हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #253 – 138 – “राब्ता है उन से दिल मुझसे लगाते हैं…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल राब्ता है उन से दिल मुझसे लगाते हैं…” ।)

? ग़ज़ल # 138 – “राब्ता है उन से दिल मुझसे लगाते हैं…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

चाय पीने को  कलारी में  बुलाते हैं,

ये क्यों मेरी ज़ब्त को आजमाते हैं।

*

वो वस्ल का ख़्वाब दिखलाते रहे मुझे,

राब्ता है उन से दिल मुझसे लगाते हैं।

*

मौलवी की कोशिश यह रही हमेशा ही,

वो खुदा के नाम पर झगड़ा कराते हैं।

*

बैर ज़िंदा रखते हैं नाम पर मज़हब के,

फ़ेसबुक पर दुश्मनी का मंत्र बताते हैं।

*

आतिश सभालो भभकती हो शमा जब भी,

आग भड़का  वो तुम्हारा   घर जलाते हैं।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 131 ☆ गीत – ॥ अहम वाणी व्यवहार से रिश्तों के किले ढह जाते हैं ॥ ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 131 ☆

☆ गीत ॥ अहम वाणी व्यवहार से रिश्तों के किले ढह जाते हैं ॥ ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

अहम वाणी व्यवहार से रिश्तों के किले ढह जाते हैं।

लेकिन आपके ही  मीठे बोल से सारे शिकवे बह जाते हैं।।

******

अपनों के साथ सही गलत का भेद नहीं खोलना चाहिए।

रिश्तों में कटुता बचाने के लिए दिल  से बोलना चाहिए।।

उनके रिश्ते कभी नहीं टूटते संबंधों में कुछ  सह जाते हैं।

अहम वाणी व्यवहार से रिश्तों के किले ढह जाते हैं।।

******

नई सुबह नई उमंग के साथ   रिश्तों में नई ऊर्जा लाईए।

रिश्तों को धीरे – धीरे मरने से   आप खुद ही   बचाईए।।

जिन रिश्तों में अपनत्व स्नेह प्रेम वह सदैव वैसे रह पाते हैं।

अहम वाणी व्यवहार से रिश्तों के किले ढह जाते हैं।।

*****

नई कहानी नई रवानी बदलता है रिश्तों का रुप स्वरूप।

स्वार्थ से दूर आपसी अपनेपन से रिश्ते निभते अभूतपूर्व।।

वास्तविक रिश्तों में मौन से भी बहुत कुछ कह पाते हैं।

अहम वाणी व्यवहार से रिश्तों के किले ढह जाते हैं।।

****

जब हमारा मन साफ होता तो हमारी वाणी शुद्ध होती है।

मन मस्तिष्क में नफरत तो बोली भी अशुद्ध      होती है।।

नाराजगी दूर करते ही हमारे रिश्ते फिर से चहचहातें हैं।

अहम वाणी व्यवहार से रिश्तों के किले ढह जाते हैं।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 195 ☆ आत्मचिंतन से विमुख ये आज का संसार ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित – “आत्मचिंतन से विमुख ये आज का संसार। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा # 195 ☆ आत्मचिंतन से विमुख ये आज का संसार ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

मै कौन हूं आया कहां से और है जाना कहाँ?

इन सरल प्रश्नों के उत्तर कठिन है पाना यहां ।

 *

आदमी उलझा है बहुत जाति  के व्यवहार में

लाभ-हानि की जोड़-बाकी में फँसा बाजार में ।

 *

है कहाँ सुधी आप की  , मन में भरी है कामना

स्नेह और सद्भाव कम है द्वेष की है भावना ।

 *

दृष्टि ओछी आज की है कल की न परवाह है

व्यर्थ ही अभिमान है सुनता न कोई सलाह है।

 *

चाह उसकी सदा होती स्वार्थ औ सम्मान की

है कहाँ अवकाश इतना सोचे आत्म ज्ञान की ।

 *

खुद से शायद कम है उसको धन के ज्यादा प्यार है

इसी से आत्म अध्ययन को न कोई तैयार है।

 *

ध्यान मन में आत्म सुख है और निज परिवार है

आत्मचिन्तन से विमुख  आजकल संसार है।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #22 – ग़ज़ल – जान लेती हैं हमारी ये अदाएँ तेरी… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम – ग़ज़ल – जान लेती हैं हमारी ये अदाएँ तेरी

? रचना संसार # 22 – ग़ज़ल – जान लेती हैं हमारी ये अदाएँ तेरी…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

