हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 88 ☆ संतोष के दोहे- प्रथम पूज्य गणराज ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं विशेष भावप्रवण कविता  “संतोष के दोहे – प्रथम पूज्य गणराज। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 88 ☆

☆ संतोष के दोहे – प्रथम पूज्य गणराज प्रभु ☆

 

विघ्न विनाशक गजवदन, एकदन्त भगवान

प्रथम पूज्य गणराज प्रभु, शिव प्रिय कृपा निधान।।1

 

पीताम्बर धारण किए, शुभगुणकानन रूप।

शरण पड़े हम आपकी, हे देवेश्वर भूप।।2

 

विद्यावारिधि विघ्नहर, वरद विनायक धाम

 विश्वराज सुरपूज्य प्रभु, हे हेरंब प्रणाम।।3

 

धूम्रकेतु सर्वात्मनम्, शशिवरणं ओंकार।

सुमुख स्वरूपी देववर, करते हम जयकार।।4

 

मृत्युंजय मूढाकरम, दायक मुक्ति  गणेश

मंगल कारक मोरया, मेटो कष्ट कलेश।।5

 

गजकर्णा, गौरीसुवन, गणाध्यक्ष गजनान।

हे गणपति, गणवक्त्र प्रभु, मंगल मूर्ति महान।।6

 

अखुरथ, अमित, अलंपता, हे अनन्त, अवनीश।

अखिलेश्वर, क्षेमंकरम, अघ्नाशना हरीश।।7

 

देवेन्द्राशिक, देवव्रत, देवादेव प्रणाम।

दूर्जा द्वेमातुर प्रभो, करें सफल मम काम।।8

 

हे हेरम्बा हारिणे, श्री हृदयाय प्रणाम।

हे हरिद्र, हरि ईश प्रभु, तुम ही सुख के धाम।।9

 

विघ्नराज, विघ्नेश्वरा, विश्वमुखम गणराज।

विकट, विरूपाक्षाय प्रभु, करें सफल सब काज।।10

 

विघ्न हरण, मंगल करण, गण नायक गुण गान।

शोक विघ्नहर, यशस्कर, हे प्रभु कृपा निधान।।11

 

हे लम्बोदर, गजवदन, रखो भक्त की लाज।

शुक्लाम्बरम, चतुर्भुजी, हम हर्षित हैं आज।।12

 

चरण वंदना आपकी, कर पूजन प्रथमेश।

रिद्धि-सिद्धि दातार हे, गौरी पुत्र गणेश।।13

 

संयुत श्रद्धा-भाव शुचि, पूजें गौरी लाल।

नित नव मंगल हो सदा, कटें कष्ट- जंजाल।।14

 

चरण-शरण ‘संतोष’तव, बुद्धिहीन,धनहीन।

कृपा दृष्टि प्रभु कीजिये, मुझे समझ कर दीन।।15

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 3 (66-70)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #3 (66-70) ॥ ☆

 

अब यज्ञशाला में मेरे पिताजी शिवरूप से हैं, सुने दत तब से

कि वरदान दे सुफल उनको किया आपने जो वहाँ प्रतीक्षा रत है कब से ॥ 66॥

 

सुन रघु की अभिलाषा -कहकर ‘‘तथा हो” मातलि से बोले कि रथ को बढ़ाओ-

औं रघु भी घोड़ा न पा किन्तु वर पा कहा खुद से-‘‘अब यज्ञ मंडप को जाओ। 67

 

रघु आगमन पूर्व सुन वृत सारा, देवेन्द्र के दूत से महीपति ने

रघु नन्दिनी वरद बेटे को छाती से चिपका किया खुश, सुखी भूपति ने ॥ 68॥

 

इस विधि से सौवें यजन का सुफल पा, राजा ने सोपान सुख के बनाये

जनप्रिय दिलीप चक्रवर्ती ने मानो कि देवेन्द्र से स्वर्ग -सुख – लाभ पाये ॥ 69॥

 

फिर साधना युक्त जीवन बिताने को जात योवन ले मुदित साथ पली

दिया छत्र – चामर युवा पुत्र रघु को, निभाते हुये रीति इश्वाकु कल की ॥ 70॥

 

तृतीय सर्ग समाप्त

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – हिंदी माह विशेष – भाषा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – राजभाषा मास विशेष – भाषा ?

