हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मंथन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि –  लघुकथा – मंथन ☆

हलाहल निरखता हूँ

अचर हो जाता हूँ,

अमृत देखता हूँ

गोचर हो जाता हूँ,

जगत में विचरती देह

देह की असीम अभीप्सा,

जीवन-मरण, भय-मोह से

मुक्त जिज्ञासु अनिच्छा,

दृश्य और अदृश्य का

विपरीतगामी अंतर्प्रवाह हूँ,

स्थूल और सूक्ष्म के बीच

सोचता हूँ, मैं कहाँ हूँ..!

©  संजय भारद्वाज

3:33 रात्रि, 23.3.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 62 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – प्रथम अध्याय ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है प्रथम अध्याय।

फ्लिपकार्ट लिंक >> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 62 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – प्रथम अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो श्रीकृष्ण कृपा से सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा दोहों में किया गया है। आज आप पढ़िए प्रथम अध्याय का सार। आनन्द उठाइए।

डॉ राकेश चक्र

ईश्वर प्रार्थना

ॐ श्रीपरमात्मने नमः

अथ श्रीमद्भगवतगीता

अथ प्रथम अध्याय

कोटि-कोटि वंदन करूँ, वीणावादिनि तोय।

ज्ञान, बुद्धि वरदायिनी, पूर्ण काम सब होय।।

परमपिता श्रीकृष्ण हैं, उनको कोटि प्रणाम।

ओम नाम में विश्व सब, अनगिन तेरे नाम।।

हे गणपति! होकर सखा, करना चिर कल्याण।

नितप्रति ही हरते रहो, जीवन के सब त्राण।।

 

कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्य निरीक्षण

धृतराष्ट्र उवाच

संजय से हैं पूछते ,धृतराष्ट्र कुरुराज।

कुरुक्षेत्र रण भूमि में, क्या गतिबिधियां आज।।1

 

संजय उवाच

राजन सुनिए आप तो, सेनाएँ तैयार।

दुर्योधन अब कह रहा, सुगुरु द्रोण से सार।। 2

 

पाण्डव सेना है बली, नायक धृष्टद्युम्न।

व्यूह- सृजन है अति विषम, दुर्योधन  अवसन्न ।। 3

 

बलशाली हैं भीम-से, अर्जुन से अतिवीर।

महारथी युयुधान हैं, द्रुपद, विराट सुवीर।। 4

 

धृष्टकेतु चेकितान हैं, पुरजित, कुंतीभोज।

शैव्य सबल से अतिरथी, बढ़ा रहे हैं ओज।। 5

 

उत्तमौजा सुवीर है, अभिमन्यु महावीर।

युधामन्यु सुपराक्रमी, पुत्र द्रोपदी वीर।।6

 

मेरी सेना इस तरह, सुनिए गुरुवर आप।

महाबली गुरु आप हैं, भीष्म पितामह नाथ।। 7

 

कर्ण-विकर्ण पराक्रमी, गुरुवर कृपाचार्य।

भूरिश्रवा महारथी, कभी न माने हार।। 8

 

अनगिन ऐसे वीर हैं, लिए हथेली जान।

अस्त्र-शस्त्र से लैस हैं, करते हैं संधान।। 9

 

शक्ति अपरिमित स्वयं की, भीष्म पिता हैं साथ।

पांडव सेना है निबल, दुर्योधन की बात।। 10

 

सेनानायक भीष्म के, बनें  सहायक आप।

महावीर हैं सब रथी , सेना व्यूह प्रताप।। 11

 

दुर्योधन ने भीष्म का, किया बहुत गुणगान।

बजा शंख जब भीष्म का, कौरव मुख मुस्कान।। 12

 

शंख, नगाड़े बज गए, औ’ तुरही, सिंग साथ।

कोलाहल इतना बढ़ा, खिले कौरवी गात।। 13

 

पांडव सेना ने सुना, भीष्म पितामह घोष।

अर्जुन, केशव ने किए , दिव्य शंख उद्घोष।। 14

 

