हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 227 ☆ बहती धारा अनवरत… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना बहती धारा अनवरत। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 227 ☆ बहती धारा अनवरत

प्रकृति में वही व्यक्ति या वस्तु अपना अस्तित्व बनाये रह सकती है जो समाज के लिए उपयोगी हो, समय के साथ अनुकूलन व परिवर्तन की कला में सुघड़ता हो। अक्सर लोग शिकायत करते हैं कि मुझे जो मिलना चाहिए वो नहीं मिला या मुझे लोग पसंद नहीं करते।

यदि ऐसी परिस्थितियों का सामना आपको भी करना पड़ रहा है तो अभी भी समय है अपना मूल्यांकन करें, ऐसे कार्यों को सीखें जो समाजोपयोगी हों, निःस्वार्थ भाव से किये गए कार्य एक न एक दिन लोगों की दुआओं व दिल में अपनी जगह बना पायेंगे।

निर्बाध रूप से अगर जीवन चलता रहेगा तो उसमें सौंदर्य का अभाव दिखायी देगा, क्योंकि परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है। सोचिए नदी यदि उदगम से एक ही धारा में अनवरत बहती तो क्या जल प्रपात से उत्पन्न कल- कल ध्वनि से वातावरण गुंजायमान हो सकता था। इसी तरह पेड़ भी बिल्कुल सीधे रहते तो क्या उस पर पक्षियों का बसेरा संभव होता।

बिना पगडंडियों के राहें होती, केवल एक सीध में सारी दुनिया होती तो क्या घूमने में वो मज़ा आता जो गोल- गोल घूमती गलियों के चक्कर लगाने में आता है। यही सब बातें रिश्तों में भी लागू होती हैं इस उतार चढ़ाव से ही तो व्यक्ति की सहनशीलता व कठिनाई पूर्ण माहौल में खुद को ढालने की क्षमता का आंकलन होता है। सुखद परिवेश में तो कोई भी अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर वाहवाही लूट सकता है पर श्रेष्ठता तो प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपना लोहा मनवाने में होती है, सच पूछे तो वास्तविक आंनद तभी आता है जब परिश्रम द्वारा सफलता मिले।

नदियों की धारा जुड़ी, राह को बनाते मुड़ी

जल का प्रवाह बढ़ा, कल- कल सी बहे।

*

सागर की ओर चली, बन मतवाली कली

बूंद- बूंद वन- वन, छल- छल सी रहे।।

*

संगम को अकुलाई, बिना रुके चल आई

जीवन को सौंप दिया, सुकुमारी सी कहे।

*

जल बिन कैसे जियें, घूँट- घूँट कैसे पियें

शुद्धता का भाव धारे, मौन मूक सी सहे।।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पसोपेश ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – पसोपेश ? ?

बहुत बोलते हो तुम..

उस रोज़ ज़िंदगी ने कहा था,

मैंने ख़ामोशी ओढ़ ली

और चुप हो गया…,

 

अर्से बाद फिर

किसी मोड़ पर मिली ज़िंदगी,

कहने लगी-

तुम्हारी ख़ामोशी

बतियाती बहुत है…,

 

पसोपेश में हूँ,

कुछ कहूँ या चुप रहूँ…!

?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा 💥

 🕉️ इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 234 ☆ बाल गीत – ज्ञानवर्धक कविता पहेली –  बूझो तो जानें… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 234 ☆ 

☆ बाल गीत – ज्ञानवर्धक कविता पहेली –  बूझो तो जानें…  ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

दक्षिण ध्रुव की बर्फ में रहता

सागर में खाता गोता।

पंख नहीं वह न उड़ सकता

पक्षी है सबको मोहता।

 *

बर्फ पर चलता अंडे देता

कूद-फाँद वह कर सकता।

सागर की तलहटी चूमे

मित्र मनुज का बन सकता।

 *

दाँत नहीं हैं इसके होते

चोंच से करता सदा शिकार।

आधा धवल , शेष है काला

रोचक है इसका संसार।

 *

कई प्रजाति इसकी होतीं

अन्टार्कटिका है मुख्य स्थान।

बर्फ है इसकी जीवन साथी

पूँछ , पैर है इसकी शान।

 *

दुर्गम क्षेत्र ढके बर्फ से

वहीं बसाता सदा बस्तियाँ।

अधिक ठंड में झुंड में रहता

करता रहता खूब मस्तियाँ ।

 *

पच्चीस अप्रैल दिवस संरक्षण

अंतिम अक्षर उसके इन।

रोचक है पेंगु की दुनिया

जलवायु परिवर्तन से खिन।

 *

उत्तर – पेंगुइन पक्षी।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #262 – कविता – ☆ भ्रम में हैं हम, रचते हैं कविताओं को… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष—  सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता भ्रम में हैं हम, रचते हैं कविताओं को…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #262 ☆

