हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 103 ☆ भावना के दोहे –  चाँदनी ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे –  चाँदनी। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 103 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे –  चाँदनी ☆

छिटक रही है चाँदनी,   हैं पूनम की रात।

यहाँ वहाँ कहती फिरे, अपने दिल की बात।।

 

सजन गए परदेश को, बीते बारह मास।

तुम बिन मन लगता नहीं, कब आओगे पास।।

 

शरद आगमन हो गया,  खिली चाँदनी रात।

ठंडक दस्तक दे रही,  चली गई बरसात।।

 

शरद पूर्णिमा आज है,  देती है सौगात।

कर लो प्रभु से वंदना,  कह लो अपनी बात।।

 

शीतल आँखों से बहा, है निर्झर सा नीर।

मेरे मन को हो रही, देखो कैसी पीर।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 92 ☆ लेना है तो देना सीखो  ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण कविता लेना है तो देना सीखो । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 92 ☆

☆ लेना है तो देना सीखो ☆

लेना है तो देना सीखो

साथ सत्य के रहना सीखो

लेना है तो देना सीखो

 

स्वार्थ भरा है रग रग में

खड़ी है लालसा पग पग में

त्याग कभी कुछ करना सीखो

लेना है तो देना सीखो

 

लोभ मोह ने आके घेरा

दिल में है बस तेरा मेरा

दान-धरम भी करना सीखो

लेना है तो देना सीखो

 

दिल में प्रेम बसेरा कर लो

तम को मार सबेरा कर लो

दुख औरों के हरना सीखो

लेना है तो देना सीखो

 

दीन-दुखी की सेवा करिये

मानवता ना कभी बिसरिये

दिल में धीरज धरना सीखो

लेना है तो देना सीखो

 

जीना है तो मरना सीखो

कदम कदम पर लड़ना सीखो

साथ सत्य के चलना सीखो

लेना है तो देना सीखो

 

दिल में गर “सतोष” रहेगा

सुख-शांति का कोष रहेगा

राह धर्म की चलना सीखो

लेना है तो देना सीखो

साथ सत्य के चलना सीखो

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 6 (6 -10)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #6 (6-10) ॥ ☆

सजे सॅवारे स्वरूप धारे उन आसनासीन अनेक नृप में

स्वतेज से अज हुये विभासित ज्यों पारिजात हो कल्प द्रुम में ॥ 6 ॥

 

नगर निराली जनों की आँखे सबों को तज आ टिकी थी अज पै

कि जैसे वन में कुसुम विटप तज घिरे हों भौंर प्रमत्त गज पै ॥ 7 ॥

 

तब चारणों द्वारा चंद्र रवि कुल के नृपवरों के विरद कहे पर

कपूर चंदन की गंध के साथ स्फुरित पताका के फिर चुके पर ॥ 8 ॥

 

शुभ मधु बजे मंगल शंख – भेरी के स्वर दिशाओं में गूँज छाये

पले मयूरों ने नाचने को जिन्हें कि सुनकर थे पर उठाये ॥ 9 ॥

 

कहार कंधों पै पालकी में सजी सुशोभित विराज कन्या

सहेलियों संग सभा में आई स्वपति चयन हेतु स्वरूप कन्या ॥ 10॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एलियन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – एलियन ?

मुखौटोंवाला झुंड,

निरंतर नोंचता रहा

मेरा चेहरा,

दूसरी-तीसरी-

चौथी परत के भ्रम में-

खींचता रहा माँस-

झिल्ली-दर-झिल्ली,

मैं तड़पता रहा,

चीखता रहा,

दर्द से बिलबिलाता रहा,

झुंड पर किसी तरह

कोई असर नहीं पड़ा,

एकाएक,

उसके चेहरे पर

भय नज़र आने लगा है,

समूह मुझसे

दूर जाने लगा है,

झुंड ने मुझे

घोषित कर दिया है एलियन,

समूह संभवत: परम्परा को

झुठला नहीं पाता,

उसकी मान्यता है-

मुखौटेविहीन चेहरा

धरती पर पाया नहीं जाता।

©  संजय भारद्वाज

(एलियन-दूसरे ग्रह का जीव)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 119 ☆ कविता – लोक साहित्य ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा रचित एक विचारणीय  कविता ‘लोक साहित्य । इस विचारणीय कविता के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 119 ☆

? कविता – लोक साहित्य ?

लोकसहित्य

किताबों में बंधे सफे नहीं

पीढ़ियों की

अनुभव जन्य विरासत है.

 

कपड़ों की क्रीज में फंसे

शिष्ट समाज के संभ्रांत सज्जनो

दे सकते  हो

गालियां तुम किसी को !