कृष्ण ईश का शंख है, पाञ्चजन्य विकराल।

पार्थ का  है देवदत्त , भीम पौंड्र भूचाल।। 15

 

विजयी शंख अनन्त है, राज युधिष्ठिर धर्म।

नकुल शंख सुघोष है, सहदेव मणी पुष्प।। 16

 

परम् वीर धृष्टद्युम्न , जेय सात्यकि वीर।

शंखनाद सुन वीर के , कौरव हुए अधीर।। 17

 

शंखों की घन विजय-ध्वनि, गूँजी भू, आकाश।

दुर्योधन सेना हुई, उर में गहन हताश।। 18

 

शंखों की जब ध्वनि बजी, कोलाहल है पूर्ण।

दुर्योधन के भ्रात सब, उर में हुए विदीर्ण।।19

 

कपि-ध्वज- सज्जित रथ चढ़े, अर्जुन हुए प्रचेत।

धनुष बाण कर ले लिए, कहा कृष्ण समवेत। 20

 

अर्जुन उवाच

अर्जुन बोले कृष्ण प्रिय, तुम हो कृपानिधान।

सेनाओं के मध्य में, रथ को लें श्रीमान।। 21

 

अभिलाषी जो युद्ध के, कौरव सेना साथ।

लूँ उनको संज्ञान में, करने दो-दो हाथ।। 22

 

देखूँ सेना कौरवी, धृत के देखूँ पुत्र।

कौन- कौन दुर्बुद्धि हैं, कौन-कौन हैं शत्रु।। 23

 

संजय ने धृतराष्ट्र से कहा

संजय ने धृतराष्ट्र से, कहा सैन्य आख्यान।

माधव ने रथ को दिया,सैन्य मध्य स्थान ।। 24

 

पृथा पुत्र अर्जुन सुनें, ईश कृष्ण उपदेश।

योद्धा जग के देख लो, बचा न कोई शेष।। 25

 

सेनाओं के मध्य में, अर्जुन डाले दृष्टि।

संबंधी हैं सब खड़े , खड़े मित्र और शत्रु।। 26

 

सब अपनों को देखकर, अर्जुन है हैरान।

करुणा से अभिभूत है, कोमल हो गए प्राण।। 27

 

अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से भावविभोर होकर इस तरह अपने भाव प्रकट किए

अर्जुन बोला हे सखे, सब ही मेरे प्राण।

अंग-अंग है कांपता,  मुख है मेरा म्लान ।। 28

 

रोम-रोम कम्पित हुआ, विचलित ह्रदय शरीर।

गाण्डीव भी हो रहा, कर में विकल अधीर।। 29

 

सिर मेरा चकरा रहा, तन भी छोड़े साथ।

सखे कृष्ण सब देखकर, हुआ अमंगल ताप।। 30

 

कृष्ण सुनो मेरी व्यथा, मुझे न भाए युद्ध।

राज्य विजय न चाहिए, जीवन बने अशुद्ध।। 31

 

गोविंदा मेरी सुनो, क्या सुख है,क्या लाभ।

सब ही मेरे मीत हैं, सब ही मेरे भ्रात।। 32

 

हे मधुसूदन आप ही, मुझे बताएँ बात।

गुरुजन, मामा, पौत्रगण, सब ही मेरे तात।। 33

 

कभी न वध इनका करूँ, सब ही अपने मीत।

मुझको चाहे मार दें, या लें मुझको जीत।। 34

 

तुम ही कृपानिधान हो,ना चाहूँ मैं लोक।

धरा- गगन नहिं चाहिए, भोगूँगा मैं शोक।। 35

 

धृतराष्ट्र के पुत्र सब, यद्यपि सारे दुष्ट।

फिर भी पाप न सिर मढूं, जीवन हो जो क्लिष्ट।। 36

 

हे अच्युत!मेरी सुनो, यद्यपि सब ये मूढ़।

लोभ, पाप से ग्रस्त हैं, प्रश्न बड़ा ये गूढ़।। 37

 

