हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 16 (56-60)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #16 (56 – 60) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -16

 

सीढ़ी उतरती हुई कामनियों के केयूर, कंकण औं नूपुर की ध्वनि सुन।

जल में विहरते हुये हंस चौंके, सहसा हुये स्तब्ध सुन करके रूनझुन।।56।।

 

नौका पै बैठे हुए कुश ने देखा जलाषेक करती हर एक कामिनी को।

लख उनकी स्नान में रूचि बढ़ी, कहा कुश ने बुला एक चमरवाहिनी को।।57।।

 

दिखता है संध्या के मेघों सरीखा रंगा-विरंगा सा सरयू का पानी।

धुले अंगरागों से ऐसा गया हो, नहाती जहाँ मिलके सब साथ रानी।।58।।

 

नौका नयन से उठी हिलोरों से धुली सबके नेत्रों के काजल की काली।

बदले में सरयू के जल ने दी उनके नयनों को मदिरा के पीने की लाली।।59।।

 

नितंबों व स्तनों के भार से वे कामिनियाँ सही तैर सकती नहीं थी।

पर मोटे भुज बंधों मय भुजाओं से अथक पर विफल यत्न सबकर रही थी।।60।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#129 ☆ कविता – कितना चढ़ा उधार… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता “कितना चढ़ा उधार…”)

☆  तन्मय साहित्य  #129 ☆

☆ कविता – कितना चढ़ा उधार… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

एक अकेली नदी

उम्मीदें

इस पर टिकी हजार

नदी खुद होने लगी बीमार।

 

नहरों ने अधिकार समझ कर

आधा हिस्सा खींच लिया

स्वहित साधते उद्योगों ने

असीमित नीर उलीच लिया

दूर किनारे हुए

झाँकती रेत, बीच मँझधार।

नदी खुद…..

 

सूरज औ’ बादल ने मिलकर

सूझबूझ से भरी तिजोरी

प्यासे कंठ धरा अकुलाती

कृषकों को भी राहत कोरी

मुरझाती फसलें,

खेतों में पड़ने लगी दरार।

नदी खुद……

 

इतने हिस्से हुए नदी के

फिर भी जनहित में जिंदा है

उपकृत किए जा रही हमको

सचमुच ही हम शर्मिंदा हैं

कब उऋण होंगे

हम पर है कितना चढ़ा उधार

नदी खुद होने लगी बीमार।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 24 ☆ कविता – बुन्देली गीत – बसन्त आऔ ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक बुंदेली गीत  “बसन्त आऔ”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 24 ✒️

?  कविता – बुन्देली गीत – बसन्त आऔ — डॉ. सलमा जमाल ?

बसन्त आओ बसन्त आओ,

भरकैं टुकनिया फूल लाऔ ।

खुसी मनातीं नई नवेली ,

परदेस सें संदेसो आऔ ।।

 

खेतन में है सरसों फूलो ,

अमराई पे डर गऔ झूलो ,

मंजरी चहूं दिशा मेहकाबे ,

कोयल ने पंचम सुर घोलो ,

बेला बखरी में है फूलो ,

धरती पे स्वर्ग उतर आऔ ।

बसन्त ———————- ।।

 

चारऊं ओर महकत है पवन ,

है सोभा मधुमास अनन्त ,

बखरी ओ वन में बगरो बसन्त ,

पल में महक उठे दिगदिगंत ,

सब रे पच्छी करत हैंकलरव,

गुनगुन करत जो भौंरा आऔ ।

बसन्त ———————- ।।

 

जंगल में फैली है खुसहाली ,

सुखी भऔ बगिया कौ माली,

धरा की सुन्दर छटा अनोखी ,

झूमत रस में डाली – डाली ,

लरका खेलत दै – दै ताली ,

‘सलमा ‘ पतझर खौ मौं चिढ़ाऔ।

बसन्त ———————- ।।

 

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 16 (51-55)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #16 (51 – 55) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -16

 

अर्जुन की पीली खिली मंजरी देख लगता है जैसे धनुष रज्जु कोई हो।

कर काम को भस्म, शिव ने हि जैसे, धनुष डोर धनु की कि ज्यों तोड़ दी हो।।51।।

 

दे सुगन्धित आम्र-पल्लव, सुरा इक्षु की और पाटल के पुष्पों की माया।

लगता है जैसे कि ऋतु ग्रीष्म ने अपने दोषों को कामी जनों से छुपाया।।52।।

 

उस ग्रीष्म ऋतु में लगे दो ही प्रिय सबको, जिनकी प्रभा का सुहाना था फंदा।

एक राजा कुश अपने दुखहारी गुण से, औं दूसरा नभ में अभ्युदित चंदा।।53।।

 

तब ग्रीष्म में सुखद सरयू के जल में, जहाँ राजहंस मत्त थे केलि करते।

लता पुष्प के पुंज थे जिन तटों पै, वहाँ कुश ने चाहा-कि विहार करते।।54।।

 

जहाँ नक्र इत्यादि से जल सुरक्षित कराया गया था औं था तट सुहाना।

वहाँ सरयू जल में महाविष्णु सम कुश ने हो, रानियों साथ चाहा नहाना।।55।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆☆ संजय दृष्टि – विस्मय ☆☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – विस्मय ??

रोज निद्रा तजना,

रोज नया हो जाना,

सारा देखा-भोगा,

अतीत में समाना,

शरीर छूटने का भय,

सचमुच विस्मय है,

मनुष्य का देहकाल,

अनगिनत मृत्यु और

अनेक जीवन का

अनादि समुच्चय है..!

