हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 64 ☆ संतोष के दोहे☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 64 ☆

☆ संतोष के दोहे  ☆

निर्मल अंतःकरण हो, अंदर-बाहर एक

बिरले ही ऐसे यहाँ,  जो होते हैं नेक

 

रखें हौसला शेर सा, जिनके हाथ कमान

सैनिक अपने देश के, होते बहुत महान

 

चित्र राम का हृदय में, रखते हरदम भक्त

काज समर्पित राम को, करते प्रभु आसक्त

 

हिल-मिल रहिए प्रेम से, बना रहे सौजन्य

सबको लेकर जो चले, वही जगत में धन्य

 

संगम गंगा-जमुना का, देता शुभ संदेश

मिल-जुल कर रहते सभी, ऐसा अपना देश

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.१०॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.१०॥ ☆

त्वां चावश्यं दिवसगणनातत्पराम एकपत्नीम

अव्यापन्नाम अविहतगतिर द्रक्ष्यसि भ्रातृजायाम

आशाबन्धः कुसुमसदृशं प्रायशो ह्य अङ्गनानां

सद्यः पाति प्रणयि हृदयं विप्रयोगे रुणद्धि॥१.१०॥

लखोगे सुनिश्चित विवश जीवशेषा

तो गिनते दिवस भ्रात की भामिनी को

आशा ही आधार , पति के विरह में

सुमन सम सुकोमल सुनारी हृदय को

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

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English Literature – Poetry (भावानुवाद) ☆ एहसासों की गठरी/Bundle of feelings… – Ms. Neelam Saxena Chandra ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present an English Version of Ms. Neelam Saxena Chandra’s mesmerizing poem  “एहसासों की गठरी.  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit,  English and Urdu languages) for this awesome translation.)

Ms Neelam Saxena Chandra

(Ms. Neelam Saxena Chandra ji is a well-known author. She has been honoured with many international/national/ regional level awards. Ms. Neelam Saxena Chandra ji is  an Additional Divisional Railway Manager, Indian Railways, Pune Division.

☆ एहसासों की गठरी  

एहसासों की गठरी भी

कभी-कभी खुल ही जाती है,

और तब गिरने लगते हैं एहसास

सूखे पत्तों की तरह

जिनकी मौजूदगी, बस, ख़त्म होने को ही है!

 

कहाँ सूखे पत्तों की ज़िंदगी फिर से

हरी और खूबसूरत हो सकती है?

उन्हें तो खूबसूरती ढूँढनी पड़ती है

बस अपने आखिरी लम्हों में-

कभी वो खुश होते हैं

उनको इतनी रंगीन दहर का हिस्सा बनने का

हसीन मौक़ा मिला,

कभी वो अपने आखिरी पलों का

लुत्फ़ उठाते हैं और बस यूँ ही

बिना किसी बात के मुस्कुरा देते हैं,

और फिर माफ़ करते हुए उन सबको

जिन्होंने उन्हें कभी ग़म दिया हो,

समा जाते हैं मिट्टी में!

 

कभी टटोलकर देख लेना

अपने एहसासों की गठरी-

और धीरे-धीरे, एक-एक करके

गिराते रहना यह पत्ते-

जब सारे पत्ते एक साथ गिरते हैं ना,

शजर दर्द से तिलमिला उठता है!

☆ Bundle of feelings…

 Sometimes the bundle of

feelings, bursts open with

an outpour of emotions,

like an incessant fall

of dried leaves,

whose life cycle is

just about to end…!

 

Can the dried leaves

ever be green again?

Can  their  life  be

beautiful  ever again?

As they realise their beauty

in  the  dying  moments

sans anxiety, delightfully

to be part of a sprightly

hued journey,

Ever grateful for the heavenly

fortune they chanced upon…!

 

Making the world colourful

till their last moments,

As they kept spreading

the happiness smilingly,

with myriad hues of autumn,

without uttering a word,

Forgiving them all,

who gave them pain,

As they merged merrily

in the soil below…!

 

Keep groping your

Bundle of feelings, too;

And, you too, keep dropping

leaves, one by one, slowly

Coz, when all the leaves

fall together,

The tree itself writhes in

agony, excruciatingly…!