हम पापी क्योंकर बनें, हम तो हैं निष्पाप।

वध करके भी क्या मिले, भोगें हम संताप।। 38

 

नाश हुआ कुल का अगर, दिखे न कोई लाभ।

धर्म लोप हो जाएगा, बढ़ें अधर्मी पाप।। 39

 

कृष्ण सखे सच है यही, कुल में बढ़ें अधर्म।

धर्म नाश हो जगत में, पाप दबाए धर्म।। 40

 

पाप बढ़ें कुल में अगर, नारी करें कुकर्म।

वर्णसंकरित कुल बने , क्षरित मान औ’ धर्म।। 41

 

कुलाघात यदि हम करें, हो जीवन नरकीय।

पितरों को भी कष्ट हो, पिंडदान दुखनीय।। 42

 

कुल परम्परा नष्ट हो, मिटें धर्म सदकर्म।

मनमानी सब ही करें, रहे लाज ना शर्म।। 43

 

कुलाघात यदि हम करें, मिट जाते कुल धर्म।

वर्णसंकरी दोष से, नष्ट जाति औ’ धर्म।। 43

 

गुरु परम्परा ये कहे, सुनो कृष्ण तुम बात।

जिसने छोड़ा धर्म है, मिले नरक- सौगात।। 44

 

घोर अचम्भा हो रहा, मुझको कृपानिधान।

राजभोग के वास्ते, क्या है युद्ध निदान।। 45

 

धृतराष्ट्र के पुत्र सब, चाहे दें ये मार।

नहीं करूँ प्रतिरोध मैं, मानूँ अपनी हार।। 46

 

 महाराजा धृतराष्ट्र से ये सब वर्णन संजय सारथी ने कहकर सुनाया

बाण-धनुष अर्जुन तजे, शोकमना है चित्त।

केशव सम्मुख हो रहा, विकल भाव- अनुरक्त ।। 47

 

इति श्रीमद्भागवतरूपी उपनिषद एवं ब्रह्माविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में ” अर्जुन विषादयोग ” नामक अध्याय 1 समाप्त

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 77 – हाइबन- रंग बदलती की टीटोडी ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “हाइबन- रंग बदलती की टीटोडी। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 77☆

☆ हाइबन- रंग बदलती की टीटोडी ☆

इसे आम भाषा में बड़ी टिटोडी कहते हैं। मगर यह टिटोडी नहीं है। इसे ग्रेट थिकनी कहते हैं। यह टिटोडी से बड़ी तथा अनोखी होती है।

यह पत्थरों के बीच छूप कर अपनी जान बचाती है। इसके लिए कुदरत ने इसे अजीब क्षमता दी है। यह जिस पत्थर के बीच छुपती है अपने को उसी रंग में रंग लेती है।

इसकी इसी विशेषता के कारण इसका दूसरा नाम स्टोन कर्ली है। यह हमेशा जोड़े में रहती है।इसकी रंग बदलने की विशेषता एक कारण यह कम दिखाई देती है।

गर्म पत्थर~

सांप के हमले से

छुटी टिटोडी।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

16-02-2021

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मैं “मिली” ☆ डॉक्टर मिली भाटिया

डॉक्टर मिली भाटिया

(सुप्रसिद्ध चित्रकार एवं लेखिका डॉ मिली भाटिया जी को बसंत पंचमी पर्व पर उनके चित्रकला विषय में  शोध “भारतीय लघुचित्रों में देवियों का अंकन” पर डॉक्टरेट से सम्मानित किये जाने पर एवं आज 18 फरवरी को आपके 35वे जन्मदिवस पर  ई- अभिव्यक्ति परिवार की और से हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। सत्रह वर्ष की आयु में माँ के निधन के पश्चातआँखों में आजीवन रहने वाले केरटोकोनस नेत्ररोग के होते हुए भी यह उपलब्धि प्रेरणास्पद है।

आज प्रस्तुत है आपकी कविता मैं “मिली”

