हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – श्वेत ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – श्वेत

हरेक में रहता है श्वेत,

हरेक में बसता है श्वेत,

श्वेत का मूल श्वेत है,

अश्वेत का भी मूल श्वेत है,

नैतिकता में घोलकर

थोप दी गई हैं वर्जनाएँ

श्वेतांबराओं की देह पर,

नैतिकता काल के अनुरूप

परिवर्तित होती है,

सर्वदा धन, धर्म,

रसूख की सगी होती है,

समय की ग्लोबल डॉक्यूमेंट्री में

उभरता है क्लाइमेक्स..,

नैतिकता के सगों ने

खींचकर श्वेतांबराओं की देह से,

ओढ़ लिया है श्वेत,

दिगंबरायें अब

आ नहीं सकती देहरी के पार,

श्वेत का अखंड जयकार

व्योम होता है,

सिर्फ श्वेत ही है

जो सार्वभौम होता है।

©  संजय भारद्वाज

(29.1.2021 को नींद में उपजी कविता। लेखन रात्रि 2:27 बजे।)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 70 ☆ संतोष के दोहे☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 70 ☆

☆ संतोष के दोहे  ☆

ओढ़े चादर ओस की, वसुधा तकती भोर

हो कर शीतल  शिशिर में, पवन करे झकझोर

 

रद्दी में बिकने लगा, देखो अब साहित्य

जुगनू अब यह समझता, फीका है आदित्य

 

कर आराधन देश का, रखें देश हित सोच

संकट में कुर्बान हों, बिना कोई संकोच

 

अविरल धारा प्रेम की, दिल में बहती रोज

सच्चे सेवक राम के, जिनमें रहता ओज

 

उन्नत खेती कीजिये, चलें वक्त के साथ

उपज खेत की बढ़ सके, हो दौलत भी हाथ

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.४१॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.४१॥ ☆

 

गच्चन्तीनां रमाणवसतिं योषितां तत्र नक्तं

रुद्धालोके नरपतिपथे सूचिभेद्यैस तमोभिः

सौदामन्या कनकनिकषस्निग्धया दर्शयोर्वीं

तोयोत्सर्गस्तनितमुहरो मा च भूर्विक्लवास्ताः॥१.४१॥

वहाँ घन तिमिर से दुरित राजपथ पर

रजनि में स्वप्रिय गृह मिलन गामिनी को

निकष स्वर्ण रेखा सदृश दामिनी से

दिखाना अभय पथ विकल कामिनी को

न हो घन ! प्रवर्षण , न हो घोर गर्जन

न हो सूर्य तर्जन , वहाँ मौन जाना

प्रणयकातरा स्वतः भयभीत जो हैं

सदय तुम उन्हें , अकथ भय से बचाना

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – प्रेम ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – प्रेम ☆

हरेक को हुआ है प्रेम,

किसीने भोगी, व्यक्त न

कर पाने की पीड़ा,

कोई अभिव्यक्त होने की

वेदना भोगता रहा,

किसीका प्रेम होने से पहले

झोंके के संग बह गया,

किसीका प्रेम खिलने से

पहले मुरझा गया,

किसीका अधखिला रहा,

किसीका खिलकर भी

खिलखिलाने से

आजीवन वंचित रहा,

प्रेम का अनुभव

किसीके लिये मादक रहा,

प्रेम का अनुभव

किसीके लिये दाहक रहा,

जो भी हो पर

प्रेम सबको हुआ..,

प्रेम नित्य, प्रेम सत्य है,

प्रेम कल्पनातीत, प्रेम तथ्य है,

पंचतत्व होते हैं, देह का सार,

प्रेम होता है पंचतत्वों का सार!

