हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा#78 ☆ गजल – ’’खुद से भी शायद ज्यादा…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “खुद से भी शायद ज्यादा…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 78 ☆ गजल – खुद से भी शायद ज्यादा…  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मेरे साथ तुम जो होते, न मैं बेकरार होता,

खुद से भी शायद ज्यादा, मुझे तुमसे प्यार होता।

तुम बिन उदास मेरी मायूस जिन्दगी है,

होते जो पास तुम तो क्यों इन्तजार होता ?

 

मजबूरियाँ  तुम्हारी तुम्हें दूर ले गईं हैं,

वरना खुशी का हर दिन एक तैवहार होता।

मुह मांगी चाह सबको मिलती कहाँ यहाँ है ?

मिलती जो, कोई सपना क्यों तार-तार होता ?

 

हँसने के वास्ते कुछ रोना है लाजिमी सा,

होता न चलन ये तो दिल पै न भार होता।

मुझको जो मिले होते मुस्कान लिये तुम तो,

इस जिन्दगी में जाने कितना खुमार होता।

 

आ जाते जिन्दगी में मेरे राजदार बन जो,

सपनों की झाँकियों का बढ़िया सिंगार होता।

हर रात रातरानी खुशबू बिखेर जाती,

हर दिन आलाप भरता सरगम-सितार होता।

 

तकदीर है कि ’यादों’ में आते तो तुम चुप हो,

पर काश कि किस्मत में कोई सुधार होता।।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अविनाशी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – अविनाशी ??

कभी पहाड़ से कूदता है,

कभी आग में लोटता है,

कभी पानी में उतरता है

कभी चाकू से गोदता है,

चीखता है, चिल्लाता है,

रोता है, गिड़गिड़ाता है,

चोला बदलने के लिए

कई पापड़ बेलता है,

सहानुभूति का पात्र है

जर्मन लोक-कथाओं में

अमरता का वरदान पाया

वह अभिशप्त राक्षस..,

 

अमर्त्य होने की इच्छा पर

अंकुश कब लगाओगे मनुज,

अपनी अविनाशी नश्वरता का

उत्सव कब मनाओगे मनुज.?

© संजय भारद्वाज

रात्रि 1:53 बजे, 14.4.2019

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 16 (71-75)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #16 (71 – 75) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -16

 

निज रानियों संग नहाते हुए कुश, सरयू के जल में लगे यों सुहाने।

जैसे कि आकाश गंगा में हो इंद्र, सुर अप्सराओं के संग में नहाने।।71।।

 

श्रीराम ने वन में कुम्भज ऋषि से विजयशील दिव्या भरण जो था पाया।

दिया उनने था कुश को, पर कुश ने उसको नहाते अलक्षित था जल में गिराया।।72।।

 

कर स्नान जल क्रीड़ा संग रमणियों के, जब कुश निकल जल के तट पर थे आ।

तो उस वलय रहित लख निज भुजा कों, विस्मित हुये चैन मन में ने पाये।।73।।

 

श्री के वशीकरण का था वलय वह, जो था मिला उन्हें अपने पिता से।

अतः धीर कुश हानि से थे दुखी लोभ नहिं, उन्हें सम फूल औं’ संपदा थे।।74।।

 

आदेश देकर कुशल धीवरों को वलय खोजने के लिये तब लगाया।

यत्नों से भी जब वह न उनको मिला उनने कर बद्ध हो आके कुश को बताया।।75।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ कविता – राग ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता राग।)

☆ कविता – राग ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

आजन्म रक्तरंजित रहते आए होंगे

भीम के घुटने

पांडवों के संग वन-वन भटकते

जब भी द्रौपदी को प्यास लगी

भीम ने घुटनों से

फोड़ डाली कोई चट्टान

भीम में बुद्धि ज़रा कम थी

इसलिए राग ज़रा ज़्यादा

युधिष्ठिर में राग ज़रा कम था

बुद्धि बहुत ज़्यादा

स्वर्गारोहण के समय

द्रौपदी जब हिम में धँसी

तो हाथ बढ़ाकर भीम ने

थाम लेना चाहा उसे

पर युधिष्ठिर ने कहा-

‘बस यहीं तक था

हमारा और उसका साथ’

लाचार भीम चलता गया

अपने भाइयों के साथ

रह-रहकर उसकी आँखें

कातर द्रौपदी को देखतीं

और आँखों से टपक जाता

कोई तप्त आँसू

पिघल जाती पैरों तले की हिम

आख़िर ओझल हो गई द्रौपदी

आख़िर सूख गये भीम के आँसू

आख़िर हिम में धँस

स्वयं हिम हो गया भीम

सुनते हैं

हिम हुए भीम की आँखें

आज भी वहाँ देखती हैं

जहाँ हिम में धँसी थी द्रौपदी।

 

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क –  406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सार्वकालीन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – सार्वकालीन ??

मेरा समय

क्षुब्ध है मुझसे,

निरर्थक बिता देने से

क्रुद्ध है मुझ पर,

पर यह केवल

मेरा सत्य नहीं है,

स्वयं को कर्ता समझ कर

जब कभी इस कविता को बाँचोगे,

इसमें प्रयुक्त ‘मेरा’ को

सदा सार्वजनीन पाओगे,

अपने समय का

और हर समय का

सार्वभौम यथार्थ कहती है,

कविता समकालीन होती है,

कविता सार्वकालीन रहती है!