 ☆ कविता ☆ मैं “मिली” ☆ डॉक्टर मिली भाटिया ☆ 

हवाओं से बातें करती हूँ

सपनो की दुनिया में

रंगो को भरती हूँ

मैं “मिली”

 

खोई खोई सी रहती हूँ

ज़िन्दगी से उलझती हूँ

दिल की सुनती हूँ

मैं “मिली”

 

आसमान से बातें करती हूँ

फूलों की मुस्कुराहट को

काग़ज़ पर उकेरती हूँ

मैं “मिली”

 

चिड़िया सी चहकती हूँ

चंचल-शोख़ सी थी कुछ

खामोशी से अब बातें रखती हूँ

मैं “मिली”

 

तारों से सुलझती हूँ

बादलों सी बरसती हूँ

काग़ज़ को कलम से सजाती हूँ

मैं “मिली”

 

अब भी बस

खोई खोई सी रहती हूँ………..!!

मैं “मिली”

 

© डॉक्टर मिली भाटिया

रावतभाटा-राजस्थान

मोबाइल न०-9414940513

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.५४॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.५४॥ ☆

तस्माद गच्चेर अनुकनखलं शैलराजावतीर्णां

जाह्नोः कन्यां सगरतनयस्वर्गसोपानपङ्क्तिम

गौरीवक्त्रभ्रुकुटिरचनां या विहस्येव फेनैः

शम्भोः केशग्रहणम अकरोद इन्दुलग्नोर्मिहस्ता॥१.५४॥

 

आगे तुम्हें हिमालय से उतरती

कनखल निकट मिलेगी जन्हुकन्या

सगर पुत्र हित स्वर्ग सोपान जो बन

धरा स्वर्ग संयोगिनी स्वयं धन्या

धरे चंद्र की कोर को उर्मिकर से

उमा का भृकुटि भंग उपहास करके

फेनिल तरल , मुक्त मधुहासिनी जो

जहाँ केश से लिप्त शंकर शिखर के

 

शब्दार्थ    ..  कनखल… हरिद्वार के निकट एक स्थान

जन्हुकन्या..गंगा नदी

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 83 – सांझ होते ही…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी स्वास्थ्य की जटिल समस्याओं से  सफलतापूर्वक उबर रहे हैं। इस बीच आपकी अमूल्य रचनाएँ सकारात्मक शीतलता का आभास देती हैं। इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना सांझ होते ही ….। )

☆  तन्मय साहित्य  #83 ☆ सांझ होते ही ….

सांझ होते ही यादों का, दीपक जला

रात भर फिर अकेला ही जलता रहा,

बंद  पलकों  में, आए  अनेकों  सपन

सिलसिला भोर तक यूं ही चलता रहा।।

 

शब्द  हैं  सब  अधूरे, तुम्हारे बिना

अर्थ अब तक किसी के मिले ही नहीं,

स्वर्ण बासंती मधुमास जाने को है

पुष्प अब तक ह्रदय के खिले ही नहीं,

 

सीखते सीखते प्रीत के पाठ को

प्रार्थना भाव से रोज पढ़ता रहा।

सिलसिला भोर तक…

 

नर्म सुधीयों का एहसास ओढ़े हुए

कामनाओं का, निर्लज्ज नर्तन चले,

दर्द है  कैद,  संयम  के  अनुबंध में

प्रीत की रीत को जग सदा ही छले,

 

प्रेम  व्यापार  में  मन अनाड़ी  रहा

दांव पर सब लगा हाथ मलता रहा।

सिलसिला भोर तक ….