 

©  संजय भारद्वाज

(11:07, 3.2.2021)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य #92 ☆ कट चाय से उतरती मजदूर की थकान ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  की एक अतिसुन्दर कविता  ‘कट चाय से उतरती मजदूर की थकान’ इस सार्थकअतिसुन्दर कविता के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 92 ☆

☆ कविता – कट चाय से उतरती मजदूर की थकान ☆

पापा बतलाते हैं

1940 के दशक की

उनकी स्मृतियां

जब एक गाड़ी में

किसी छोटी टँकी में

भरी हुई चाय

चौराहे चौराहे

मुफ्त बांटा करते थे

बुकब्राण्ड कम्पनी के

लोग

पीते पीते, धीरे धीरे

लत लग गई

लोगों को चाय की अब

 

चाय स्वागत पेय बन चुकी है

चाय की चुस्कियों के संग

चर्चाएं होती हैं बड़ी बड़ी

 

लड़कियों के भाग्य का

निर्णय हो जाता है

चाय पर, देख सुनकर

मिलकर तय हो जाते हैं

विवाह

 

चाय पॉलिटिकल

सिंबल बन गई है

जब से

चाय वाला

प्रधानमंत्री बन गया है

 

और शिष्टाचार यह है कि

वो अपमानित

महसूस करता है अब , जिसे

चाय के लिए तक न पूछा जाये

 

चाय के प्याले

बोन चाइना के हैं या

मेलेमाईन के

पोर्सलीन के या मिट्टी के कुल्हड़

ये तय करने लगे हैं

स्टेटस

 

चाय की पत्ती

आसाम की है या दार्जलिंग की

केरल की या कुन्नूर की

ग्रीन टी या व्हाइट टी

डिप टी बैग से बनी है या

उबाली गई है चाय

यह तय करती है कि

चाय कौन और क्यों पी रहा है ?

टाइम पास के लिए

मूड बनाने के लिए

कोई सम्भ्रांत ले रहा है चुस्कियां

या

थकान उतार रहा है कोई मजदूर

कट चाय पीकर

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.४०॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.४०॥ ☆

 

पश्चाद उच्चैर्भुजतरुवनं मण्डलेनाभ्लीनः

सांध्यं तेजः प्रतिनवजपापुष्परक्तं दधानः

नृत्तारम्भे हर पशुपतेर आर्द्रनागाजिनेच्चां

शान्तोद्वेगस्तिमितनयनं दृष्टभक्तिर भवान्या॥१.४०॥

 

फिर नृत्य में उठे भुजतरु शिखर लिप्त

हो , शंभु के धर जुही सांध्य लाली

हर गज अजिन आद्र परिधान इच्छा

लखें भक्ति , सस्मितवदन तव , भवानी

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 81 – होकर खुद से अनजाने…… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी स्वास्थ्य की जटिल समस्याओं से  सफलतापूर्वक उबर रहे हैं। इस बीच आपकी अमूल्य रचनाएँ सकारात्मक शीतलता का आभास देती हैं। इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना होकर खुद से अनजाने…..)

☆  तन्मय साहित्य  #  81 ☆ होकर खुद से अनजाने….. ☆ 

पल-पल बुनता रहता है, ताने-बाने

भटके यह आवारा मन चौसर खाने।

 

बीत रहा जीवन, शह-मात तमाशे में

सांसें  तुली  जा  रही, तोले – मासे में

अनगिन इच्छाओं के होकर दीवाने

भटके यह आवारा मन …………..।

 

कुछ मिल जाए यहाँ, वहाँ से कुछ ले लें

रैन-दिवस  मन में, चलते  रहते मेले

रहे विचरते होकर, खुद से अनजाने

भटके यह आवारा मन ……………।

 

ज्ञानी बने स्वयं,  बाकी सब अज्ञानी

करता  रहे  सदा यह, अपनी मनमानी

किया न कभी प्रयास स्वयं को पहचाने

भटके यह आवारा मन …………….।

 

अक्षर-अक्षर से कुछ शब्द गढ़े इसने

भाषाविद बन, अपने अर्थ मढ़े इसने

जांच-परख के, नहीं कोई है पैमाने

भटके यह आवारा मन……………।

 

