हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.१८॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.१८॥ ☆

 

चन्नोपान्तः परिणतफलद्योतिभिः काननाम्रैस

त्वय्य आरूढे शिखरम अचलः स्निग्धवेणीसवर्णे

नूनं यास्यत्य अमरमिथुनप्रेक्षणीयाम अवस्थां

मध्ये श्यामः स्तन इव भुवः शेषविस्तारपाण्डुः॥१.१८॥

 

पके आम्रफल से लदे तरु सुशोभित

सघन आम्रकूटादि वन के शिखर पर

कवरि सदृश स्निग्ध गुम्फित अलक सी

सुकोमल सुखद श्याम शोभा प्रकट कर

कुच के सृदश गौर, मुख कृष्णवर्णी

लगेगा वह गिरि, परस पा तुम्हारा

औ” रमणीक दर्शन के हित योग्य होगा

अमरगण तथा अंगनाओ के द्वारा

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 66 ☆ चाहत-ए-नैरंग ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं ।  सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है “चाहत-ए-नैरंग”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 66 ☆

☆ चाहत-ए-नैरंग

न कोई ख़ुशी, न कोई गुमाँ

थी लगती ज़िंदगी धुंआ-धुंआ

 

खेले जैसे कोई बाज़ी ताश की

यूँ चलती जीस्त जैसे हो जुआ

 

दूर घाटियों तक आवाज़ चीरती

थीं नज़र ढूँढ़ रही कोई रहनुमा

 

थक गयी घुटना टेके हारकर

थी हुई न कुबूल कोई दुआ

 

जब कहीं झांका भीतर रूह के

यूँ लगा चाहत-ए-नैरंग हुआ

 

यूँ मुस्कुराकर खिल दिए गुल

हो जैसे मैंने मौला को छुआ

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ चुप्पी- (43) ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ चुप्पी- (43) ☆

पृथ्वी पर

जब कुछ नहीं था

तब भी थी चुप्पी,

पृथ्वी पर

जब कुछ नहीं होगा

तब भी रहेगी चुप्पी,

अपनी कोख में

सृजन और विध्वंस, दोनों

लिये बैठी है चुप्पी..!

©  संजय भारद्वाज

(प्रात: 8:39 बजे, 1 सितम्बर 2018)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.१७॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.१७॥ ☆

 

त्वाम आसारप्रशमितवनोपप्लवं साधु मूर्ध्ना

वक्ष्यत्य अध्वश्रमपरिगतं सानुमान आम्रकूटः

क्षुद्रो ऽपि प्रथमसुकृतापेक्षया संश्रयाय

प्राप्ते मित्रे भवति विमुखः किं पुनर यस तत्थोच्चैः॥१.१७॥

 

 दावाग्नि शामित सघन वृष्टि से तृप्त

थके तुम पथिक को, सुखद शीशधारी

वहां तंग गिरि आम्रकूट करेगा

परम मित्र, सब भांति सेवा तुम्हारी

संचित विगत पुण्य की प्रेरणावश

अधम भी अतिथि से विमुख न है होता

शरणाभिलाषी, सुहृद आगमन पर

जो फिर उच्च है, बात उनकी भला क्या ?

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे । )

✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

दिन घंटे या मिनट हों, पल-पल रहते पास ।

फिर से जीवित हो गया, पाकर यह एहसास।।

 

चाहे हों जितने सजग, चाहे रहें सचेत।

संकेतों के भी परे, होते कुछ संकेत ।।

 

शब्दों की असमर्थता, होते अर्थ महीन।

संवेदन की तरलता, होती सीमाहीन ।।

 

प्रीति लालिमा आपकी, करा चुकी है स्नान ।

लगे पताका प्रीति की, लाल रंग परिधान।।

 

कर्णफूल है कान में, ग्रीवा में गलहार ।

अपने अपने दोनों हाथ में, रचा लिया है प्यार ।।

 

केश राशि में हैं गुंथे, सुमन सपन सुकुमार।

अधर अर्गला खोल दूं, इतना दो अधिकार।।

 

क्या बतलाएं किस तरह, काटी  सारी रैन।

यादों का  था काफिला, पहरे पर थे नैन।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 32 – अचीन्हें आतपों में …☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “अचीन्हें आतपों में… । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 32 ।। अभिनव गीत ।।

