हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ☆ सन्दर्भ: एकता शक्ति ☆ इंद्रधनुष ☆ श्री संजीव अग्निहोत्री

श्री संजीव अग्निहोत्री

हम ई-अभिव्यक्ति पर एक अभियान की तरह प्रतिदिन “संदर्भ: एकता शक्ति” के अंतर्गत एक रचना पाठकों से साझा कर रहे हैं। हमारा आग्रह  है कि इस विषय पर अपनी सकारात्मक एवं सार्थक रचनाएँ प्रेषित करें। हमने सहयोगी  “साहित्यम समूह” में “एकता शक्ति आयोजन” में प्राप्त चुनिंदा रचनाओं से इस अभियान को प्रारम्भ कर दिया  हैं।  आज प्रस्तुत है श्री संजीव अग्निहोत्री जी की प्रस्तुति  “ इंद्रधनुष ”

☆  सन्दर्भ: एकता शक्ति ☆  इंद्रधनुष ☆

सात सुर भी नहीं सरगम में रह पाते,

शाख़-शाख़ अलग,वृक्ष से यही नाते ?

अब तो पड़ चुका है,आँख पे शक का पर्दा

दुआ- सलाम है,पर खुल के मिल नहीं पाते.

?

ये कौन हैं जो ज़हर,आबो-हवा को देते

मसलते अमन को,शोलों को हवा दे देते

और एक हम हैं,जो बिछाए गये जालों में

कुछ बिना सोचे,परिंदों की तरह फँस जाते.

?

कहीं तो जाति धर्म चौसर की गोटी हैं

ये इनका खेल है,ये सेंक रहे रोटी हैं

हमारे प्रेम के पौधे को ज़हर से सींचा

नज़र में ताज है, ये चाल बड़ी खोटी है.

?

हैं भारतीय सभी,इंद्रधनुष धारी हैं

है सात रंग,मगर आसमाँ पे भारी हैं

बड़े जतन से सम्भाला हुआ,ये गुलशन है

जो ताज ओ तख़्त की है दुश्मनी, तुम्हारी है.

©  श्री संजीव अग्निहोत्री

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मेरे..मन..की. ☆ ☆ श्री जयेश वर्मा

श्री जयेश वर्मा

(ई-अभिव्यक्ति में सुविख्यात साहित्यकार श्री जयेश कुमार वर्मा जी का हार्दिक स्वागत है। आप बैंक ऑफ़ बरोडा (देना बैंक) से वरिष्ठ प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। हम अपने पाठकों से आपकी सर्वोत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक  अतिसुन्दर भावप्रवण कविता मेरे..मन..की. ।)

☆ कविता  ☆ मेरे..मन..की ☆

मैं हवा हो जाऊं

सबकी सांसो में समा जाऊं।।

मैं ना रहूँ तब भी,

एक खुशबू सा बिखर जाऊं।।

 

मैं एक चिड़िया हो जाऊं

सबके आँगन में फुदक जाऊं

हर मौसम में गाना गाऊँ

तिनके तिनके जोड़कर बनाउ घोसले

सबके साथ फिर थोड़ा सा रह जाऊँ।।

 

मैं एक बादल हो जाऊं

आसमा में भटकता भटकता

किसी अपने पर,

जम कर बरस जाऊं।।

 

मै जब पीला पत्ता हो जाऊं।

अपनी टहनी से बिछड़ जाऊं।

ऐ हवाओ आंधिया बन आना

मुझे उड़ा ले जाना,

अंनत की ओर….

 

©  जयेश वर्मा

संपर्क :  94 इंद्रपुरी कॉलोनी, ग्वारीघाट रोड, जबलपुर (मध्यप्रदेश)
वर्तमान में – खराड़ी,  पुणे (महाराष्ट्र)
मो 7746001236

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे । )

 ✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

बेचैनी  मन की बढ़ी, व्यस्त क्षणों के बाद ।

कोलाहल को चीर कर, आई कोमल याद।।

 

बैठा हूं मैं दूर पर, यादों में प्रिय पास ।

सारी दूरी पा, मन उपजा विश्वास ।

 

बहुत दूर है आज हम, कल थे बहुत करीब।

काट रहे हैं जिंदगी, यादें बनी सलीब।।

 

वे मधुमेह पल याद है, याद मधुर संवाद ।

बहुत चाहता भूलना, आ जाती है याद ।।

 

प्रकट नहीं मुख से अगर, होती नहीं प्रतीति।

ठहरेगी कब तक भला, कालपात्र’ में प्रीति ।।

 

दहक रही है जिंदगी, ज्यों जंगल की आग ।

स्वाहा ध्वनियों से परे, कहां रहा है भाग।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ रोजाना ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ रोजाना ☆

कैसे चलती है कलम

कैसे रच लेते हो रोज?

