हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#116 ☆ जड़ों को सूखने मत दो…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण कविता “जड़ों को सूखने मत दो….”)

☆  तन्मय साहित्य  #116 ☆

☆ जड़ों को सूखने मत दो….

जड़ों को सूखने मत दो

उन्हीं से ये चमन महके।

 

कुमुदनी मोगरा जूही

सुगंधित पुष्प ये सारे

चितेरा कौन है जिसने

भरे हैं रंग रतनारे,

गर्भ से माँ धरा के

टेसू के ये कुसुम दल दहके…..

 

न भूलें जनक-जननी को

वही हैं श्रोत ऊर्जा के

वही आराध्य हैं तप है

वही जप-मंत्र पूजा के,

जताते हैं नहीं जो भी

किए उपकार, वे कह के…..

 

सहे जो धूप वर्षा ठंड

मौसम के थपेड़ों को

निहारो नेह से रमणीय

साधक सिद्ध पेड़ों को,

जीवनीय प्राणवायु दे

अनेकों कष्ट सह कर के….

 

हवाएँ बाहरी जो है

न हों मदमस्त इठलाएँ

रुपहली धूप से दिग्भ्रान्त

भ्रम में हम न भरमाएँ,

उन्हें ही प्राणपोषक रस

जुड़े जड़ से, वही चहके…..

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 9 ☆ नदी और पहाड़ ☆ डॉ. सलमा जमाल

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है। 

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर भावप्रवण  रचना  “नदी और पहाड़ ”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 9 ✒️

?  नदी और पहाड़ —  डॉ. सलमा जमाल ?

 मैं हूं नदी ,

 अनवरत रूप से

बहती हुई, चली जा रही हूं

अज्ञात की ओर ,

ना पता , ना मंजिल ,

ना कोई हमसफ़र ,

और तुम थे पहाड़ ,

रहे अडिग सदा ही

नदी को बहते देखने के लिए ।

हाय ! मैं रही असफल ।।—-

 

तुम्हारे अंदर अपनी लहरों से ,

कटाव भी ना बना सकी ,

ना ही समा पाई तुम्हारे अंदर

” तुम थे कठोर “

फिर भी तुम्हारे ऊपर ,

हरियाली कैसे उग आई ?

पत्थर , पानी , हरियाली ,

क्या कभी बन सकते हैं ?

किसी के साहचर्य ,

सोच कर होता हैआश्चर्य।।—

 

तुमने अपनी कठोरता से ,

कभी एक नहीं

होने दिया किनारों को,

और ना ही दोनों किनारों पर,

खड़े पेड़ , हरीतिमा को

आपस में कभी

गले मिलने दिया ,

” परन्तु “

सभी मिलकर प्यास

बुझाते रहे मेरे

निर्मल पानी से ,

कितना दर्दनाक है यह मंजर।। —

 

क्या कभी किया है एहसास

अगर मैं सूख जाती तो

तुम कैसे रह सकते थे

हरे भरे और अडिग ,

कैसे बुझाते अपनी प्यास ।

आने वाली नस्ल को

विरासत में क्या सौंपते ?

कैसे बधांते आस ।। —-

 

मेरे सूख जाने से

हो जाओगे निष्प्राण ,

अभी समय है ,बाहुपाश में

ले लो मुझे ,कर लो

सुरक्षित स्वयं केलिए ,

दोनों किनारों को मिलने दो,

पानी की ठेल से खोह ,

कटाव बनने दो ,

हम तुम एक दूसरे में

समा जाएं ।। —

 

तब संसार को मिलेगा ,

निरंतर चलने का आभास ।

फिर कोई भी ना हो

पाएगा “सलमा”

जीवन से निराश ।।

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 11 (36-40)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #11 (36-40) ॥ ☆

पुर्नवसू सम स्वर्ग से आये धरा पर मान ।

पुरवासी जन ने किया अपलक छवि का पान ।।36 ।।

 

अग्निहोत्र की कर क्रिया, मुनि ले नृप का नाम ।

कहा जनक धनु दरस हित उत्सुक हैं श्री राम।।37 ।।

 

जन्में रघुकल में कमल सम शिशु रूप निहार ।

नृपभारी धनुभंग का करने लगे विचार।।38 ।।

 

बड़े हाथियों से भी जो, होये सहज न काज ।

गज शिशु से कैसे भला वह संभव मुनिराज।।39 ।।

 

जिसकी डोरी बाँधने में कई नृप गये हार ।

उस धनु से लज्जित, गये निज बल को धिक्कार ।।40II

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 16 – बुंदेली गीत – सच्चई-मुच्चई लड़वे ठाँढे़….. ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है बुंदेली गीत  “सच्चई-मुच्चई लड़वे ठाँढे़…..। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 16 – बुंदेली गीत – सच्चई-मुच्चई लड़वे ठाँढे़…..  ☆ 