 

नवजात का रुदन

जगत की पहली भाषा,

अबोध की खिलखिलाहट

जगत का पहला महाकाव्य,

शिशु का अंगुली पकड़ना

जगत का पहला अनहद नाद,

संतान का माँ को पुकारना

जगत का पहला मधुर निनाद,

प्रसूत होती स्त्री केवल

एक शिशु को नहीं जनती,

अभिव्यक्ति की संभावनाओं के

महाकोश को जन्म देती है,

संभवतः यही कारण है,

भाषा स्त्रीलिंग होती है!

अपनी भाषा में अभिव्यक्त होना अपने अस्तित्व को चैतन्य रखना है।

©  संजय भारद्वाज

(रात्रि 3:14 बजे, 13.9.19)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 114 ☆ संतुलन ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता  संतुलन। इस विचारणीय विमर्श के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 114 ☆

? कविता – संतुलन ?

 

संतुलन ही तो है

जीवन

समय के पहिये पर

भागम भाग के कांटे

जरा चूक हुई

और गिरे

 

पार करना है

अकेले

जन्म और जीवन की पूर्णता

के बीच बंधी रस्सी

अपने कौशल से

 

जो इस सफर को

मुस्कुरा कर

बुद्धिमत्ता से पूरा कर लेते हैं

उनके लिए

तालियां बजाती है दुनिया

उनकी मिसाल दी जाती है

और

जो बीच सफर में

लुढ़क जाते हैं

असफल

वे भुला दिए जाते हैं जल्दी ही ।

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ हिंदी माह विशेष – हिंदी के मुक्तक ☆ प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

☆ हिंदी माह विशेष – हिंदी के मुक्तक ☆ प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे ☆

(1)

हिंदी नित आगे बढ़े, यही आज अरमान।

हिंदी का उत्थान हो, यही फले वरदान।

हिंदी की महिमा अतुल, जाने सारा विश्व,

हिंदी का गुणगान हो, हिंदी का यशगान।।

(2)

हिंदी का अभिषेक हो, जो देती उजियार।

हिंदी का विस्तार हो, जो हरती अँधियार।

हिंदी तो सम्पन्न है, मंगल का है भाव,

हिंदी को पूजे सदा, अब सारा संसार।।

(3)

हिंदी तो शुभ नेग, हिंदी तीरथधाम।

फलदायी हिंदी सदा, लिए विविध आयाम।

हिंदी तो अनुराग है, हिंदी है संकल्प,

हिंदी को मानें सभी, यूँ ही सुबहोशाम।।

(4)

हिंदी में तो शान है, हिंदी में है आन।

हिंदी में क्षमता भरी, हिंदी में है मान।

हिंदी की फैले चमक, यही आज हो ताव,

हिंदी पाकर उच्चता, लाए नवल विहान।।

(5)

हिंदी में है नम्रता, किंचित नहीं अभाव।

नवल ताज़गी संग ले, बढ़ता सतत प्रभाव।

दूजी भाषा है नहीं, हिंदी तो अनमोल,

कितना नेहिल है ‘शरद’, इसका मधुर स्वभाव।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे 

शासकीय जेएमसी महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661
(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 76 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – पञ्चदशोऽध्यायः अध्याय ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है पञ्चदशोऽध्यायः अध्याय

पुस्तक इस फ्लिपकार्ट लिंक पर उपलब्ध है =>> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 76 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – पञ्चदशोऽध्यायः अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा श्रीकृष्ण कृपा से दोहों में किया गया है। पुस्तक भी प्रकाशित हो गई है। आज आप पढ़िए पन्द्रहवां अध्याय। आनन्द उठाइए। ??

