श्री प्रहलाद नारायण माथुर
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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 33 ☆
☆ जिंदगी चलती रही ☆
जिंदगी दोजख जीती रही,
मैं जन्नत समझ जिंदगी जीता रहा,
जिंदगी आगे दौड़ती रही,
मैं जिंदगी के पीछे चलता रहा,
जिंदगी हर पल साँस देती रही,
मैं साँसे यूँ ही उड़ाता रहा,
जिंदगी बिना रुके चलती रही,
मैं रुक-रुक कर उसे झांसा देता रहा,
जिंदगी अच्छा बुरा सब देती रही,
मैं अच्छाई नजरअंदाज कर उसे बुरा कहता रहा,
जिंदगी सम्भलने का मौका देती रही,
मैं ठोकरें खा कर जिंदगी को भला बुरा कहता रहा,
जिंदगी उतार-चढ़ाव दिखाती रही,
मैं जिंदगी की सच्चाई से मुंह मोड़ता रहा,
यह क्या जिंदगी तो मुझे ही छोड़ कर जाने लगी,
मैं रो-रोकर जिंदगी से जिंदगी की भीख मांगता रहा ||
© प्रह्लाद नारायण माथुर