हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (36-40)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (36-40) ॥ ☆

 

जो सामने देखते दारू तरू ही वह पुत्रवत पालित श्शम्भु द्वारा

जिसे सुलभ वृद्धि हित स्कन्दंजननी अंचल कलश से सतत नेहधारा ॥36॥

 

कभी किसी वन्य राज ने खुजाते, उखाड़ी थी छाल इसकी रगड़ से

तो पार्वती मातु ने बात समझी कि स्कन्द ने छाल छीली बिगड़ के ॥37॥

 

मैं तभी से इसे प्रभु श्शम्भु आदेश पा हूॅ निरत वन्य राज सें बचाने

इस सिंह के रूप में इस गुफा में निकट आये सारे पशु – प्राणी खाने ॥38॥

 

तो मुझ बुमुक्षित के हेतु आई ज्यों राहुहित चन्द्रमा की सुधा सी

यथाकाल प्रेषित यहाँ ईश द्वारा, यह धेनु पर्याप्त होगी क्षुधा की ॥39॥

 

तब त्याग लज्जा स्वगृंह लौट जाओ, बहुत है दिखाई गुरूभक्ति तुमने

यदि शस्त्र से भी न हो रक्ष्य रक्षा, तो है शस्त्रधर का न कुछ दोष इसमें ॥40॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 73 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – द्वादश अध्याय ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है  द्वादश अध्याय

पुस्तक इस फ्लिपकार्ट लिंक पर उपलब्ध है =>> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 73 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – द्वादश अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा श्रीकृष्ण कृपा से दोहों में किया गया है। पुस्तक भी प्रकाशित हो गई है। आज आप पढ़िए बारहवें अध्याय का सार। आनन्द उठाइए।

 – डॉ राकेश चक्र 

बारहवाँ अध्याय – भक्तियोग

अर्जुन ने श्रीकृष्ण भगवान से भक्तियोग के बारे में जिज्ञासा प्रकट की——–

 

अर्जुन पूछे कृष्ण से, पूजा क्या है श्रेष्ठ।

निराकार- साकार में, कौन भक्ति है ज्येष्ठ।। 1

 

श्रीभगवान ने अर्जुन को भक्तियोग के बारे में विस्तार से समझाया——-

 

परमसिद्ध हैं वे मनुज, पूजें मम साकार।

श्रद्धा से एकाग्र चित, यही मुझे स्वीकार।। 2

 

वश में इन्द्रिय जो करें, भक्ति हो एकनिष्ठ।

निराकार अर्चन करें, वे भी भक्त विशिष्ट।। 3

 

अमित परे अनुभूति के, जो अपरिवर्तनीय।

कर्मयोग कर, हित करें, भक्ति वही महनीय।। 4

 

निराकार परब्रह्म की, भक्ति कठिन है काम।

दुष्कर कष्टों से भरी, नहीं शीघ्र परिणाम।। 5

 

कर्म सभी अर्पित करें,अडिग, अविचलित भाव।

मेरी पूजा जो करें, नहीं डूबती नाव।। 6

 

 मुझमें चित्त लगायं जो, करें निरन्तर ध्यान।

भव सागर से छूटते, हो जाता कल्यान।। 7

 

चित्त लगा स्थिर करो, भजो मुझे अविराम

विमल बुद्धि अर्पित करो, बन जाते सब काम।। 8

 

अविचल चित्त- स्वभाव से, नहीं होय यदि ध्यान।

भक्तियोग अवलंब से, करो स्वयं कल्यान।। 9

 

विधि-विधान से भक्ति का, यदि न कर सको योग।

कर्मयोग कल्यान का,सर्वोत्तम उद्योग।। 10

 

नहीं कर सको कर्म यदि, करो सुफल का त्याग।

रहकर आत्मानंद में, करो समर्पित राग।। 11

 

यदि यह भी नहिं कर सको, कर अनुशीलन ज्ञान।

श्रेष्ठ ध्यान है ज्ञान से, करो तात अनुपान।। 12

 

कर्मफलों का त्याग ही, सदा ध्यान से श्रेष्ठ।

ऐसे त्यागी मनुज ही, बन जाते नरश्रेष्ठ।। 12

 

द्वेष-ईर्ष्या से रहित, हैं जीवों के मित्र।

अहंकार विरहित हृदय, वे ही सदय पवित्र।। 13

 

सुख-दुख में समभाव रख,हों सहिष्णु संतुष्ट।

आत्म-संयमी भक्ति से, जीवन बनता पुष्ट।। 14

 

दूजों को ना कष्ट दे, कभी न धीरज छोड़।

सुख-दुख में समभाव रख,मुझसे नाता जोड़।। 15

 

शुद्ध, दक्ष, चिंता रहित, सब कष्टों से दूर।

नहीं फलों की चाह है, मुझको प्रिय भरपूर। 16

 

समता हर्ष-विषाद में,है जिनकी पहचान।

ना पछताएं स्वयं से, करें न इच्छा मान। 17

 

नित्य शुभाशुभ कर्म में, करे वस्तु का त्याग।

मुझको सज्जन प्रिय वही, रखे न मन में राग।। 17

 