उस सहजता से

जिस आत्मीयता से

भरपेट भोजन करवाते हुये

गालियां दे लेती हैं

लोक जीवन में

मोहल्ले की महिलाएं भी

बारातियों को

 

तुम्हें लिपिबद्ध करना है ,

तो तुम लिखते रहो

शोध कर्ताओ

इन लयबद्ध

समवेत स्वरों को

ये अलिखित

लोक गीत

जीवन के,

कापीराइट से

मुक्त हैं

ये 

उन्मुक्त भाव हैं

अंतर्मन के

जो पीढ़ी दर पीढ़ी

परिष्कृत होते हैं

नयी इबारत में

समय और परिवेश 

को स्वयं में समेट कर

मुखरित होते हैं

समवेत स्वरों में

 

खान-पान, पहनावा-ओढ़ावा,

गीत, संगीत

कला-कौशल, भाषा

कुल देवी, देवता

सब अलग-अलग

घर घर, परिवार

कुटुंब में, गांव गांव में

 

यह विविधता ही

लोक संस्कृति है

कितना सुसम्पन्न

कितना सकारात्मक

है लोक का जन

वे दूकान बन्द नहीं करते

बढ़ाते  हैं हर रात

जहाँ घर से जाता व्यक्ति

कहता है आता हूं

 

प्रवृत्तियों का प्रतीक  है

एक एक मुहावरा

और कहावत

लोक साहित्य

अनुभूतिमयी

अभिव्यंजना है

सर्व साधारण की

जीवन शैली की ।

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 81 ☆ मैं हिंदी हूँ ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण कविता “मैं हिंदी हूँ

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 81 ☆

☆ मैं हिंदी हूँ ☆ 

मैं भारत की प्यारी हिंदी।

जन-जन की उजियारी हिंदी।।

 

मैं तुलसी की सृष्टि बनी।

मैं सूरदास की दृष्टि बनी।।

 

मैं हूँ मीरा की  पथगामी।

मैं हूँ कबीर की सतगामी।।

 

मैं रत्नाकर के छंद बनी।

मैं खुसरो की हूँ बन्द बनी।।

 

मैं घनानंद की प्रवाहिका।

मैं निराला की अनामिका।।

 

मैं बसंत का गीत बनी।

फिल्मों का संगीत बनी।।

 

मैं मोक्षदायिनी गंग बनी।

 मैं सप्तरंग का रंग बनी।।

 

मैं ही जीवन का सत्य अटल।

मैं ही भारत का भाग्य पटल।।

 

मैं हूँ तुलसी का रामचरित।

सुरसरिता-सी महिमामंडित।।

 

 मैं जयशंकर की कामायनी।

मैं शस्य धरा की प्राणदायिनी।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 6 (1 -5)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #6 (1-6) ॥ ☆

लखा वहाँ अज ने आसनों पर सजे विराजे नृपति वरों को

जो मंच शोभी स्वरूप गुण से लुभा रहे थे अमरगणों को ॥ 1 ॥

 

परन्तु उसको विलोक नृपगण निराश से हो उदास मन से

लगे समझने कि इंदु अज की है, प्रीति रति की यथ मदन से ॥ 2 ॥

 

विदर्भपति के दिखाये पथ से कुमार वह पहुँचा मंच पै जो

लगा कि ज्यो कोई सिंहशावक, शिलाओं से गिरिशिखर चढ़ा हो ॥ 3 ॥

 

रँगे गलीचे से अति सुसज्जित, जड़ाऊ आसन पै बैठ के वह

हुआ सुशोभित मयूर की पीठ पै जैसे बैठे हों कार्तिकेय ॥ 4 ॥

 

यथा सघन घन के मध्य दामिनि की कौंध होती है दीप्तिवाली

तथा थी अज की समृद्ध शोभा वहाँ दमकती हुई निराली ॥ 5 ॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #104 – सीधी बात न करता क्यों बे…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा रात  का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी  एक भावप्रवण गीतिका  “सीधी बात न करता क्यों बे….”। )

☆  तन्मय साहित्य  #104 ☆

☆ सीधी बात न करता क्यों बे….

(एक मित्र से चर्चा के दौरान उसके दिए शब्द “क्यों बे” शब्द पर लिखी एक गीतिका)

 

क्या लिखता रहता है क्यों बे

रातों में जगता है क्यों बे।

 

लच्छेदार शब्द शस्त्रों से

लोगों को तू ठगता क्यों बे।

 

सच जब तेरे सम्मुख आए

मूँह छिपाकर भगता क्यों बे।

 

बातें दर्शन और धर्म की

यूँ फोकट में बकता क्यों बे।

 

बिना पिये पटरी से उतरे

सीधी बात न करता क्यों बे।

 

नौटंकी अभिनय बाजों से

रिश्ता उनसे रखता क्यों बे।

 

लिखता है जैसा जो भी तू

वैसा ना तू दिखता क्यों बे।

 