– डॉ राकेश चक्र 

पुरुषोत्तम योग

श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को पुरुषोत्तम योग के बारे में ज्ञान दिया।

 

श्रीभगवान ने कहा-

 

है शाश्वत अश्वत्थ तरु, जड़ें दिखें नभ ओर।

शाखाएँ नीचें दिखें, पतवन करें विभोर।। 1

जो जाने इस वृक्ष को, समझे वेद-पुराण।

जग चौबीसी तत्व में,बँटा हुआ प्रिय जान।। 1

 

शाखाएँ चहुँओर  हैं, प्रकृति गुणों से पोष।

विषय टहनियाँ इन्द्रियाँ,जड़ें सकर्मी कोष।। 2

 

आदि, अंत आधार को, नहीं जानते लोग।

वैसे ही अश्वत्थ है, वेद सिखाए योग।। 3

 

मूल दृढ़ी इस वृक्ष की, काटे शस्त्र विरक्ति।

जाए ईश्वर शरण में,पाकर मेरी भक्ति।। 4

 

मोह, प्रतिष्ठा मान से, जो है मानव मुक्त।।

हानि-लाभ में सम रहे, ईश भजन से युक्त।। 5

 

परमधाम मम श्रेष्ठ है, स्वयं प्रकाशित होय।

भक्ति पंथ जिसको मिला,जनम-मरण कब होय।। 6

 

मेरे शाश्वत अंश हैं, सकल जगत के जीव।

मन-इन्द्रिय से लड़ रहे, माया यही अतीव।। 7

 

जो देहात्मन बुद्धि को, ले जाता सँग जीव।

जैसे वायु सुगंध की, उड़ती चले अतीव।। 8

 

आत्म-चेतना विमल है, करलें प्रभु का ध्यान।

जो जैसी करनी करें, भोगें जन्म जहान।। 9

 

ज्ञानचक्षु सब देखते, मन ज्ञानी की बात।

अज्ञानी माया ग्रसित, भाग रहा दिन-रात।। 10

 

भक्ति अटल हो ह्रदय से, हो आत्म में लीन।

ज्ञान चक्षु सब देखते, तन हो स्वच्छ नवीन।। 11

 

सूर्य-तेज सब हर रहा, सकल जगत अँधियार।

मैं ही सृष्टा सभी का, शशि-पावक सब सार।। 12

 

मेरे सारे लोक हैं, देता सबको शक्ति।

शशि बनकर मैं रस भरूँ, फूल-फलों अनुरक्ति।। 13

 

पाचन-पावक जीव में, भरूँ प्राण में श्वास।

अन्न पचाता मैं स्वयं, छोड़ रहा प्रश्वास।। 14

चार प्रकारी अन्न है, कहें एक को पेय।

एक दबाते दाँत से, जो चाटें अवलेह्य।। 14

एक चोष्य है चूसते, मुख में लेकर स्वाद।

वैश्वानर मैं अग्नि हूँ, सबका मैं हूँ आदि।। 14

 

सब जीवों के ह्रदय में, देता स्मृति- ज्ञान।

विस्मृति भी देते हमीं, हम ही वेद महान।।15

 

दो प्रकार के जीव

दो प्रकार के जीव हैं,अच्युत-च्युत हैं नाम।

क्षर कहते हैं च्युत को, ये है जगत सकाम।। 16

क्षर अध्यात्मी जगत में, अक्षर ये हो जाय।

जनम-मरण से छूटता, सुख अमृत ही पाय।। 16

 

क्षर-अक्षर से है अलग, ईश्वर कृपानिधान।

तीन लोक में वास कर, पालक परम् महान।। 17

 

क्षर-अक्षर के हूँ परे, मैं हूँ सबसे श्रेष्ठ।

वेद कहें परमा पुरुष, तीन लोक कुलश्रेष्ठ।। 18

 

जो जन संशय त्यागकर, करते मुझसे प्रीत।

करता हूँ कल्याण मैं, चलें भक्ति की रीत।। 19

 

गुप्त अंश यह वेद का, अर्जुन था ये सार।

जो जानें इस ज्ञान को, होयँ जगत से पार।। 20

 

इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” पुरुषोत्तम योग ” पन्द्रहवां अध्याय समाप्त।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 3 (61-65)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #3 (61-65) ॥ ☆

 

आघात उसका विकट झेल छाती पै रघु गिरे नीचे औं आँसू भी सबके

पर झट व्यथा भूल, ले धनुष, लडने लगे सुनके जयकार फिर सँभल तनके। 61।

 

वज्राहत रघु के पराक्रम औं साहस से होके प्रभावित लगे इंद्र हँसने

सच है सदा सद्गुणों में ही होती है ताकत सदा सभी को वश में करने ॥ 62॥

 