शत्रु-मित्र सबके लिए, जो हैं सदय समान।

सुख-दुख में भी सम रहें, वे प्रियवर मम प्रान। 18

 

यश-अपयश में सम रहें, सहें मान-अपमान।

सदा मौन, संतुष्ट जो, भक्त मोहिं प्रिय जान।। 19

 

भक्ति निष्ठ पूजे मुझे, श्रद्धा से जो व्यक्ति।

वही भक्त हैं प्रिय मुझे , मिले सिद्धि बल शक्ति।। 20

 

इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” भक्तियोग ” बारहवाँ अध्याय समाप्त।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #96 – अब हृदय के बोल गुम…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा रात  का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण कविता  “अब हृदय के बोल गुम….” । )

☆  तन्मय साहित्य  # 96 ☆

 ☆ अब हृदय के बोल गुम…. ☆

देह अपनी और मन है

अब अकेले ही मगन है।

 

और कब तक दलदलों में

यूँ उलझते ही रहेंगे

जान कर अनजान बन

गुणगान मुँह-देखे सहेंगे,

औपचारिक वंदनो में

झूठ के कितने जतन है……।

 

अछूता कोई नहीं

शामिल सभी इस सिंधु में

लगाते गोते रहे

बिन अंक के इस बिंदु में,

खुली आँखों से निहारे

वायवीय कल्पित सपन है…..।

 

कल्पनाओं का

न, कोई ओर कोई छोर है

जिंदगी उलझी हुई

बारीक सी इक डोर है,

द्वंद्व अंतर्जाल के

चहुँ ओर विस्तारित सघन है……।

 

अब कहाँ माधुर्य-मिश्री

घोलते से शब्द हैं

देख क्रिड़ायें मनुज की

गगन भी स्तब्ध है,

अब ह्रदय के बोल गुम

मस्तिष्क से निकले वचन है

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 47 ☆ दुनिया के दस्तूर  ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

(श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता ‘दुनिया के दस्तूर । ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 47 ☆

☆ दुनिया के दस्तूर 

 

दुनिया के दस्तूर भी अजीब हैं,

जिनके लिए लड़ता रहा ताउम्र, मुझे देखते ही नजर फेर लेते हैं ||

 

अब तो मुस्कराने पर भी घबराने लगा हूँ,

मेरी मुस्कराहट को लोग अब नजरअंदाज कर देते हैं ||

 

अब कुछ भी बोलने से घबराता हूँ,

मैं सच बोलता हूँ तो लोग मुझे ही झूठा कहने लगते हैं ||

 

अब जब मैं चुप रहता हूँ ,

तो मेरे चुप रहने को लोग बुझदिली कहते हैं ||

 

मैं अब हंसने से भी घबराता हूँ,

मेरे हंसी को लोग बनावटी हंसी कहने लगते हैं ||

 

अपना दुख साँझा करने से भी ड़रता हूँ,

लोग मेरे दुखों का मजाक उड़ा दिल दुखाने लगते हैं ||

 

अब तो ख़ुशी जाहिर करने से भी घबराता हूँ,

ड़रता हूँ लोग मेरी खुशियों का भी मजाक उड़ाने लगेंगे ||

 

देखना एक दिन यूँ ही चला जाऊंगा,

लोग मेरे जाने को भी मजाक समझ मेरी हंसी उड़ाने लगेंगे ||

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (26-30)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (26-30) ॥ ☆

 

तब दूसरे दिन मुनि धेनु ने आत्म अनुचार नृपति का हृदय ज्ञात करने

गंगा पुलिन पै घनी घास से युक्त हितगिरि गुफा में घुसी घास चरने ॥26॥

 

निश्चिंत वन हिंस पशु आक्रमण से जब अद्रिशोभा निरखने लगे नृप

सहसा कोई सिंह बिलकुल अलक्षिंत आ घेर बैठा उस धेनु को तब ॥27॥

 

सुन अतिक्रन्दन उसका गुफा सें हो प्रतिध्वनि तब पड़ा जो सुनाई

पर्वत शिखर पर पड़ी दृष्टि नृप की सरल रश्मि सी तब तुरंत लौटआई ॥28॥

 

उस पाटला धेनु पर नख गड़ाये, देखा नृपति ने खड़े केसरी को

जैसे कि गैरिक वरन आद्रतट पर प्रफुल्लित खड़ा सा कोई लोध्र दु्रम हो ॥29॥

 

तब वध्य उस सिंह को मारने हेतु रक्षक नृपति, शत्रु जिसने उजाड़े

लखकर पराभूत सहस्त स्वतः को तूणीर से बाण चाहा निकाले ॥30॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 85 ☆ ऐ ज़िन्दगी ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता ऐ जिंदगी। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 84 ☆

☆ ऐ जिंदगी

ना कोई ख्वाहिश

ना कोई शिकवा ना गिला है

ऐ जिंदगी

मुझे तुझसे बहुत कुछ मिला है

 

ना कोई तमन्ना

ना कोई अभियोग, ना फ़रियाद

ऐ जिंदगी

तूने तो दिया है मेरा हर पल साथ

 