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 54 ☆ वाग्देवी माँ मुझे स्वीकार लो ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं    “वाग्देवी माँ मुझे स्वीकार लो.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 54 ☆

☆ वाग्देवी माँ मुझे स्वीकार लो ☆ 

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों -सा

सजा संसार दो

 

शब्द में भर दो मधुरता

अर्थ दो मुझको सुमति के

मैं न भटकूँ सत्य पथ से

माँ बचा लेना कुमति से

 

भारती माँ सब दुखों से

तार दो

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों -सा सजा

संसार दो

 

कोई छल से छल न पाए

शक्ति दो माँ तेज बल से

कामनाएँ हों नियंत्रित

सिद्धिदात्री कर्मफल से

 

बुद्धिदात्री ज्ञान का

भंडार दो

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों -सा सजा

संसार दो

 

भेद मन के सब मिटा दो

प्रेम की गंगा बहा दो

राग-द्वेषों को हटाकर

हर मनुज का सुख बढ़ा दो

 

शारदे माँ !दृष्टि को

आधार दो

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों-सा सजा

संसार दो

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.९॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.९॥ ☆

मन्दं मन्दं नुदति पवनश चानुकूलो यथा त्वां

वामश चायं नदति मधुरं चातकस ते सगन्धः

गर्भाधानक्षणपरिचयान नूनम आबद्धमालाः

सेविष्यन्ते नयनसुभगं खे भवन्तं बलाकाः॥१.९॥

अतिमंद अनुकूल शीतल पवन दोल

पर जब बढ़ोगे स्वपथ पर प्रवासी

तो वामांग में तब मधुर कूक स्वन से

सुमानी पपीहा हरेगा उदासी

आबद्ध माला उड़ेंगी बलाका

समय इष्ट लख गर्भ के हित, गगन में

करेंगी सुस्वागत तुम्हारा वहां पर

स्व अभिराम दर्शन दे भर मोद मन में

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 61 – नशीबाची भाषा ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #61 ☆ 

☆ नशीबाची भाषा ☆ 

नशीब म्हणजे  असते काय

बोल मनीचे बोलत जाय .

 

नशीब म्हणजे ओली रेघ

आठवणींचा हळवा मेघ.

 

प्रयत्न सारे अपुल्या हाती

दोष नको रे दुसर्‍या माथी .

 

हसणे रडणे सारे भोग

हे जीवनातील योगायोग.

 

झुलवत ठेवी प्रत्येकाला

नशीब ज्याचे कळे न त्याला.

 

लागून राहे  एकच आशा

कळून यावी,  नशीब भाषा.

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 75 – बहे विचारों की सरिता….. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  की  सकारात्मक एवं संवेदनशील रचनाएँ  हमें इस भागदौड़ भरे जीवन में संजीवनी प्रदान करती हैं। आपकी पिछली रचना ने हमें आपकी प्रबल इच्छा शक्ति से अवगत कराया।  ई-अभिव्यक्ति परिवार आपके शीघ्र स्वास्थय लाभ की कामना करता है। हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए आपकी नवीन रचना  “बहे विचारों की सरिता….”आपके दृढ मनोबल के साथ निश्चित ही एक सकारात्मक सन्देश देती है। )

☆  तन्मय साहित्य  #  ☆ बहे विचारों की सरिता…. ☆ 

सुखद कल्पनाओं के

मन में स्वप्न सुनहरे से

बहे विचारों की सरिता

हम, तट पर ठहरे से।

 

दुनियावी बातों से

बार-बार ये मन भागे

जुड़ने के प्रयास में

रिश्तों के टूटे धागे,

हैं प्रवीण फिर भी जाने क्यों

जुड़े ककहरे से।

 

रागी, भ्रमर भाव से सोचे

स्वतः समर्पण का

उथल-पुथल अंतर की

शंकाओं के तर्पण का,

पर है डर बाहर बैठे

मायावी पहले से।

 

जिसने आग लगाई

उसे पता नहीं पानी का

क्या होगा निष्कर्ष

अजूबी अकथ कहानी का,

भीतर में हलचल

बाहर हैं गूंगे बहरे से।

 

चाह तृप्ति की अंतर में

चिंताओं को लादे

भारी मन से किए जा रहे

वादों पर वादे

सुख की सांसें तभी मिले

निकलें जब गहरे से।

बहे विचारों की …..

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

22 दिसंबर 2020, 11.43

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ रिश्ता … ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ रिश्ता…✍️

अथ और इति में

अटूट रिश्ता है,

देखें तो जटिल

सोचें तो सरल लगता है,

ज्यों-ज्यों आदमी

भविष्य के डग भरता है

त्यों-त्यों आदमी

अतीत की राह चलता है!