नफ़रतों के ये नजारे  नहीं अच्छे लगते

खून से लिपटे हमारे नहीं अच्छे  लगते

कद्र -जो मात- पिता की न किया करते हैं

अपने ऐसे भी दुलारे नहीं अच्छे लगते

 *

जान लेती हैं हमारी ये अदाएँ तेरी

यूँ सर -ए बज़्म इशारे नहीं अच्छे लगते

 *

जिनमें ज़हरीले से दाँतों की रिहाइश हो बस

साँप के ऐसे पिटारे नहीं अच्छे लगते

 *

होश खोकर जो ज़मीं पर ही गिरा करते हैं

टूटते हमको ये तारे नहीं अच्छे लगते

 *

जो यकायक ही सियासत में निकल आते हैं

इंतेख़ाबों के वो नारे नहीं अच्छे लगते

सादगी भी तो  कभी दिल है लुभाती मीना

हर घड़ी चाँद सितारे नहीं अच्छे लगते

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #250 ☆ भावना के दोहे – किताब ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे – किताब)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 250 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – किताब  ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

लिखती हूंँ मैं आज ही, तुझ पर एक किताब।

मुझे मिलेगा एक दिन, जिंदगी का खिताब।।

*

देखा तेरा चेहरा, लगा लिया अंदाज।

वो किताब अब तो नहीं, पढ़ ना पाए आज।।

*

किताबों को पढ़कर ही, मिले हमें संस्कार।

हमें उतरना चाहिए, अपने ही व्यवहार।।

*

देखो कैसे बोलती, जिंदगी की किताब।

सुख दुख सारे खोलती, देती यही हिसाब।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #232 ☆ दो मुक्तक – ऑनलाइन ठगी… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है दो मुक्तक – ऑनलाइन ठगी आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 231 ☆

☆ दो मुक्तक – ऑनलाइन ठगी ☆ श्री संतोष नेमा ☆

आम लोगों का मति भ्रम भारी है

ऑनलाइन ठगी का क्रम जारी है

रोज अपनाते हैं तरीके  नए-नए

ठगने  का नया उपक्रम  जारी है

*

खबरें    अखबारों   में   बेशुमार  हैं

फिर भी ठगी के अनेको  शिकार हैं

जरा स्वयं जागरूक बनिए साहिब

यहां  ठगने  वालों  की  भरमार  है

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ खुबसूरत बाप्पा का रूप… ☆ सौ. वृंदा गंभीर ☆

सौ. वृंदा गंभीर

☆ कविता – खुबसूरत बाप्पा का रूप… ☆ सौ. वृंदा गंभीर ☆

बाप्पा जा रहे हैं तो क्या हुआ

रास्ता लंबा है तो क्या हुआ

बाप्पा तो दिल में बसे हैं

अगले साल बाप्पा आने वाले हैं

 *

बाप्पा भगवान जरूर हैं

मगर दोस्त जैसे लगते हैं

जो मांगो दिल से दे जाते हैं 

भक्ति भाव देखकर लौट आते हैं

*

विघ्नहर्ता मंगलमूर्ती हैं

सब विघ्न का निवारण  करते हैं

बाप्पा बहोत प्यारे हैं

सब के वो दुलारे हैं

*  

विष्णू जी का बाल रूप हैं

 अग्र स्थान में विराजमान हैं

 रिद्धी सिद्ध उनकी दासी हैं

 पार्वती माँ के लाडले हैं

 *

गजमस्तक धारण किया हैं

प्यारा सा रूप दिल को भाता है

माथे पे माणिक हैं अंगुठी में पांचों हैं

बाप्पा हमारे बहुत प्यारे हैं

 – दत्तकन्या

© सौ. वृंदा गंभीर

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – समुच्चय ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – समुच्चय ? ?

रोज निद्रा तजना,

रोज नया हो जाना,

भोगा दुख

अतीत में समाना,

शरीर छूटने का भय

सचमुच विस्मय है;

मनुष्य का सारा देहकाल

अनगिनत मृत्यु और

असंख्य जीवन का

समुच्चय है।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️💥 श्रीगणेश साधना आज सम्पन्न हुई। पितृ पक्ष में पटल पर छुट्टी रहेगी।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 214 ☆ जब बढ़ जाता शोभाधन… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “जब बढ़ जाता शोभाधन। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 213 ☆ जब बढ़ जाता शोभाधन

जीवन एक जैसा चलता रहे तो रोचकता खत्म हो जाती है, उतार- चढ़ाव होने चाहिए। जितने लोग उतनी कहानियाँ, इन सबमें असफलता, संघर्ष, परिश्रम, धन का अभाव, बाधाएँ ये सब बहुतायात में थे पर उन्होंने इसको सीढ़ी बना सर्वोच्च शिखर प्राप्त किया।