जो हुआ अच्छा हुआ

खुश हूँ इस ख्याल में

ऐसा होता तो वैसा होता तो

फंसती नहीं मैं इस जाल में

 

आयेगी जब शाम

और बुझ जायेगी ये शमां

खुशी खुशी मैं

दूसरी दुनिया में हो जाऊँगी रवां

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे – 4 – इंसानियत की विरासत ☆ श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे – 4 ☆ हेमन्त बावनकर

☆ इंसानियत की विरासत ☆

कई किस्से-कहानियाँ

सुने और देखे।

साँसों के लिए लड़ते

मौत के बढ़ते आंकड़े देखे।

दिलों को तोड़ने वालों को

दिल जोड़ते देखे।  

दिलों में जहर-नफरत भरने वालों के 

असली चेहरे देखे।  

भीड़ की सियासत और

खामोश सियसतदान देखे।  

 

विरासत में बहुत कुछ दिया

इंसानियत ने

ऐ दोस्त!

अब जिसे जो भी देखना है

बस वह वही देखे।

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ राम पूछते हैं ☆ सुश्री अनीता श्रीवास्तव

सुश्री अनीता श्रीवास्तव

☆ कविता ☆ राम पूछते हैं ☆ सुश्री अनीता श्रीवास्तव ☆

कर सकोगे

मन की अयोध्या तैयार!

राम पूछते हैं।

 

तह से कुरेदना होंगीं

रोम-रोम में घर कर चुकी बेईमानियां

जड़ से उखाड़ना होगा

पुष्ट हुआ दम्भ का वट – वृक्ष

खुरचना होंगी 

लोभ की महीन एक पर एक परतें

मौलिकता को प्रकट करना होगा

वनवासियों की धूसरता की तरह

क्या तैयार हो?

राम पूछते हैं।

 

क्या उगा सकोगे

सहृदयता की कोमल दूब

फिर चाहे कपटी स्वर्णमृग ही चरे

दे सकोगे अपनी महत्वाकांक्षाओं को वनवास

गले लगा सकोगे ढुलाई देने के बाद कुली को

मान दे सकोगे सिंहासन से परे

 भेजेने वाली कैकेयी को?

राम पूछते हैं!

 

हे देवी!

अग्निपरीक्षा पर प्रश्न शेष है

या श्रद्धा हो गई छाया प्रसंग पर

वैभव की बनावटी परतें धो सकोगी

सादगी और सौम्यता पिछड़ापन तो नहीं लगेंगे

त्याग के निमित्त राजी कर सकोगी अपने राम को?

राम पूछते हैं!

 

पुनश्चः

वचन निभाने में निर्मम हो सकोगे?

दशरथ की भांति

कर सकोगे कल्याण के निमित्त अपनी संतानें

राजसुख से दूर !

करो भूमि पूजन

बनाओ मंदिर

बना सकोगे?

राम पूछते हैं।

 

© सुश्री अनीता श्रीवास्तव

मऊचुंगी टीकमगढ़ म प्र

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (21-25)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (21-25) ॥ ☆

 

प्रदक्षिणा कर पदस्विनी की सुदक्षिणा पूजन थाल धारे

लगा सुस्हंगो के बीच टीका, प्रणाम करती ज्यों सिद्धि द्वारे ॥21॥

 

वम्सोत्कंठित भी धेनु निश्चल स्वीकारती श्शांत समस्त पूजा

प्रसव दम्पति थे, सिद्धि संभाव्य का और वन्या होगा चिन्ह दूजा ॥22॥

 

सदार गुरू को प्रणाम करके दिलीप ने की सप्रेम संध्या

फिर दुग्धदोहन के बाद विश्रांतिरत नन्दिनी की सेवा सुश्रूषा ॥23॥

 

उसे पूजकर दीप रक्खे जहाँ थे, उसी के निकट बैठ के साथ रानी

शयन बाद सोये जगे प्रात पहले यही थी नृपति की निरन्तर कहानी ॥24॥

 

यों व्रत धरे पुत्र हित ख्यात नृप के पत्नी सहित दिवस इक्कीस बीते

दोनोपकारी व सदकीर्ति वाले नृपति ने दिये त्याग सारे सुभीते ॥25॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की#52 – दोहे – ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #52 –  दोहे ✍

मौन नहीं मुखरित हुआ, किया शब्द संधान ।

तुमने तो केवल सुनी,  देहराग की  तान  ।।

 

आंखों में तस्वीर है  शब्दों में  तासीर ।

एकांगी हो पथ अगर, बढ़ जाती है पीर ।।

 

भिक्षुक से ज्यादा सदा, है दाता का मान ।

रखा कटोरा रिक्त तो यह भी है अहसान।।

 

मधुर मदिर मनभावनी, लजवंती अभिराम।

वय: संधि शीला सदृश्य, यह फागुनायी शाम।।

 

सौम्या, रम्याकामिनी, छवि सौंदर्य प्रबोध।

बसी रहो उर उर्वशी, एकमात्र अनुरोध ।

 

सम्मोहित ऐसा किया, लेता हिया हिलोर ।

कब संझवाती बीतती, कब होती है भोर।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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