© संजय भारद्वाज

17 सितम्बर 2017

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 16 (46-50)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #16 (46 – 50) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -16

 

शैवालिनी सीढ़ियों से उतर नीचे, गृहवापी जल कमर भर रह गया

खिलते जहाँ के कमल वहाँ अब मान, डण्ठल ही सूखा खड़ा रह गया है।।46।।

 

वन में खिले मल्लिका पुष्प की गंध से खिंच कली-कली के पास जाकर।

गुंजार करता भ्रमर, गणना सी करता है दीखता मधुर रस में लुभाकर।।47।।

 

खिसक कान से कामिनी के सिरस पुष्प भी अचानक नीचे गिरने न पाता।

क्योंकि पसीने से तर दंतक्षत पर कपोलों के ही वह चिपक सहज जाता।।48।।

 

धनी-मानी जन भर के चन्दन का जल फुहारों से छिड़ककर बिताते हैं रातें।

ठंडी शिला के पलंगों पै लेटे न जब, नींद आती हो करते हैं बातें।।49।।

 

जो काम अपने सखा वसंत के बिन, निबल और निस्तेज सा हो है जाता।

वही मल्लिका पुष्प गुंफित अलकगंध पा स्नात नारी की, बल है दिखाता।।50।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 85 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 85 –  दोहे ✍

नहीं प्रेम की व्याख्या, नहीं प्रेम का रूप।

कभी चमकती चांदनी, कभी दहकती धूप।।

 

प्रेम किया जाता नहीं, लगता औचक तीर।

 अनदेखे से घाव हों, मीठी मीठी पीर।।

 

स्वाति बिंदु -सा प्रेम है, पाते हैं बड़भाग।

प्रेम सुधा संजीवनी, ममता और सुहाग।।

 

बांच  सको तो बांच लो, आंखों का अखबार।

प्रथम पृष्ठ से अंत तक, लिखा प्यार ही प्यार।।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत #88 – “बाहर हाँफ रही गौरैया …” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “बाहर हाँफ रही गौरैया…”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 88☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “बाहर हाँफ रही गौरैया…”|| ☆

एक सकोरा पानी-दाना

रक्खा करती माँ

औरों की खातिर चिड़ियों

सी उड़ती रहती माँ

 

छाती में दुनिया-जहान की

लेकर पीड़ायें

आँचल भर उसको सारी

जैसे हों क्रीड़ायें

 

आगे खिडकी में

आँखों के चित्र कई टाँगे

पीड़ा को कितनी आँखों से

देखा करती माँ

 

बाहर हाँफ रही गौरैया

उस मुँडेर तोती

जहाँ उभरती   दिखे

सभी को आशा की धोती

 

गर्मी गले-गले तक आकर

जैसे सूख गई

इंतजार में हरी-भरी सी

दिखती रहती माँ

 

लम्बे-चौड़े टीम-टाम है

बस अनुशासन के

जहाँ टैंकर खाली दिखते

नागर प्रशासन के

 

वहीं दिखाई देती सबकी

सजल खुली आँखें

इन्हीं सभी में भरे कलश

सी छलका करती माँ

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

17-04-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सूत्र ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – सूत्र ??

घर पर ही हो,

कुछ नहीं घटता,

कुछ करना भी नहीं पड़ता

इन दिनों..,

बस यही अवसर है,

खूब लिखा करो,

क्या बताऊँ,

लेखन का सूत्र

कैसे समझाऊँ?

साँस लेना ज़रूरी है

जीने के लिए..,

कुछ घटना, कुछ करना,

अनिवार्य हैं लिखने के लिए !

(दो वर्ष पूर्व लॉकडाउन के दौरान लिखी)

© संजय भारद्वाज

संध्या 7:50, 21.4.2020

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ विश्व पुस्तक दिवस विशेष – किताबें – स़फदर हाशमी ☆ संकलनकर्ता – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

☆ कविता ☆ विश्व पुस्तक दिवस विशेष – किताबें – स़फदर हाशमी ☆ संकलनकर्ता – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

किताबे कुछ कहना चाहती है।

तुम्हारे पास रहना चाहती है।

किताबों में चिड़ियाँ चहचहाती है।

किताबों में खेतियाँ लहलहाती है।

किताबों में झरने गुनगुनाते है।

परियों के किस्से सुनाते है।

किताबों में राकट का राज है।

किताबों में सायन्स की आवाज है।

किताबों में कितना बड़ा संसार है।

किताबों में ज्ञान की भरमार है।

क्या तू इस संसार में

नहीं जाना चाहोगे?

किताबे कुछ कहना चाहती है।

तुम्हारे पास रहना चाहती है।

 

किताबे करती है बाते

बिते जमानों की

दुनिया की, इंसानों की,

आज की, कल की

एक एक पल की

खुशियों की, गमों की

फूलों की, बमों की

जीत की, हार की

प्यार की, मार की

क्या तुम नहीं सुनोंगे

इन किताबों की बाते?

 

 – स़फदर हाशमी

संकलनकर्ता – श्रीमती उज्ज्वला केळकर

मो. 9403310170,   e-id – [email protected]  

संपर्क -17 16/2 ‘गायत्री’ प्लॉट नं. 12, वसंत दादा साखर कामगारभावन के पास , सांगली 416416 महाराष्ट्र 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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