बाहर बाहर मौज खोजता

भीतर में नहीं रहता क्यों बे।

 

मन की मदिरा बहुत नशीली

बाहर निकल, बहकता क्यों बे।

 

कहे मदारी, सुने जमूरा

हाँ में हाँ तू कहता क्यों बे।

 

ह्रस्व दीर्घ की पंचायत में

छंदों में नहीं रमता क्यों बे।

 

बीच बजार खड़ी है कविता

दाम सही ना मिलता क्यों बे।

 

मिल-जुल हँसी-खुशी से जी ले

अपनों से ही जलता क्यों बे।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ माँ ☆ डॉ निशा अग्रवाल

डॉ निशा अग्रवाल

☆  कविता – माँ ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆  

अगर शब्द दुनियां में “माँ ” का ना होता।

सफर जिंदगी का शुरू कैसे होता।।

एक  माँ ही तो है जिसमें, कायनात समायी है।

कोख से जिसकी शुरू होता जीवन,

होती उसी की गोद में अंतिम विदाई है।।

शुरू होती दुनियां माँ के ही दर्द से।

माँ ने ही हमारी हमसे पहचान कराई है।।

अंगुली पकड़कर सिखाया है चलना।

माँ की परछाई में दुनियां समायी है।।

ना भूख से कड़के माँ, ना प्यास से तरसे।

संतान के लिए ही वो हर पल तडफे।।

ममता के आंचल में दर्द भर लेती।

दुनियां से सामना करना सिखाई है।।

प्यार में सच्चाई की होती है मूरत।

दुनियां में माँ से बड़ी नही कोई मूरत।।

माँ की दुआओं का ही है असर हम पर।

 जो मुसीबतों को भी सह लेते हम हँस कर।

माँ की नज़र से ही दुनियां है देखी।

माँ की दुआओं ने दुनियां है बदली।।

लबों पै जिसके कभी बद्दुआ ना होती।

बस एक माँ है जो कभी खफ़ा ना होती।।

मां की गोदी में जन्नत हमारी।

सारे जहां में माँ लगती है प्यारी।।

ईश्वर से भी बड़ा दर्ज़ा होता है माँ का।

जिसने जगत में हमको पहचान दिलाई।।

हर रिश्ते में मिलावट देखी है हमने।

कच्चे रंगों की सजावट देखी है हमने।।

लेकिन माँ के चेहरे की थकावट ना देखी।

 ममता में उसकी कभी मिलावट ना देखी।।

कभी भूलकर ना ” माँ “का अपमान   करना।

हमेशा अपनी माँ का सम्मान ही करना।।

हो जाये अगर लाचार कभी अपनी माँ तो।

 कभी रूह से उसको जुदा तुम ना करना।।

एक माँ ही होती है,

जो बच्चे के गुनाहों को धो देती है।।

होती गर  गुस्से में माँ जब हमारी।

तो बस भावुकता से वो रो देती है।।

ऐ बन्दे दुआ मांग ले अपने रब से।

कि फिर से वही गोद मिल जाये।।

फिर से उसी माँ के कदमों में मुझको।

अपना सारा जहाँ मिल जाये।।

 

©  डॉ निशा अग्रवाल

जयपुर, राजस्थान

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 5 (71 – 76)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #5 (71-76) ॥ ☆

 

प्रतापी रवि के ज्यों उदय के पहले ही, अरूण प्रकट हो सब अॅधेरा मिटाता है

वैसे ही तब समान वीर के होते हुये पिता रघु लड़ें युद्ध, शोभा नहिं पाता है । 71

 

बदल करवटें झनझना श्रृंखलायें शयन त्याग जो हाथी तुम्हारे

लिये बाल रवि की किरण दंत शेरक पै, लगते है गैरिक-शिखर हैं उखाड़े। 72 ।

 

बँधे शामियानों में घोड़े वनायुज कमल नयन जग लेह्य सेंधव शिला के

जो सम्मुख हैं उनके,मलिन कर रहें है स्व निश्वास की वाष्प से सिरहिला वो। 73।

 

मुरझा चले पुष्प के हार कोमल औं फीकी हुई दीप की दीप्ति आभा

पिंजरे में बैठा हुआ छीर भी यह जगाता तुम्हें कह हमारी ही भाषा ॥ 74॥

 

ज्यों गंगा – तट राजहंसो का कृजन जमाता है सुप्रतीक ईशान गज को

वैसे ही वैतालिकों ने मधुर गीत गाके जगाया तो सुकुमार अज को ॥ 75॥

 

कमल नेत्र अज ने तो तब त्याग शैय्या, निपट प्रात विधियों से पूजन भजनकर

निपुण सेवकों से करा वेश सज्जा, गये नृपों सम जहाँ होना स्वयंवर ॥ 76॥

 

पंचम सर्ग समाप्त

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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