

 

जहाँ पाता जो भी कोई परिश्रम से ही पाता है

जो सपने देखते रहते कभी कुछ भी न पाते हैं।

 

बहुत सी बातें मन की लोग औरों से छुपाते हैं

अधर जो कह नहीं पाते नयन कह साफ जाते हैं।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ नदी – दो कविताएं ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण एवं विचारणीय कविताएं – नदी – दो कविताएं)

☆ कविता  ☆  नदी – दो कविताएं ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

नदी – एक

मेरे प्राण नदी में बसते थे

और नदी सूख रही थी

मैं नदी की धारा को

कलकल बहते देखना चाहता था

और धारा को रेत ने ढाँप लिया था

मैं अपनी अंजुरियों से

निरंतर हटा रहा था रेत

नदी पुकार उठती बार-बार-

‘सूख जाना मेरी नियति है

व्यर्थ प्रयत्न मत करो, लौट जाओ’

हताश मैं लौटने को होता

तो तड़प उठती नदी

थोड़ा दृष्टि से ओझल होता

तो सुनाई पड़ता कातर स्वर-

‘कहाँ हो ?’

मैं नदी के पास पहुँच

फिर रेत से लड़ने लगता

रेत से लड़ते-लड़ते छलनी हो गए मेरे हाथ

मेरे हाथ देख विचलित हो उठी नदी

उसने उमड़ कर थाम लिए मेरे हाथ

मुझे ताकती रही

और बड़बड़ाती रही नदी-

‘क्यों हठ करते हो

क्यों रेत हो जाना चाहते हो मेरी तरह

लौट जाओ, लौट जाओ !’

मैं हठ ठानकर रेत से लड़ रहा हूँ

और अचरज कि नदी

खुद रेत से प्यार करने लगी है

मुझे अब भी बार-बार सुन पड़ती है

नदी की करुण प्रार्थना-

‘लौट जाओ, मैं मृगतृष्णा हूँ

मेरे पास आओगे

तो प्यास के सिवा कुछ नहीं पाओगे

रेत से लड़ोगे तो हार जाओगे’

मैं नदी की पुकार सुनता हूँ

फिर भी वहीं खड़ा हूँ

मुझे ड़र है तो लौटा तो

तुरंत रेत हो जाएगी नदी

रेत से लड़ते हुए रेत हो जाना स्वीकार है मुझे

सूखने के लिए कैसे छोड़ दूँ

नदी में मेरे प्राण बसते हैं।

 

☆ नदी – दो ☆

तुम चाहते हो

नदी हमेशा बहती रहे

शांत और संयत

उसमें इतना भर पानी रहे

कि तुम किनारे बैठे रहो

और तुम्हारे पाँव जल में डूबे रहें

नदी न कभी तुम्हारा हाथ छुए

न तुम्हारे चेहरे को भिगोए कभी फुहार

नदी कभी आह्लादित न हो, न बहुत उदास

बरसात के मौसम में

कहीं-कहीं से आकर

नदी में मिलता रहे जल

नदी तब भी बनी रहे

स्वच्छ और संयमित

कितने भी पत्थर टूटकर गिरें

नदी का प्रवाह न हो बाधित

मौसम कैसा भी हो

वह बहे एकरस

तुम्हारे पाँवों को छूती हुई

तुम्हें भी पता है

लाख कोशिशों के बावजूद

ऐसे ही नहीं बहती रह सकती

कोई नदी !

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कृतज्ञता ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि –  कृतज्ञता ??

(आगामी कवितासंग्रह से)

कृतज्ञ हूँ

उन सबका,

मुझे रोकने

जो रचते रहे

चक्रव्यूह..,

और परोक्ष में

शनैः- शनैः

गढ़ते गए

मेरे भीतर

अभिमन्यु..!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च तक चलेगी।

💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #172 ☆ कविता – पाती तेरे नाम… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता  पाती तेरे नाम।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 172 – साहित्य निकुंज ☆

☆ कविता – पाती तेरे नाम… ☆

आज लेखनी लिख रही, अपने मन के भाव।

अंतर्मन में हो रहा, बस तेरा अभाव।।

हलचल मन में हो रही, आ जाओ तुम पास।

जीना दूभर हो गया, है मिलने की आस।।

ठंडक मन में  है नहीं , उठता है बस ज्वार।

तुझ तक हमें पहुंचना, मानेंगे ना हार।।

सोच रही हूँ आज मैं, मिलेगा अब जवाब।

बेताबी अब हो रही, आओ करें हिसाब।।

कहना तुमसे बहुत है, पाती तेरे नाम।

कैसे तुझसे मैं कहूँ, तुम  हो मेरे राम।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #159 ☆ “नटखट नंद गोपाल…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी एक पूर्णिका – “नटखट नंद गोपाल। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 159 ☆