☆ अचीन्हें आतपों में … ☆

जिन्दगी के इन

अचीन्हें आतपों में

हम उँडेली चाय हैं

खाली कपों में

 

तीर, तरकश, धनुष

थामे ब्याध जैसे

हम स्वयम्‌ में छिप

रहे अपराध जैसे

 

चील कोई उड़

रही ऊँचाइयों में

खोजती छाया स्वयं

की नौ-तपों में

 

छद्म व षड़यंत्र

से लड़ते हमेशा

हो गये हैं चिथड़े-

चिथड़े रेशा-रेशा

 

किन्तु निर्वासन

हमें सहना पड़ा है

भले हम हों रहे

शासक, क्षत्रपों में

 

युद्ध के आरंभ

का लेकर अंदेशा

है दिखी चिन्ता

निरंतर व्योमकेशा

 

हम यहाँ आदिम

जगत के सद्‌पुरुष हैं

मंदिरों के पालथी

मारे जपों में

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

26-12-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ बुधुआ… ☆ श्री जयेश वर्मा

श्री जयेश वर्मा

(श्री जयेश कुमार वर्मा जी  बैंक ऑफ़ बरोडा (देना बैंक) से वरिष्ठ प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। हम अपने पाठकों से आपकी सर्वोत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता बुधुआ…।)

☆ कविता  ☆ बुधुआ… ☆

बुधुआ एक नाम नहीँ है एक जीवंत अर्थ है,

भारत का लिखें इतिहास, बनाये

कितने ही शिला लेख,

यह नाम हो हर जगह,

नीचे किसी कोने ज़रूरी है,

बुधुआ पाया जाता आज भी

सदियोँ से ये मरता नहीं है,

जैसा पहले था मन क्रम बचन से,

मूक परिश्रमी, वाचाल नही है,

बुधुआ आज भी है वैसा ही है,

सदियों बाद भी वैसा ही है,

जो खाली पेट रोटी की आस में

तोड़े अपने हाड़, दिन रात,

कहता कुछ नहीँ है,

ऐसे नामवर की चाह

हिंदुस्तान में हर कहीँ है,

देश का कोई भी हो प्रांत, शहर,

गाँव,नाम अलग हो भले,

अर्थ सहित बुधुआ वहीं हैं,

हर कोई चाहता उसे,

पर वो लोकप्रिय नहीं है,

वो एक किसान, हम्माल है,

खेतिहर मजदूर, मज़दूर,

हर सृजन का आरंभ वही है,

कहते उसे, चाहकर सब जन

उसको बुधुआ ही, खेती हो किसानी,

कोई हो काम, आरम्भ बुधुआ से ही है,

सभी चाहते रहे वैसा ही, सदियों से जैसा है,

बहुत हुए प्रयास

सुधरे इसकी हालत,

बने वो भी आम आदमी सा,

नही रहे हमेशा सा दबा कुचला,

पर कमोबेश आज भी हालात वहीँ है,

बुधुआ बुधुआ है, वो बुधुआ है,

हिंदुस्तानी समाज का अंग,

उसके दैनिक जीवन का  पायदान वही है

बुधुआ समाज के,

सदियों से कुत्सित प्रयासों का

प्रतिफल ही है,

जिसका स्वार्थ, ना बदलने देता नाम उसे

इसलिए आज भी बुधुआ यहीं कहीं है,

देश में बुधुआ हर जगह, हर कहीं है,

बुधुआ……

 

©  जयेश वर्मा

संपर्क :  94 इंद्रपुरी कॉलोनी, ग्वारीघाट रोड, जबलपुर (मध्यप्रदेश)
वर्तमान में – खराड़ी,  पुणे (महाराष्ट्र)
मो 7746001236

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ निधि की कलम से # 30 ☆ नारी ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण  कविता  “नारी”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 30 ☆ 

☆ नारी ☆

हे नारी, तुम्हें प्रणाम, करें अपनी शक्ति का आव्हान।

 

तुम शक्ति और विश्वास का आधार हो,

तुम जीवन देने वाली धरती का श्रृंगार हो,

तुम आत्मशक्ति बढ़ाने वाली साज का उदगार हो,

तुम हर राहगीर की पतवार हो,

हे नारी, तुम्हें प्रणाम, करें अपनी शक्ति का आव्हान।

 