© संजय भारद्वाज

(रात्रि 12:10 बजे, 28.4.2022)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #129 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 129 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

लगी द्वार पर टकटकी, देख रही है राह।

जिज्ञासा मन में जगी, बेटे की है चाह।।

 

दया, मोह, ममता नहीं, नहीं किसी से नेह।

जीवन के अब अंत में, छूट गया है गेह।।

 

आज नहीं तुम्हें समझ, कल का कैसा हाल।

सोच रहे है हम वही, नहीं लौटता साल।।

 

टूट गए रिश्ते सभी, तुझे नहीं पहचान।

वक्त तुझे सिखला रहा, बन जाओ इंसान।।

 

माँ का अक्सर उठ रहा, दुआ के लिए हाथ।

अंतर्मन कहता यही, रहते मिलजुल साथ।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 16 (66-70)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #16 (66 – 70) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -16

 

सब तरूणियाँ जल में आनन्द से परसार केलि में उछाले जल कणों से।

गीली लटाओं से कुंकुम मिले हुये, जल बिन्दु टपकाती थी लाल रंग के।।66।।

 

खुले बालों, रचना रहित गालों, बिन कर्णफूलों के भी बहुत लगती थी प्यारी।

बौछार से जल की, भीगी, असंयत थी पर छबि में मोहक अधिक थीं वे नारी।।67।।

 

तभी सजी नौका से आ कुश वहाँ, पहने उलझा हुआ हार, उतरा नदी में।

जैसे कि वन गज लपेटे कमल-नाल, उतरा हो सर में कही हथनियों में।।68।।

 

कुश को पा मुक्ता सी वे रमणियाँ यों लसी अधिक शोभित कि ज्यों रोशनी हो।

मुक्ता तो वैसे ही दिखता है सुन्दर,क्या कहना कि संग में अगर नीलमणि हो।।69।।

 

विशालाक्षि बालाओं ने प्रेम से कुश को जब कुंकमी रंग के जल से भिंगाया।

दिखे कुश कुछ ऐसे कि गेरू की जल-धार से रँगा सुन्दर हिमालय सुहाया।।70।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 107 ☆ गीतिका – कहाँ लौट फिर आते दिन ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं भावप्रवण गीतिका  “कहाँ लौट फिर आते दिन”.

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 107 ☆

☆ गीतिका – कहाँ लौट फिर आते दिन  ☆ 

सुख – दुख बीते हैं अनगिन

कहाँ लौट फिर आते दिन।।

 

उम्र बीत गई यूँ ही मित्रो

ताक धिना धिन – धिन- धिन – धिन।।

 

इच्छा और अपेक्षाओं ने

तोड़ दिया है अपना मन।।

 

अपनी धुन में रहे मस्त वह

सदा चुभाई उसने पिन।।

 

दुष्टों की कर सदा उपेक्षा

फिर ना मारेंगे ये फन।।

 

कौन है अपना कौन पराया

सबमें खिलता एक सुमन।।

 

बीता बचपन गई जवानी

उम्र बीत गई है पचपन।।

 

पेड़ लगा ले इस धरती पर

श्वासों का है यही चमन।।

 

जैसे पेड़ फलों से झुकता

मद में प्यारे कभी न तन।।

 

गर्मी लू से जब तप जाते

मन को भाते बरसें घन।।

 

अच्छा कर ले समय नहीं है

कब उड़ जाए पक्षी बन।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – प्रतीक्षा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – प्रतीक्षा ??

अंजुरि में भरकर बूँदें

उछाल दी अंबर की ओर,

बूँदें जानती थीं

अस्तित्व का छोर,

लौट पड़ी नदी

की ओर..,

 

मुट्ठी में धरकर दाने

उछाल दिए आकाश की ओर,

दाने जानते थे

उगने का ठौर

लौट पड़े धरती की ओर..,

 

पद, धन, प्रशंसा, बाहुबल के

पंख लगाकर

उड़ा दिया मनुष्य को

ऊँचाई की ओर..,

……….,………..,

….तुम कब लौटोगे मनुज..?

© संजय भारद्वाज

श्रीविजयादशमी 2019, अपराह्न 4.27 बजे।

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – कविता ☆ बाल कविता: जयपुर बनारस परिन्दा एक्सप्रेस ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।)

 ☆ बाल कविता: जयपुर बनारस परिन्दा एक्सप्रेस☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

गौरैया, तू चलना काशी

तेरे बिन है वहाँ उदासी।

जयपुर में सब उड़ती रहती

जाने किच किच गा क्या कहती?

अशोक ने है डाल सजायी,

तुझे बुलाया, छाँह बिछायी।

मीठी नीम ने धुन सुनाई,

पत्तियों की पायल बजाई।

इस डाली से उस डाली पर

पंख चलाती फुदक फुदक कर।

गौरैया क्या करती दिनभर?

ले चल मम्मी पापा के घर।

बनारस में कोई नहीं है ?

रिश्ते नाते सभी यहीं हैं ?

खाती चुन चुन कर तू दाने

और परिन्दे हैं पहचाने ?

जयपुर छोड़ बनारस आ जा

दाना दादी देगी, खा जा।

चल वहाँ भी छत की मुड़ेड़ है

आँगन में तुलसी के पेड़ है।

किस बात पर हो गई कुट्टी ?

काशी चल, जयपुर से छुट्टी !

♣ ♣ ♣ 

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

नया पता: द्वारा, डा. अलोक कुमार मुखर्जी, 104/93, विजय पथ, मानसरोवर। जयपुर। राजस्थान। 302020

मो:9455168359, 9140214489

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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