खुद से अनजान हूँ

पता पूछता हूँ रोज,

भीतर खुदको हेरता हूँ

दर्पण देखता हूँ रोज,

बस अपने ही अक्स

यूँ ही लिखता हूँ रोज।

 

©  संजय भारद्वाज 

(6.6.2019, 11.10 बजे)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 19 – कुछ शब्दचित्र ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत  “कुछ शब्दचित्र। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 19– ।। अभिनव गीत ।।

☆ कुछ शब्दचित्र

 

चित्र :: आमुख

 

बिखर गईं मुस्काने

होंठों की दराज से

माँगा जिनको सबने

चेहरे के समाज से

 

चित्र :: एक

 

मौसम डरा -डरा सा

बाहर को झाँका है,

मौका परदे के विचार

से भी बाँका है

 

चुपके पूछ रहा-

कपड़े क्या सस्ते हैं कुछ?

“तो खरीद लूँगा मैं”

कस्बे के बजाज से

 

चित्र :: दो

 

पेड़ों के पत्तों में

हलचल बढ़ने  वाली

शाख -शाख पर फैली

केसर उड़ने वाली

 

फैल रही खुशबू अब

चारों ओर सुहानी

हवा लुटाती है अपनापन

इस लिहाज से

 

चित्र :: तीन

 

वहीं ज्योति सी प्रखर

धूप की बेटी के मुख

अंग -अंग पर, छाया

रंग से बदल गया रुख

 

दोनों हाथों से घर में

वह सगुन स्वरूपा

डाल रही सगनौती है

छत पर अनाज से

 

© राघवेन्द्र तिवारी

27-06-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 65 ☆ कविता – महापौर ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी  की एक सार्थक कविता  – महापौर। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 65

☆ कविता  – महापौर ☆ 

शहर का मुखिया,

महापौर ऐसा हो,

जब भी जहां मिले,

तो मुस्करा के मिले,

जन जन के दुःख दर्द,

खिल खिला के दूर करे,

धर्म सम्प्रदाय से उठकर,

मानव धर्म का निर्वाह करे,

तेज तर्रार आदर्श लिए,

हरियाली की बात करे,

धूल को शहर से भगा के,

चमचमाती सड़क दे,

गगनचुंबी इमारतों के पास,

झिलमिलाती रोशनी दे,

बेरोजगारों को रोजगार दे,

समस्याओं को मार दे,

वार्ड वार्ड घूमकर,

जन जन को प्यार दे,

जनहित के कार्य में,

घर -द्वार त्याग दे,

महकते गुलाब और,

आलीशान मुस्कान दे,

शहर के द्वार में,

शान शौकत प्यार दे,

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ निधि की कलम से # 22 ☆ चाँद पाने का सफर ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण कविता  “चाँद पाने का सफर”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 22 ☆ 

☆ चाँद पाने का सफर 

 

चांदी  की कटोरी से माँ ने चाँद दिखाया था कभी,

चाँद छूने की आकांक्षा को जगाया था कभी।

 

उसे पाने को जी भी ललचाया था कभी,

गोल-गोल चाँद से जड़ा आकाश,

आकाश में तारों के बीच में अड़ा,

सुन्दर कोमल, माँ की कटोरी से शायद बड़ा,

चांदी की कटोरी से माँ ने चाँद दिखाया था कभी,

चाँद छूने की आकांक्षा को जगाया था कभी।

 

छत पर खड़ी करती रहती हूँ मैं कोशिश कभी,

कैद करना चाहती हूँ आकाश के ये सुन्दर पूत को कभी,

छू लेना चाहती हूँ उस मौन प्रतीक को कभी,

क्या ये कोशिश पूरी हो पायेगी कभी,

चांदी की कटोरी से माँ ने चाँद दिखाया था कभी,

चाँद छूने की आकांक्षा को जगाया था कभी।

 

©  डॉ निधि जैन,

पुणे

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #12 ☆ मास्क ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है।  सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग  स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आखिर मैं भी तो वही कर रहा हूँ। आज से हम प्रत्येक सोमवार आपका साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी प्रारम्भ कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है एक समसामयिक भावप्रवण रचना “मास्क”।  श्री श्याम खापर्डे जी ने  इस कविता के माध्यम से  मास्क के महत्व की चर्चा की है जो विचारणीय है।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 11 ☆ 