हे नारी, तुम शक्ति से काली,

भक्ति से मीरा हो,

तुम समुद्र में सीप के मोती के समान हो,

तुम शब्दों में कविता के समान हो,

हे नारी, तुम्हें प्रणाम, करें अपनी शक्ति का आव्हान।

 

आओ अपनी शक्ति को पहचानो,

ले काली का रूप, करो राक्षसों का संहार,

एक साथ मिलकर करें धारी आसमान,

हिला दें पूरा ब्रह्माण्ड,

हे नारी, तुम्हें प्रणाम, करें अपनी शक्ति का आव्हान।

 

नारी, तुम पुराणों मे गीता हो, नदी में गंगा हो,

तुम रंग में सफेद, राग में मल्हार हो,

तुम लक्ष्मी, कभी सरस्वती, कभी दुर्गा कहलाती हो,

कभी कैकेयी, कभी मंथरा कहला कर कोसी जाती हो,

हे नारी, तुम्हें प्रणाम, करें अपनी शक्ति का आव्हान।

 

नारी क्यों तुम्हें युग युग में अग्नि परीक्षा देनी पड़ती है,

क्यों चीर-हरण से गुजरना पड़ता है,

क्यों आँखों में पट्टी बांध दी जाती है,

क्यों हर युग में पूजी जाती है,

हे नारी, तुम्हें प्रणाम, करें अपनी शक्ति का आव्हान।

 

©  डॉ निधि जैन,

पुणे

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #25 ☆ मुझे पीड़ा होती है ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है जिंदगी की हकीकत बयां करती एक भावप्रवण कविता “मुझे पीड़ा होती है ”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 25 ☆ 

☆ मुझे पीड़ा होती है ☆ 

जब आंखों से धारा बहती है

अनकही दास्तां कहती है

जब कोई राह ना सूझती है

सीने में कील सी चुभती है

तब मुझे पीड़ा होती है

 

जब रात के झूठन में पड़े

रोटी के टुकड़े के लिए

इन्सान के बच्चे को

और कुत्ते के पिल्ले को

लड़ते हुए देखता हूं

बच्चे को हारते और

पिल्ले को जीतते हुए

देखता हूं

तब भूख रुलाती है

तब मुझे पीड़ा होती है

 

जब एक ईमानदार व्यक्ति

निर्धनता है उसकी संपत्ति

न्यायपालिका के दर पर

माथा रगड़ता है

कानूनी दांव-पेंच में

उसका सबकुछ उजड़ता है

छिन जाती है उसकी रोटी

पहनता है बस लंगोटी

न्याय नहीं मिलना

एक नश्तर सा चुभोती है

तब मुझे पीड़ा होती है

 

मां-बाप की लाडली बेटी

मायके से जब बिदा होती है

मनमे क्या क्या सुनहरे

सपने संजोती है

ससुराल में दहेज दानवों के

हाथों अपनी जान गंवाती है

क्या लालच इन्सान को

इतना अंधा बनाती है ?

तब मुझे पीड़ा होती है

 

इक शोषित, पीड़ित बच्ची की

फरियाद सुनीं नहीं जाती है

सब आंखें मूंद लेते हैं

गूंगे, बहरें हो जातें हैं

जब वो असह्य दर्द से

प्राण त्यागती है

उसकी चिता रात के अंधेरे में

जलाई जाती है

दबंग आरोपी

बेखौफ घूमते हैं

मस्ती मे झूमते है

मानवता तार तार होती है

नारी की अस्मिता

जार-जार रोती है

तब मुझे पीड़ा होती है

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.१६॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.१६॥ ☆

 

त्वय्य आयन्तं कृषिफलम इति भ्रूविकारान अभिज्ञैः

प्रीतिस्निग्धैर्जनपदवधूलोचनैः पीयमानः

सद्यःसीरोत्कषणसुरभि क्षेत्रम आरुह्य मालं

किंचित पश्चाद व्रज लघुगतिर भूय एवोत्तरेण॥१.१६॥

 

कृषि के तुम्हीं प्राण हो इसलिये

नित निहारे गये कृषक नारी नयन से

कर्षित, सुवासिक धरा को सरस कर

तनिक बढ़, उधर मुड़ विचरना गगन से

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

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