कहा इंद्र ने इस बली वज्र से बस सहा पर्वतों के सिवा सिर्फ तुमने

मै हूँ तुम से खुश रघु अब इस अश्व को छोड़ वरदेने का सोचा है हमने ॥ 63॥

 

तब स्वर्ण रंजित चले बाण कतिपय से भासित सी दिखती थी जिसकी ऊँगलियाँ

उस रघु को बाणों को रख बात करते खिली पुष्प सी इंद्र के मन की कलियाँ। 64।

 

यदि अश्व यह आप देते नहीं है, तो यह दें – ‘‘ पिता यज्ञ का पुण्य पायें

इस सौवें अश्वमेघ के पूर्ण फल से पिता जी मेरे लाभ पूरा उठायें ॥ 65॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #99 – जब से मेडल गले में पहनाया… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा रात  का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण कविता  “जब से मेडल गले में पहनाया…” । )

☆  तन्मय साहित्य  # 99 ☆

☆ जब से मेडल गले में पहनाया… ☆

वो बात साफ साफ कहता है   

जैसे नदिया का नीर बहता है।

 

अड़चनें राह में आये जितनी

मुस्कुराते हुए वो सहता है।

 

अपने दुख दर्द यूँ सहजता से

हर किसी से नहीं वो कहता है।

 

हर समय सोच के समन्दर में

डूबकर खुद में मगन रहता है।

 

बसन्त में बसन्त सा रहता

पतझड़ों में भी सदा महका है।

 

इतनी गहराईयों में रहकर भी

पारदर्शी सहज सतह सा है।

 

शीत से काँपती हवाओं में

जेठ सा रैन-दिवस दहता है।

 

जब से मैडल गले में पहनाया

उसी पल से वो शख्स बहका है।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 50 ☆ लड़खड़ाते कदम ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

(श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे।आज प्रस्तुत है इस कड़ी  की अंतिम भावप्रवण कविता ‘लड़खड़ाते कदम। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 50 ☆

☆ लड़खड़ाते कदम

 

थम भी जाते कदम,

अगर कोई मुझे पुकार लेता,

रुक भी जाते बढ़ते कदम,

अगर कोई आकर हाथ थाम लेता ||

 

बढ़ते गए कदम धीरे-धीरे,

सोचा कोई तो मुझे थाम लेगा,

डगमगा रहे थे कदम,

सोचा अब कोई तो आवाज देगा ||

 

गिर पड़ा लड़खड़ाते कदम से,

लगा उठा लेगा कोई मुझे आकर,

किसी ने पलट कर भी ना देखा,

खून से लथपथ कदम मजबूर हो खुद खड़े हो गए ||

 

लड़खड़ाते कदम चलने को मजबूर थे,

ना किसी ने रोका ना किसी ने आंसू बहाये,

ड़गमगाते कदमों को खुद रोकना चाहा,

कदम रुकने के बजाय मजबूर होकर आगे बढ़ते गए || 

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 3 (56-60)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #3 (51-55) ॥ ☆

 

औं दूसरे से सुरेन्द्र – रथ – ध्वजा को जो थी वज्रचिन्हित को भी काट डाला

तब देवलक्ष्मी के काटे गये केश सा कुपित इंद्र खुद को लड़ने सम्हाला ॥ 56॥

 

दोनों ही अपनी विजय कामना से लगे करने संग्राम भारी भयावह

इंद्र और रघु के उड़नशील सर्पो से बाणों से भयभीत साथी थे रहरह ॥ 57॥

 

अपनी सुयोजित संबल बाण वर्षा से भी इन्द्र रघु को न कर पाये फीका

जैसे स्वतः से ही अद्भुत विद्युत को बादल कभी भी न कर पाते फीका ॥ 58॥

 

तब रघु ने अपने एक अर्द्धचन्द्र श्शर से, देवेन्द्र के धनु की काटी प्रत्यंचा

जो कपिल चंदन लगे हाथ से मथे जाते उदधि की सी करता गरजना ॥ 59॥

 

हो इंद्र क्रोधित अलग फेंक धनु को उठा वज्र पर्वत के पर जिसने छांटे –

बिखरती रही थी प्रभा जिससे भारी बड़े वेग से चलाया रघु के आगे ॥ 60॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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