☆ मास्क ☆ 

दुविधा में है हर व्यक्ति

मिट ना जाये उसकी हस्ती

राह कोई सूझत नाही

डूब ना जाये जीवन की कस्ती

 

टोने टोटके काम ना आयें

व्यर्थ हो गई सारी सलाहें

तीव्र गति से फैलता जायें

कैसे रोकें कोई बतायें

 

लक्षण इसके समझ ना आये

हो जाये तब उभर कर आये

फेल हो गई सारी थ्योरी

कैसे अपनी जान बचाये

 

वैक्सिन नहीं जलद आने वाली

घोषणाएं है यह सब खाली

मास्क ही है बस एक उपाय

बिना मास्क कैसे करोगे रखवाली

 

मास्क आज कितना जरूरी है

मास्क बिना हर बात अधूरी है

मास्क नहीं तो कैसा जीवन

मास्क पहनना अब मजबूरी है

 

© श्याम खापर्डे 

09/10/2020

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़)

मो  9425592588

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ हाँ मैं यशोधरा हूँ ……. ☆ श्री आलोक पाठक 

श्री आलोक पाठक 

जन्म – 1 सितंबर 1969

शिक्षा – एम कॉम एल एल बी

व्यवसाय – शासकीय सेवा

सम्मान – काव्य वर्तिका अलंकरण, प्रसंग काव्य शिरोमणि, मंथन साहित्यकार सम्मान, मां तुझे सलाम मुशायरा सम्मान, केंद्रीय हिंदी निदेशालय दिल्ली तथा हिंदी एवं भाषा विज्ञान विभाग रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर द्वारा राष्ट्रीय शोध गोष्ठी सम्मान, अखिल  भारतीय कवि सम्मेलन प्रसंग अलंकरण सम्मान

☆  कविता ☆ हाँ मैं यशोधरा हूँ ……. ☆ 

( सिद्धार्थ (महात्मा  बुद्ध) के गृह त्याग पर कवि श्री अलोक पाठक जी की काव्यात्मक अभिव्यक्ति)

हाँ मैं यशोधरा हूँ

एक रानी हूँ

 

हाँ मैं यशोधरा हूँ

एक रानी हूँ

 

हाँ मुझे याद है जब

सिद्धार्थ ब्याह कर लाए थे

मेरी नवजीवन में कितने

सुगंधित पुष्प खिलाए थे

यथार्थ के धरातल से हटकर

अनगिनत स्वप्न दिखाए थे

वैवाहिक जीवन में मेरे

तभी तो राहुल आए थे

शांत और निर्लिप्त भाव का

मैं निश्छल सा पानी हूँ ….1

 

हाँ मैं यशोधरा हूँ

एक रानी हूँ

 

हाँ मैंने देखा सिद्धार्थ को

जरा जन्म से उलझते हुए

हाँ मैंने देखा सिद्धार्थ के

अंतर्मन को सुलगते हुए

क्यों चाहा प्रश्नों का उत्तर

शाश्वत सत्य समझते हुए

नव पथ के लिए त्यागा वैभव

निज कर्तव्य भटकते हुए

कुटिल रात्रि के बाद खिली हूँ

ऐसी भोर सुहानी हूँ …….2

 

हाँ मैं यशोधरा हूँ

एक रानी हूँ

 

क्या दोष था राहुल का

जो तुमने उसको त्याग दिया

उसके कोमल मन में तुमने

कैसा वज्राघात किया

पितृ सुख और प्रेम ना देकर

तुमने क्यों अवसाद दिया

क्या कोई अक्षम्य भूल थी

जिसका यह प्रतिसाद किया

ना जग समझा ना मैं समझी

ऐसी अमिट कहानी हूँ…3

 

हाँ मैं यशोधरा हूँ

एक रानी हूँ

 

हाँ सोचो ऐसा मैं करती

क्या संसार समझ पाता

सामाजिक आक्षेपों से क्या

आँचल मेरा बच पाता

दोषों पर दोषों से मेरा

नाम कलंकित हो जाता

नारी के आदर्शों का भी

खंडन मंडन हो जाता

छली गई हूँ एक ज्ञानी से

ऐसी मैं अज्ञानी हूँ….  4

 

हाँ मैं यशोधरा हूँ

एक रानी हूँ

 