सच्चई-मुच्चई लड़वे ठाँढे़,

जरा-जरा सी बातन में ।

धज्जी खें तो साँप बता रये,

जरा-जरा सी बातन में ।

 

जी खों देखो हाँक रहो है,

ज्ञान बघारें साँचन में ।

इनखों तो भूगोल रटो है,

झूठी-मूठी बातन में ।

सच्चई-मुच्चई लड़वे ठाँढे़,

जरा-जरा सी बातन में ।

 

धरम के पंडा सबई बने हैं,

मंदिर, मस्जिद, गिरजा में।

जी खों देखो राह बता रये,

छोटी-ओटी बातन में।

सच्चई-मुच्चई लड़वे ठाँढे़,

जरा-जरा सी बातन में ।

 

बऊ-दद्दा ने पढ़वे भेजो,

बडे़-बडे़ कॉलेजन में ।

बे तो ढपली ले कें गा रये,

उल्टी-टेढ़ी रागन में।

सच्चई-मुच्चई लड़वे ठाँढे़,

जरा-जरा सी बातन में ।

 

आजादी बे कैसी चाहत,

कौनऊँ उनसे पूछो भाई।

पढ़वो-लिखवो छोड़कें भैया ,

धूल झोंक रहे आँखन में।

सच्चई-मुच्चई लड़वे ठाँढे़,

जरा-जरा सी बातन में ।

 

पढ़वे खें कालेज मिलो है,

रहवे खों कोठा भी दे दये।

पढ़वे में मन लगत है नईयाँ,

जोड़-तोड़ की बातन में ।

सच्चई-मुच्चई लड़वे ठाँढे़,

जरा-जरा सी बातन में ।

 

नेता सबरे कहत फिरत हैं,

हम तो जनता के सेवक हैं।

जीत गए तो पाँच बरस तक,

घुमा देत हैं बातन में।

सच्चई-मुच्चई लड़वे ठाँढे़,

जरा-जरा सी बातन में ।

 

राजनीति में झूठ-मूठ की ,

खबर छपीं अखबारन में ।

नूरा-कुश्ती रोजइ हो रही,

गली-मुहल्लै आँगन में।

सच्चई-मुच्चई लड़वे ठाँढे़,

जरा-जरा सी बातन में ।

 

कोनउ नें कओ सुनरै भैया

तोरो कान है कऊआ ले गओ।

अपनों कान तो देखत नैयाँ,

दौर गये बस बातन में।

सच्चई-मुच्चई लड़वे ठाँढे़,

जरा-जरा सी बातन में ।

धज्जी खें तो साँप बता रये,

जरा-जरा सी बातन में ।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ अभिव्यक्ति # 26 ☆ लखनऊ से – मैं कमाल खान….! ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

14 जनवरी 2022 को एन डी टी वी के सुप्रसिद्ध एवं लोकप्रिय पत्रकार कमाल खान का दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। प्रस्तुत है श्रद्धांजलि स्वरुप यह कविता “लखनऊ से  – मैं कमाल खान….! ”।   

Tributes To Kamal Khan From Yogi Adityanath, Akhilesh Yadav Others

लखनऊ से – मैं कमाल खान….!

हर रोज़

गंगा-जमुनी तहजीब में भीगी

मिसरी-शहद में डूबी

मखमली आवाज लिए

एक कमाल का

ख़ूबसूरत सा हमउम्र शख्स 

मेरे टीवी के उस पार से आता था

और

बड़ी सादगी से

खबरों से रूबरू कर

अगले दिन के लिए कहीं खो जाता था।

 

पिछले कई बरसों से

चल रहा था ये सिलसिला

जो अचानक थम गया।  

कमाल के कमाल भाई!

आप क्या गए

जैसे सब कुछ जम गया।

 

अब बड़े इतमिनान से

आत्मविश्वास और साहस से

हमें कौन दिखाएगा ?

आइना,

संवेदनशील खबरें,

आज के संदर्भ में   

मर्यादा पुरुषोत्तम राम के

बदलते स्वरूप का कैलेंडर,

समाचारों के संदर्भ में

विभिन्न धर्मग्रंथों के संदर्भ,

और

तख़्त-नशीं को दिलाएगा याद कि –

तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्त-नशीं था 
उस को भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यक़ीं था *

 

एक शून्य बन गया है

अब उसे कौन भरेगा?

और 

अब हर रोज़ कौन कहेगा?  