©  संजय भारद्वाज

संध्या 5: 44 बजे, 22.12.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

मोबाइल– 9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 26 ☆ मौत भी अचंभित रह गयी ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता मौत भी अचंभित रह गयी। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 26 ☆ मौत भी अचंभित रह गयी

मौत से उनकी ठन गयी थी,

यह देख मौत भी अचंभित रह गयी थी,

लुका छिपी का खेल कुछ समय से चल रहा था,

मौत को अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं गलने वाली ||

 

मौत जूझती रही रोजाना उनसे,

वो मौन रह कर मात देते रहे उसे,

कभी सामने तो कभी पीछे से मौत रोज वार करती ,

मौत को अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं गलने वाली ||

 

मौत बार-बार दस्तक देती रही,

चित्रगुप्तजी का लेखा-जोखा उन्हें बतलाती रही,

मौत बैचेन थी कैसे ले जाऊंगी इन्हें अब,

मौत को अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं गलने वाली ||

 

हार नहीं मानूँगा यहीं उन्होंने ठानी थी,

साथ लेकर जाऊंगी मौत ने भी ठानी थी,

मौत से ठन जो गयी, मौत थक कर हार मानने को थी,

 

मौत को भी अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं गलने वाली ||

मौत अटल जी से विनती करने लगी,

जो आया है उसे जाना ही है, बहला कर कहने लगी,

चित्रगुप्त जी का लेखा आज तक कभी गलत नहीं हुआ,

मौत को अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं गलने वाली ||

 

-2-

 

अटल जी भी सत्य के पुजारी थे,

कहा मौत से, शर्मिंदा तुझे होने नहीं दूंगा,

साथ तेरे अवश्य चलूँगा पर एक बात माननी होगी,

मौत को अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं  गलने वाली ||

 

आज पंद्रह अगस्त है देश आजादी के जश्न मे डूबा है,

सारे देश में आज तिरंगा शान से लहरा रहा है,

झुकने नहीं दूंगा आज इसे, लहराने दो तिरंगे को शान से,

मौत को अहसास था यहां दाल आसानी से नहीं  गलने वाली ||

 

पंद्रह अगस्त को खलल नहीं डालने दिया मौत को,

सौलह हो गयी,मौत घबरा गयी कैसे कंहू अब चलने को,

मौत को परेशां देख अटल जी ने कहा चलो अब सफर करते हैं,

मौत के जान में जान आयी, उसे अहसास था यहां दाल नहीं गलने वाली ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ एक तस्वीर ☆ सुश्री सरिता त्रिपाठी

सुश्री सरिता त्रिपाठी 

(युवा साहित्यकार सुश्री सरिता त्रिपाठी जी CSIR-CDRI  में एक शोधार्थी के रूप में कार्यरत हैं। विज्ञान में अब तक 23 शोधपत्र अंतरराष्ट्रीय जर्नल में सहलेखक के रूप में प्रकाशित हुए हैं। वैज्ञानिक एवं तकनीकी क्षेत्र में कार्यरत होने के बावजूद आपकी हिंदी साहित्य में विशेष रूचि है । आज प्रस्तुत है आपकी  भावप्रवण कविता एक तस्वीर। )

☆ एक तस्वीर ☆  

 

क्या था ऐसा तुझमें बन आती एक तस्वीर

क्या था ऐसा मुझमें मिट जाती एक तस्वीर

 

जो भी था जैसा था तस्वीर बड़ी सुहानी थी

जीवन के हर पड़ाव पे जिसने जिंदगानी दी

 

कुछ अमिट छाप मस्तिष्क पर उभर जाते हैं

कुछ को जीवन में अपने कैद कर ले आते हैं

 

बस इस चित्रकला सा दूजा कुछ नहीं भाता है

जीवन के हर पहलू का दृश्य हमें दिखलाता है

 

कभी रील सा चलता था इंतज़ार भी रहता था

आज मोबाइल में झटपट प्रतिबिंब उतरता है

 

मिलने मिलाने हर पल का फोटो मिल जाता है

दिल से दिल का  तार फिर भी ना जुड़ पाता है

 

कैमरा चेहरे पर सबके अलग मुस्कान ले आया है

विपदा हो या खुशहाली सबमें वर्चस्व दिखाया है

 

वस्तविकता से हटके जीवन सबने बिताया है

दिखावे में आ करके खुद को भी मिटाया है

 

इस्तेमाल करो तकनीकि का उन्नति बतलाता है

जीवन के मूल्यों को दिखावे में ना तिरस्कार करो

 

© सरिता त्रिपाठी

जानकीपुरम,  लखनऊ, उत्तर प्रदेश

 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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