सिद्धार्थ जी के मन में तीन प्रश्न थे कि जन्म क्यों होता है? बुढ़ापा क्यों होता है और मृत्यु क्या होती है? यह तीनों प्रश्न वास्तव में प्रकृति से जुड़े हुए थे और मनुष्य के जीवन में हो रही घटनाओं से इनको जोड़ा जा सकता है। इन प्रश्नों का उत्तर सिद्धार्थ के लिए गए निर्णय से हो गया और यशोधरा ने अपने अनुभव के आधार पर यह उत्तर दिया कि राहुल का जन्म एक प्राकृतिक तथ्य है, पिता शुद्धोधन को सिद्धार्थ के वनवास से जो दारण दुख हुआ वही वास्तव में उनका बुढ़ापा है। मनुष्य के जीवन में जब जीने की कोई चाह ना बचे तब वह वृद्धावस्था का ही द्योतक होता है अन्यथा आदमी कितना भी वृद्ध हो जाए यदि उसका मन युवा है तो वह युवा ही रहता है। तीसरा प्रश्न यशोधरा का स्वयं का जीते जी मर जाना क्योंकि सिद्धार्थ के जाने के बाद युवावस्था में हुए इस घटनाक्रम से उनके जीवन में कुछ भी शेष नहीं रहा। उनका सब कुछ सिद्धार्थ के होने पर ही था और जब वही चले गए तो वह महल वह विलास की वस्तु उनके लिए महत्वहीन थी। एक नारी के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यही है कि उसे अपने पति के सानिध्य में जीवन बिताने का अवसर प्राप्त हो यद्यपि सिद्धार्थ ने स्वयं के प्रश्नों के हल के लिए घर छोड़ा था किंतु उससे यशोधरा, राहुल और शुद्धोधन ही नहीं बल्कि पूरा साम्राज्य प्रभावित हुआ और एक परिवार में अनिश्चय की स्थिति निर्मित हुई। सिद्धार्थ अपने प्रश्नों का उत्तर तो पा सके किंतु राहुल यशोधरा और शुद्धोधन जो उन पर आश्रित थे उनके जीवन में आए झंझावात से उत्पन्न प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सके और अंततोगत्वा राहुल, यशोधरा और शुद्धोधन ने भी सन्यास धारण कर लिया। इस पूरे घटनाक्रम में यशोधरा के जीवन से सिद्धार्थ के तीन प्रश्नों का उत्तर रचना के अंतिम बंद में लिखने का प्रयास किया है –

हाँ मैं यशोधरा हूँ

एक रानी हूँ

हाँ उन प्रश्नों का उत्तर

 

आज तुम्हें मैं देती हूँ

कर सको यदि सहन तुम

अपना अनुभव कहती हूँ

दाम्पत्य सुख से जन्मा राहुल

यह प्रथम प्रश्न का पक्ष हुआ

आहत शुद्धोधन के मन से

द्वितीय प्रश्न भी दक्ष हुआ

मरण हुआ जीते जी मेरा

मैं तीसरी प्रश्न कहानी हूँ

 

हाँ मैं यशोधरा हूँ

एक रानी हूँ

 

© श्री आलोक पाठक

693, भालदारपुरा, जबलपुर – 482 002 मो-  98273 58121

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 24 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 24 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 24) ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 24☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

गालों पर लुढ़कता पानी

हमेशा आंसू नही होते..

ये वो लफ्ज़ होते हैं, जिन्हें

कागज नसीब नहीं होता..

 

Water rolling down the cheeks

is  not  always  the tears…

These  are  the words which

aren’t destined to be on paper

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

कई  मुद्दतों  बाद

देखा है तुझको आज…

कहीं  दिन  गुज़र  न

जाए इसी ख्याल में…!

 

Happened to see you 

after a long time, today

hope the day doesn’t pass

away in this thought only

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

उनके दीदार के लिए तरसता  है,

उनके  इंतजार  में  तड़पता  है…

क्या कहें इस कम्बख्त दिल को,

अपना होकर और के लिए धड़कता है

 

Keeps longing for her glimpse,

Keeps  wriggling  in  her wait

What  to  say  of my wretched

heart  that  beats  for  others…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

अपने किरदार  की  हिफाज़त,

अपनी जान से बढ़कर कीजिये

क्योंकि  ज़िन्दगी  के  बाद भी

इसे हमेशा याद किया जाता है…

 

Always protect your image,

Even  more  than  your  life

Because, character is often

Remembered after the death

 

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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