☆ “नटखट नंद गोपाल…” ☆ श्री संतोष नेमा ☆

बजी बाँसुरी प्रेम की, हर्षित है बृजधाम

नाचें बृज की गोपियाँ, बोलें जय घनश्याम

ले पिचकारी चल पड़ीं, रखकर संग अबीर

कृष्ण मिलन की लालसा, होता हृदय अधीर

होली की हुड़दंग में, हुए सभी मदहोश

रंग प्रेम का चढ़ गया, आया सब को जोश

श्याम रंग राधे रँगी, हुईं श्याम खुद आप

रंग न दूजो चढ़ सके, समझो प्रेम प्रताप

बरसाने के रास्ते, हुए बहुत ही तंग

ग्वाल,गोपियाँ चल पड़ीं, लिए हाथ में रंग

होली राधेश्याम की, हिय में भरे उमंग

दिखते राधे-कृष्ण भी, एक रूप इक रंग

बरजोरी करने लगे, श्याम राधिके संग

राधा ऊपर से कहें, करो न हमको तंग

पिचकारी ले प्रेम की, नटखट नंद गोपाल

राधा पीछे भागते, बदली उनकी चाल

फागुन प्यारा लग रहा, देख बिरज की फाग

सबके मन “संतोष” है, बढ़ा प्रेम अनुराग

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ग़ज़ल – तुम्हारे नूर का हर अश्क…☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

डॉ निशा अग्रवाल

☆ ग़ज़ल – तुम्हारे नूर का हर अश्क… ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

जिधर देखूं उधर जलवा, नज़र तेरा ही आता है

तुम्हारे नूर का हर अश्क, मेरी नजरों को भाता है।

 

करूं दीदार जब तेरा, मुकद्दर जगमगाता है

तेरे ही दर पे आने को , मेरा मन कसमसाता है।

 

तेरे रुतवे जवानी के, ये दुनियां जानती सारी

तेरा बस नाम सुनकर ही, धड़कती धड़कनें मेरी।

 

नशा तेरा चढ़ा ऐसा कि झूमे हर पल ये अंखियां

बुलाना पास तुम इसको, तनहा कटे ना जब रतियां।

 

हुए मदहोश आंखों से, नतीजा जानता जग है

पिलाई रात भर लेकिन , मेरा रब जानता सब है।

 

रुकेंगे न कदम पीछे, राह दुर्गम भले ही हो

सजाए साथ सपनों को, पूरा करना जानता है।

 

हुई न अब तलक रुसवा, दिल मगरुर था लेकिन

तुम्हारी याद में हर पल, मेरा ये दिल तड़पता है।

©  डॉ निशा अग्रवाल

(ब्यूरो चीफ ऑफ जयपुर ‘सच की दस्तक’ मासिक पत्रिका)

एजुकेशनिस्ट, स्क्रिप्ट राइटर, लेखिका, गायिका, कवियत्री

जयपुर ,राजस्थान

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आओ संवाद करें ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – आओ संवाद करें ??

विवादों की चर्चा में 

युग जमते देखे,

आओ संवाद करें,

युगों को

पल में पिघलते देखें..!

मेरे तुम्हारे चुप रहने से 

बुढ़ाते रिश्ते देखे,

आओ संवाद करें,

रिश्तो में दौड़ते बच्चे देखें..!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च तक चलेगी।

💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 151 ☆ बाल कविता – सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 151 ☆

☆ बाल कविता – सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

राधाकृष्णन थे गुरू , अदभुत उन का ज्ञान।

पाँच सितंबर जन्मदिन, करे देश सम्मान।।

 

श्रेष्ठ विचारक, वक्ता , रखा दार्शनिक ज्ञान।

उत्कृष्ट लेखनी से बने , मानव एक महान।।

 

ईश्वर के प्रिय भक्त थे, बाँटा जग को प्यार।

सत्य बोलकर ही सदा, कभी न मानी हार।।

 

शिक्षक बनकर देश का, सदा बढ़ाया मान।

किया समर्पित स्वयं को, बाँटा सबको ज्ञान।।

 

प्रतिभा की सदमूर्ति थे, नहीं किया अभियान।

सदा पुण्य करते रहे, और बढ़ाई शान।।

 

लड़े सदा अज्ञान से, किया दूर अँधकार।

मिटा कुरीति ज्ञान से, किया सदा उद्धार।।

 

खुशी, प्रेम सत बाँटकर, करें सभी हम याद।

सर्वपल्ली राधाकृष्णन, सदा रहे निर्विवाद।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #173 – दूर जड़ों से हो कर… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है होली पर्व पर आपकी एक भावप्रवण कविता  दूर जड़ों से हो कर…”)

☆  तन्मय साहित्य  #173 ☆

☆ दूर जड़ों से हो कर… 

घर छूटा, परिजन छूटे

रोटी के खातिर

एक बार निकले

नहीं हुआ लौटना फिर।

 

वैसे, जो हैं वहाँ

उन्हें भी भूख सताती

उदरपूर्ति उनकी भी

तो पूरी हो जाती,

घी चुपड़ी के लिए नहीं

वे हुए अधीर,

एकबार निकले…

 

दूर जड़ों से होकर

लगा सूखने स्नेहन

सिमट गए खुद में

है लुप्त हृदय संवेदन,

चमक-दमक में भटके

बन कर के फकीर,

एकबार निकले…

 

गाँवों सा साहज्य,

सरलता यहाँ कहाँ

बहती रहती है विषाक्त

संक्रमित हवा,

गुजरा सर्प, पीटने को

अब बची लकीर,

एकबार निकले…

 

भीड़ भरे मेले में

एक अकेला पाएँ

गड़ी जहाँ है गर्भनाल

कैसे जुड़ पाएँ,

बहुत दूर है गाँव

सुनाएँ किसको पीर,

एकबार निकले

नहीं हुआ लौटना फिर।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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