रहे अतृप्त संशकित,सदा भ्रमित भय में

बीते  समूचा जीवन, यूं ही संशय में

समय-दूत कर रहा प्रतीक्षा सिरहाने

भटके यह आवारा मन चौसर-खाने।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश0

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 32 ☆ सब राह में खो गए ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता सब राह में खो गए। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 32 ☆

☆ सब राह में खो गए

जिंदगी गुजर गयी एक अच्छे कल की तलाश में,

एक दूसरे से सब कोसों दूर हो गए,

जीवन में सब आगे बढ़ते रहे मगर एक दूसरों को भूलते गए,

पीछे मुड़कर देखा तो पाया अपने सब ना जाने कहाँ बिछड़ गए ||

जिंदगी इतनी जल्दी बीत जाएगी अहसास ना था,

जिंदगी के उतार चढ़ाव में कितने मंजर देखे,

मुड़ कर जो देखा तो जिंदगी धुंधली नजर आई,

दादा-दादी नाना-नानी माता-पिता सब राह में कहीं खो गए ||

जीवन बहती नदियों सा बहता रहा,

पैसा शोहरत सब कुछ हासिल हुआ जिंदगी में,

मगर बहुत कुछ खो दिया इस जिंदगानी में,

जिंदगी में कुछ ना बचा बस आँखों में आंसू रह गए ||

अब कौन आंसू पोंछे, कौन मेरी तकलीफ समझे,

खुशनुमा था बचपन जहां पड़ौसी भी अपने थे,

माँ, दादी-नानी की ममता में जादु का अहसास था,

जादुई स्पर्श का अहसास करा सब ना जाने कहाँ चले गए ||

अब तो हम खुद जिंदगी की शाम में पहुंच गए,

दिल भर आया जब देखा सब अपने रिश्तेदारों में तब्दील हो गए,

खुद का शरीर भी समय देख कर बदल गया,

ढलती उम्र देख आँख-दांत गुर्दे-दिल सब साथ छोड़ते चले गए ||

 

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.३९॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.३९॥ ☆

 

पादन्यासैः क्वणितरशनास तत्र लीलावधूतै

रत्नच्चायाखचितवलिभिश चामरैः क्लान्तहस्ताः

वेश्यास त्वत्तो नखपदसुखान प्राप्य वर्षाग्रबिन्दून

आमोक्ष्यन्ते त्वयि मधुकरश्रेणिदीर्घान कटक्षान॥१.३९॥

वहां चरण निक्षेप से क्वणित रसना

जड़ित चँवरधारे , थके हाथ वाली

नखक्षत सुखद मेहकण पा लखेंगी

भ्रमर पंक्ति नयना तुम्हें देवदासी

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 69 ☆ ख़लिश☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं ।  सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “ख़लिश”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 69 ☆

☆ ख़लिश

ज़िंदगी ख़लिश का ही तो दूसरा नाम है, है ना?

 

कभी बेवजह बहते आंसुओं की खलिश,

कभी दिल-भेदती दर्द की ख़लिश,

कभी रातों को तनहाई की ख़लिश,

कभी सुबह किसी की नामौजूदगी की खलिश,

कभी आफताब के तेज़ से जलने की खलिश,

कभी मुकम्मल मुहब्बत की ख़लिश…

 

खलिश भी होती कुछ ऐसी चीज़ है

जो मिटाए नहीं मिटती,

कोई इरेज़र काम नहीं आता,

कोई वाइपर इसे नहीं हटा पाता,

किसी नेट में यह नहीं पकड़ आती,

बस यह घर बसाए रहती है

दिल में, जिगर में, आँखों में…

 

बस यह कभी-कभी निकल जाती अब्र बनकर;

कुछ पल को ज़हन शांत हो जाता है,

पर फिर जोर से थरथराता है,

एक बार फिर आकर वहाँ

खलिश घर बना ही लेती है-

और ज़िंदगी है कि

चलती ही जाती है!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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