☆ भ्रम में हैं हम, रचते हैं कविताओं को… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

भ्रम में हैं हम, रचते हैं कविताओं को

सच तो यह है, रचती रही हमें कविताएँ।

*

सदा प्रयोजन रख समक्ष संयोजन किया अक्षरों का

भाव जगत से शब्द लिए, फिर बुनते रहे बुनकरों सा

देखा-सीखा-लिखा लगी जुड़ने

 फिर सँग में कईं विधाएँ

सच तो यह है, रचती रही हमें कविताएँ।

*

जीना सिखा दिया सँग में, जिज्ञासा के वरदान मिले

प्रश्न खड़े करती कविता, उत्तर भी तो इससे ही मिले

सुख-दुख हर्षोल्लास विषाद,

विषमता,जन-मन की विपदाएँ

सच तो यह है, रचती रही हमें कविताएँ।

*

एक नई पहचान इसी से मिली अमूल्य सुनहरी सी

मिली सोच को नई उड़ानें सम्बल बन कर प्रहरी सी

विविध भाव धाराएँ बन कर

 बहती रहती दाएँ-बाएँ

सच तो यह है, रचती रही हमें कविताएँ।

*

खड़े धरातल पर यथार्थ से, परिचय होने रोज लगा

नित्य-अनित्य झूठ-सच, कौन पराया अपना कौन सगा

समताबोध मिला अनुभव से

कैसे सुखमय जीवन पाएँ

सच तो यह है, रचती रही हमें कविताएँ।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 86 ☆ नहीं आए तुम… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “नहीं आए तुम…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 86 ☆ नहीं आए तुम… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

तुम्हारी राह में

आँखें हुईं पत्थर

फिर भी नहीं आए तुम ।

 

तुम्हे मन में

नयन में

बसाया हमने

ढाल शब्दों में

तुमको गीत

सा गाया हमने

 

हृदय की कामनाएँ

रह गईं अक्सर

ख़ाली भर न पाए तुम ।

 

सदा उन्मुक्त हो

नभ में

उड़े बनकर के पाखी

क्षितिज के पार

घर की चाह

लेकर जिए एकाकी

 

हवा पर तैरते

निकले ज़रा छूकर

घटा से छा गए तुम ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 90 ☆ किस तरह की रोशनी है शहर में… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “किस तरह की रोशनी है शहर में“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 90 ☆

✍ किस तरह की रोशनी है शहर में… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

सबको अपनी ही पड़ी है शहर में

हाय दिल की मुफ़लिसी है शहर में

*

रात पूनम सी कही पर तीरगी

किस तरह की रोशनी है शहर में

*

बिल्डिंगों के साथ फैलीं झोपडीं

साथ दौलत के कमी है शहर में

*

शानो-शौक़त का दिखावा बढ़ गया

सादगी बेहिस हुई है शहर में

*

हर गली में एक मयखाना खुला

मयकशी ही मयकशी है शहर में

*

जुत रहा दिन रात औसत आदमी

यूँ मशीनी ज़िंदगी है शहर में

*

नाम पर तालीम के सब लुट रहे

फीस आफ़त हो रही है शहर में

*

सभ्य वासी बन रहे पर सच यही

नाम की कब आज़ज़ी है शहर में

*

है अरुण सुविधा मयस्सर सब मगर

कब फ़ज़ा इक गाँव सी है शहर में

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 55 – खाली घरौंदा…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – खाली घरौंदा।)

☆ लघुकथा # 55 – खाली घरौंदा  श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

मानसी बहुत दिन हो गया तुम मेरे साथ कहीं नहीं गईं?  मेरे ऑफिस में जो शर्मा अंकल  हैं। तुम्हें तो पता है, पिताजी की अचानक दिल का दौरा से मृत्यु गई थी जब कोई सहारा नहीं था। अंकल ने हमारी बहुत मदद की  है  ऑफिस और  मेरा बिजनेस अंकल के कारण चल रहा है। आज उनकी बेटी की शादी है तुम मेरे साथ चलो मुझे अच्छा लगेगा।

 फिर वह कुछ रुक  कर बोला – तुम अपना बर्तन प्लेट घर में अलग रखती  हो।  अपना सामान किसी को छूने नहीं देती। इतनी साफ सफाई से रहना  अच्छी बात  है। किन्तु, हमें  सबके साथ  मिलना जुलना चाहिए चलो खाना मत खाना? क्या ! तुम मेरी खुशी के लिए इतना नहीं कर सकती?

तुम्हें पता है कि  लोग कहीं से भी आकर छू देते हैं और गले मिलते हैं यह मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता?

तुम चिंता मत करो  हम जल्दी ही आ जाएंगे?