 

है विकल सिंधू सा, वेदना से भरा

नीर निर्मल मधुर पान की प्यास है,

चाहे बदरी बनो या नदी बन मिलो

बूंद स्वाति की हमको बड़ी आस है,

 

मन में  ऐसे  संभाले  रखा  है तुम्हें

जिस तरह सीप में रत्न पलता रहा।

सिलसिला भोर तक यूं ही चलता रहा।।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश0

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 34 ☆ सबको गले लगाऊं ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता सबको गले लगाऊं। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 34  ☆

☆ सबको गले लगाऊं ☆

अपनों के साथ उनकी जीत का जश्न मनाऊँ,

अपनों से जो मिला प्यार उसे कर्ज समझूं ,

जो अपनों के लिए किया उसे क्या अपना फ़र्ज़ समझूं ||

जिंदगी तो रुआँसी हो जाती है हर कभी,

दुख दर्द और बेरुखी जो अपनों से मिली,

उसकी शिकायत यहां किसको दर्ज कराऊँ ||

भले ही अपनों से खुशियां मिली हो,

मगर परायों से कोई कम धोखे नहीं खाये,

जब धोखे ही खाने हैं तो क्यों ना अपनों से ही धोखा खाऊं ||

जीवन को शतरंज की बाजी समझूं ,

यहाँ जब बाजी अपनों के साथ ही खेलनी है,

तो हारकर भी क्यों ना अपनों के साथ उनकी जीत का जश्न मनाऊं ||

अगर ऐसा ही है जिंदगी तो तेरी बातों में क्यों आऊं,

लाख अपने नाराज होकर पराये हो जाये,

उनकी बेरुखी को नजरअंदाज कर उनको गले लगाऊं ||

 

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.५३॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.५३॥ ☆

हित्वा हालाम अभिमतरसां रेवतीलोचनाङ्कां

बन्धुप्रीत्या समरविमुखो लाङ्गली याः सिषेवे

कृत्वा तासाम अधिगमम अपां सौम्य सारस्वतीनाम

अन्तः शुद्धस त्वम अपि भविता वर्णमात्रेण कृष्णः॥१.५३॥

 

गृहयुद्ध रत बन्धुजन प्रेम हित हो

विमुख युद्ध से त्याग मादक सुरा को

जिसे रेवती की मदिर दृष्टि ने

प्रेमरस घोलकर और मादक किया हो

बलराम ने जिस नदी नीर का सौभ्य

सेवन किया औ” लिया था सहारा

उसी सरस्वती का मधुर नीर पी

श्याम रंगतन ! हृदय शुद्ध होगा तुम्हारा

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 71 ☆ सफ़र ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं ।  सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “सफ़र ”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 71 ☆

सफ़र ☆

आँखों के आगे एक कोहरा-

न आगे नज़र आता था, न पीछे;

एक गाड़ी में बैठी हुई

बस किसी और गाड़ी के पीछे-पीछे

धीमी-धीमी रफ़्तार में

ज़िंदगी चल रही थी…

 

कुछ उतावलापन था

मंजिल तक पहुँचने का,

कुछ छटपटाहट थी

वक़्त ज़्यादा लगने की,

कुछ डर था

कि आगे की गाड़ी का साथ

छूट न जाए,

कुछ उत्सुकता थी

कि सफ़र का अंत कैसा होगा…

 

उस उतावलेपन, छटपटाहट, डर और उत्सुकता ने

बदल दी मेरी सोच की धारा

और एक डरी हुई मैना की तरह मैं

सिमट गयी ख़ुद ही मैं…

 

कहाँ जानती थी

कि आगे वाली गाड़ी को शायद

ख़ुद ईश्वर का आशीर्वाद था,

और मेरे भीतर भी

एक ईश्वर था!

 

जब से यह राज़ खुला है,

हो गयी हूँ बेफिक्र और मस्मौला,

और उडती हूँ अपने ख्यालों के आसमान में

किसी बाज़-सी!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – दृष्टि ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि –  दृष्टि ?

मौसम तो वही था,

यह बात अलग है

तुमने एकटक निहारा

स्याह पतझड़,

मेरी आँखों ने चितेरे

रंग-बिरंगे वसंत,

बुजुर्ग कहते हैं,

देखने में और

दृष्टि में

अंतर होता है।

 

(माँ सरस्वती का अनुग्रह हम सबमें देखने को दृष्टि में बदलने वाली शारदीयता सदा जागृत रखे। शारदा पूजन एवं वसंतपंचमी का अभिवादन स्वीकार करें।)

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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