बिना परीक्षा आप नर्सरी की कक्षा तक पास नहीं कर सकते तो जीवन में सफल होने के लिए, प्रेरक बनने के लिए परीक्षाएँ तो देनी ही होगी। स्तर बढ़ने के साथ प्रश्न पत्र कठिन होता जाएगा। जितनी मेहनत उतना अच्छा परिणाम मिलेगा। तारीफ विजेता की होगी जिसका अनुभव आप कर सकते हैं क्योंकि अथक श्रम जो किया है। इस सम्बंध में एक छोटी सी कहानी याद आती है-

दो सहेलियाँ, स्वभाव एकदम विपरीत एक हमेशा अपनी स्थिति का रोना रोती रहती तो दूसरी हमेशा मुस्कुराते हुए कार्य करती। एक दिन दोनों गणेश जी की झाँकी देखने अपनी स्कूटी से गयीं, रास्ते में बहुत जाम लगा था जिसे देख पीछे की सीट में बैठी सहेली ने कहा गाड़ी सुरक्षित जगह पर खड़ी कर देते हैं, पैदल चलेंगे, इतनी भीड़ में गाड़ी से जाना मुश्किल है। आगे बैठी सहेली ने कहा आज पहली बार तुमने सही बात कही, जब भी कोई कठिन दौर हो और रास्ता न सूझे तो थोड़े परिवर्तन के साथ धीरे- धीरे ही सही पर चलना अवश्य चाहिए। उन लोगों ने गाड़ी एक दुकान के सामने खड़ी की और हाथों में हाथ डाले चल दी झाँकी देखने।

सच्चे मन से जो भी प्रयास किये जाते हैं वो अवश्य पूरे होते हैं। यही बात रिश्तों के संदर्भ में भी कारगर है, आप अपनी अपेक्षाओं को कम कर दें तो ऐसी कोई ताकत नहीं है जो आपकी जीत में बाधक बनें। कहते हैं ताली एक हाथ से नहीं बजती ये बात नकारात्मक लोगों के लिए सही हो सकती है पर सकारात्मक चिन्तन करने वाले तो व्यक्ति के भावों को पढ़कर ही महसूस कर लेते हैं कि सामने वाला क्या चाहता है। जब भी ऐसी स्थिति हो कि माहौल बिगड़ने वाला है तो चुपचाप मुस्कुराकर ऐसे बन जाएं जैसे जो हुआ वो अच्छा था और जो होगा वो इससे भी अच्छा होगा बस अपने आप सब ठीक हो जायेगा।

इसे प्राकृतिक चमत्कार मान सकते हैं मुस्कान का, यही रिश्तों को जीवित रखता है भले ही एक व्यक्ति का प्रयास क्यों न हो।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ सीखा मैंने… ☆ डॉ प्रेरणा उबाळे ☆

डॉ प्रेरणा उबाळे

☆ कविता – सीखा मैंने…  ☆  डॉ प्रेरणा उबाळे 

संवरना सीखा

संभलना सीखा

गिराए कोई

उठना सीखा

 

घुप्प अंधेरे में

जुगनू से

राह खोजना सीखा

काले समंदर के

सफेद मोतियों से

माला पिरोना सीखा l

 

उड़नतश्तरी से

प्यारी हमारी कश्ती 

कश्ती को

तूफान में

चलाना सीखा

 

हवा के साथ

रंगीनियों में

किसी को जब

उड़ते देखा l

ठोकरों के साथ

सीधे रास्ते पर

किसी को जब

चलते हुए भी देखा

इसीलिए हमने

जमीन से

नाता जोड़ना सीखा

गहराई में

गोता लगाना सीखा

ज्ञानसागर में

डूबना सीखा

भवसागर में

तैरना सीखा 

 

हृदय के शूल को

सहकर

गोकुल के कान्हा-सा

प्रेम बाँटना सीखा

दुनिया की हँसी को

पचाकर

मथुरा के श्रीकृष्ण-सा

सुदर्शन चलाना सीखा  

 

संवरना सीखा

संभलना सीखा

गिराए कोई

उठना सीखा l

■□■□■

© डॉ प्रेरणा उबाळे

12 सितंबर 2024

सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभागाध्यक्षा, मॉडर्न कला, विज्ञान और वाणिज्य महाविद्यालय (स्वायत्त), शिवाजीनगर,  पुणे ०५

संपर्क – 7028525378 / [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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