तुम अकेले जाओ मुझे इतना जोर मत दो मुझे ऑफिस लोगो के यहाॅं जाना अच्छा नहीं लगता है। तुम्हें तो मेरी आदत पता है, मुझे छोटे लोगों से मिलना जुलना बिल्कुल पसंद नहीं है।

ठीक है? तुम्हें नहीं जाना तो मत जाओ तुम्हारे पास  मैं बुआ जी को छोड़ देता हूं रात में मैं वही रहूंगा।

तुम्हारा मेरे लिए इतना प्यार मुझे अच्छा नहीं लगता। घर में नौकर भी तो है फिर बुआ जी को क्यों यहाॅं छोड़ना?

 अचानक रात में मानसी को बहुत दर्द होने लगा और वह कराहने लग गई।  तभी बुआ जी और उनका बेटा उसके कराहने की आवाज सुनकर मानसी के घर पहुंचे। अरुण ने उन्हें घर की चाबी पहले से ही दे रखी थी ।

क्या हुआ बेटा?

 बुआ जी मुझे बहुत दर्द हो रहा है। 

बिना देर किए वे लोग उसे अस्पताल जाते हैं तब पता चलता है कि अपेंडिक्स का दर्द है।

 बेटा डॉक्टर को तुम्हें छूना ही पड़ेगा और कुछ दिन अस्पताल में रहना ही पड़ेगा। 

इसी कारण तुम्हारा खाली घरौंदा है। थोड़ा वक्त के साथ चलो? अपने आप को थोड़ा परिवर्तित करो।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 86 – यज्ञ-फल तो आप हैं… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – यज्ञ-फल तो आप हैं।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 86 – यज्ञ-फल तो आप हैं… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

हर जगह चर्चाओं में बस आजकल तो आप हैं

गुनगुना जिसको रहे सब, वह ग़ज़ल तो आप हैं

*

प्रेमसागर, सब पुराणों में सरस वह ग्रन्थ है

मैं प्रवाचक किन्तु चंदन की रहल तो आप हैं

*

हम सरीखे मिटने वाले, होंगे पत्थर और भी 

जिनके काँधों पर तने, कंचन महल तो आप हैं

*

आपकी चंचल अदाओं की बिसातें जादुई 

हारते जिनमें सभी, लेकिन सफल तो आप हैं

*

चाहते थे और भी, पर भाग्य से हमको मिला 

जिन्दगी की साधना का, यज्ञ-फल तो आप हैं

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – शब्द ही शब्द ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – शब्द ही शब्द   ? ?

जंजालों में उलझी

अपनी लघुता पर

जब कभी

लज्जित होता हूँ,

मेरे चारों ओर

उमगने लगते हैं

शब्द ही शब्द,

अपने विराट पर

चकित होता हूँ।

अपनी लघुता जानें, अपना विराट पहचानें।

?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा 💥

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संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 213 – चलो चलें महाकुंभ- 2025 ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी एक कविता चलो चलें महाकुंभ- 2025”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 213 ☆

🌻 चलो चलें महाकुंभ- 2025🌻

 (विधा – दोहा गीत)

 

संस्कारों को मानते, संस्कृति है पहचान।

वेद ग्रंथ सब जानते, भारत भूमि महान।।

 *

सप्त ऋषि की पुण्य धरा, साधु संतों का वास।

बहती निर्मल नीर भी, नदियाँ भी है खास।।

गंगा जमुना धार में, सरस्वती का मान।

संस्कारों को मानते, संस्कृति है पहचान।।

 *

 होता है संगम जहाँ , कहते प्रयागराज।

धर्म कर्म शुभ धारणा, करते जनहित काज।।

मोक्ष शांति फल कामना, देते इच्छित दान।

संस्कारों को मानते, संस्कृति है पहचान।।

 *

अमृत कुंभ का योग भी, होता शुभ दिन वर्ष।

सारे तीर्थ मंडल में, बिखरा होता हर्ष।।

आता बारह वर्ष में, महाकुंभ की शान।

संस्कारों को मानते, संस्कृति है पहचान।।

 *

आते हैं सब देव भी, धरकर योगी भेष।

नागा साधु असंख्य है, काम क्रोध तज द्वेष।।

पूजन अर्चन साधना, करते संगम स्नान।

संस्कारों को मानते, संस्कृति है पहचान।।

 *

गंगा मैया तारती, सबको देती ज्ञान।

भक्ति भाव से प्रार्थना, लगा हुआ है ध्यान।। 

पाप कर्म से मोक्ष हो, मांगे यही वरदान।

संस्कारों को मानते, संस्कृति है पहचान।।

 *

महाकुंभ यह पर्व है, सर्दियों की यह रीत।

दूर देश से आ मिले, बढ़ती सबकी प्रीत।।

भेदभाव को त्याग के, करना संगम स्नान।

संस्कारों को मानते, संस्कृति है पहचान।।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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