लखनऊ से –

मैं कमाल खान….!  

  * शायर हबीब जालिब की पंक्तियाँ

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

14 जनवरी 2022

मो 9833727628

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – घनीभूत ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – घनीभूत ??

कंठ से फूटता नहीं शब्द

अवाक हो जाता है यकायक,

सोचता हूँ;

कितनी घनीभूत होती होगी

वाणी का अपहरण

करनेवाली पीड़ा,

जो हरे को कर देती है ठूँठ,

अच्छे बोलते-चलते को

कर देती है मूक !

©  संजय भारद्वाज

अपराह्न 1:51बजे, 11दिसम्बर 2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 140 ☆ कविता – सृजन की कोख ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक विचारणीय कविता  ‘सृजन की कोख’ । इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 140 ☆

? कविता – सृजन की कोख ?

वाह, काश, उफ, ओह

वे शब्द हैं

जो

अपने आकार से

ज्यादा, बहुत ज्यादा कह डालते हैं !

 

हूक, आह, पीड़ा, टीस

वे भाव हैं

जो

अपने आकार से

ज्यादा, बहुत ज्यादा समेटे हुये हैं दर्द !

 

मैं तो यही चाहूँगा कि

काश! किसी

को

भी, कभी टीस न हो

सर्वत्र सदा सुख ही सुख हो !

 

शायद, ऐसा होने नहीं देगा

नियंता पर

क्योंकि

विरह का अहसास

चुभन, कसक, टीस !

कोख है सृजन की.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 11 (31-35)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #11 (31-35) ॥ ☆

यज्ञ समापन कर व मुनि कर अवभृथ स्नान।            

प्रणत भाइयों को किया आशिष-स्पर्श प्रदान।।31।।

 

धनुष यज्ञ का जनक के आमंत्रण स्वीकार।

कर गये मुनिवर संग ले दोनों राजकुमार।।32।।

 

आगे चलते राह में तरुतल किया निवास ।

जंहा अहिल्या थी शिला, गौतम आश्रम पास।।33 ।।

 

वह पति शापित शिला हुई फिर से नारी रूप ।

रामचंद्र की चरण – रज की पा कृपा अनूप ।।34 ।।

 

रामलखन सह आये मुनि को मिथिलाधिप जान ।

अर्थ काम संग धर्मवत पूजा कर सम्मान।।35 ।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 73 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 73 –  दोहे ✍

नीर नयन का छलकता, छूमंतर  विश्वास ।

सोच रहा हूं हाथ में, पारस मणि हो काश!।।

 

दर्द दबा था हृदय में, मिली नयन की राह ।

आँसू मेरी आंख के, बनते गए गवाह ।।

 

आँसू  रहते आंख में, मिले मान-सम्मान ।

वरना होगी हैसियत, ढहता हुआ मकान ।।

 

मिले सुदामा कृष्ण से, हुआ खूब सत्कार ।

जल से पग धोए नहीं, धोये  आँसू  धार ।।

 

शरसैया पर भीष्म थे, ध्यान मग्न तल्लीन।

रोए थे इतना अधिक, आँसू  हुए विलीन ।।

 

आँसू  पुल मानिंद है, जोड़ सकें संबंध ।

अंतर्गत संभावना, जैसे सुमन सुगंध।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 73 – उसका अंतर्कथ्य रहा है…  ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “उसका अंतर्कथ्य रहा है… ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 73 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || उसका अंतर्कथ्य रहा है… || ☆

बेटी के बारे में घर में

चिंतन यही बचा ।

यह समाज से लड़ने वाली

पुण्य श्लोक ऋचा ।।

 

दोंनों हाथों से उलीचती

जो नित आशायें ।

हेम- गर्भ में जो सहेज

रखती है गरिमायें ।

 

वह तो मन्दाकिनी ,लक्ष्मी

है घर  गाँवों  की ।

पुरा-मोहल्ला कहता रहता

आँखें नचा-नचा ।।

 

उसका अंतर्कथ्य रहा है

अमृत में डूबा ।

उसका चाल-चलन है

सारे घर का मंसूबा ।

 

उसका यह व्यक्तित्व

कई प्रश्नों का उत्तर है ।

इसी हाट के दिन कहते थे

साहब  दीन चचा ।।

 

अब तो घर,बाजार,गिरस्ती

उसके हाथों में ।

उसे पता कब , कैसे चलना

है फुटपाथों में ।

 

संयम का त्योहार

आत्म-मंथन का सम्मोहन ।

खुद्दारी का महामन्त्र

उसको बस यही जँचा ।।

 

(“जहाँ दरक कर गिरा समय भी” से )

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

15-01-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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