हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 67 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 67 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

बढ़ता जब अँधियार है,

दीपक होता दीप्त।

समरसता सँग प्रेम का,

करता भाव प्रदीप्त।।

 

द्वार-द्वार पर सज रहे,

दीवाली के दीप।

चौक पुरतीं बेटियाँ

आँगन गोबर लीप।।

 

दीवाली का अर्थ है,

मन में भरो उजास।

करिए शुभ की कामना,

रखिए शुभ की आस।।

 

मन में हो सौहार्द यदि,

लेंगे हिरदय जीत।

प्रेम भाव से भेंटिए,

शत्रु बनेंगे मीत।।

 

जगमग होती हर गली,

फैल रहा आलोक।

करिए ऐसी कामना,

मिटें हृदय के शोक।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 58 ☆ मानवता की पीर लिखूँगा ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण रचना  “मानवता की पीर लिखूँगा। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 58☆

☆ मानवता की पीर लिखूँगा ☆

खुद अपनी तकदीर लिखूँगा

मानवता की पीर लिखूँगा

 

रंजो-गम जो कह ना पाए

अपनों से कभी लड़ न पाए

हलातों से उलझी हुई मैं

मन की टूटी धीर लिखूंगा

मानवता की पीर लिखूँगा

 

कैसे सिसकीं मेरी आँखें

अरमानों की उठी बरातें

मन के कोने में बैठा वह

कहता अब जागीर लिखूँगा

मानवता की पीर लिखूँगा

 

कोरोना से डर कर बैठे

सच्चाई से जबरन ऐंठे

समझ सके न झूठ की फितरत

कैसे मैं रणवीर लिखूँगा

मानवता की पीर लिखूँगा

 

बे-कामी अरु बेरुजगारी

युवकों की बढ़ती लाचारी

भ्रमित हो रही नई पीढ़ी

क्या उनकी तदवीर लिखूँगा

मानवता की पीर लिखूँगा

 

खतरे में नारी की अश्मिता

दुस्साशन की बढ़ी दुष्टता

कृष्णा कौन बचाने आये

कैसे हरते चीर लिखूँगा

मानवता की पीर लिखूँगा

 

भ्रष्टाचार गले तक पहुँचा

जिसने चाहा उसने नोंचा

“संतोष” कब तक चुप रहेगा

साहस से शमशीर लिखूँगा

मानवता की पीर लिखूँगा

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ शब्द- दर-शब्द ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ शब्द- दर-शब्द ☆

 

शब्दों के ढेर सरीखे

रखे हैं, काया के

कई चोले मेरे सम्मुख,

यह पहनूँ, वो उतारूँ

इसे रखूँ , उसे संवारूँ..?

 

तुम ढूँढ़ते रहना

चोले का इतिहास

या तलाशना व्याकरण,

परिभाषित करना

चाहे अनुशासित,

अपभ्रंश कहना

या परिष्कृत,

शुद्ध या सम्मिश्रित,

कितना ही घेरना

तलवार चलाना,

ख़त्म नहीं कर पाओगे

शब्दों में छिपा मेरा अस्तित्व!

 

मेरा वर्तमान चोला

खींच पाए अगर,

तब भी-

हर दूसरे शब्द में,

मैं रहूँगा..,

फिर तीसरे, चौथे,

चार सौवें, चालीस हज़ारवें और असंख्य शब्दों में

बसकर महाकाव्य कहूँगा..,

 

हाँ, अगर कभी

प्रयत्नपूर्वक

घोंट पाए गला

मेरे शब्द का,

मत मनाना उत्सव

मत करना तुमुल निनाद,

गूँजेगा मौन मेरा

मेरे शब्दों के बाद..,

 

शापित अश्वत्थामा नहीं

शाश्वत सारस्वत हूँ मैं,

अमृत बन अनुभूति में रहूँगा

शब्द- दर-शब्द बहूँगा..,

 

मेरे शब्दों के सहारे

जब कभी मुझे

श्रद्धांजलि देना चाहोगे,

झिलमिलाने लगेंगे शब्द मेरे

आयोजन की धारा बदल देंगे,

तुम नाचोगे, हर्ष मनाओगे

भूलकर शोकसभा

मेरे नये जन्म की

बधाइयाँ गाओगे..!

 

©  संजय भारद्वाज 

( कविता संग्रह ‘मैं नहीं लिखता कविता।’)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 47 ☆ गीत – सकल सृष्टि में जीवन भरते ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक गीत “सकल सृष्टि में जीवन भरते .)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 47 ☆

☆ गीत – सकल सृष्टि में जीवन भरते ☆ 

पश्चिम में सूरज जी छिपते

पूरब में चंदा जी उगते।।

दोनों का वंदन – अभिनंदन

सकल सृष्टि में जीवन भरते।।

 

निशा बढ़ी ज्यों धीरे- धीरे

चंदा का बिखरा उजियारा

तारों की झालर वे लेकर

दिखा रहे छवियों को प्यारा।।

 

शरद पूर्णिमा वंदित- नंदित

हर्षित मन में पुष्प बरसते।।

सकल सृष्टि में  जीवन भरते।।

 

शीतल रात हुई नभ शोभित

दमक रहा हर झिलमिल कोना

प्रियतम बंशी ले मुस्काएँ

रास रचाएँ सोना- सोना।।

 

हर गोरी की प्यास बुझ रही

कामदेव के अहमा मरते।

सकल सृष्टि में जीवन भरते।।

 

खूब नहाए हम जी भरकर

अनुपम छटा गीत है गाती

मौन हो गईं सभी दिशाएँ

शशि की सोलह कला सुहातीं।।

 

पूरी धरती धवल हो गई

चंदा के नए रूप उभरते।

सकल सृष्टि में जीवन भरते।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ करवा चौथ और महंगाई ☆ सुश्री हरप्रीत कौर

सुश्री हरप्रीत कौर

(आज प्रस्तुत है  सुश्री हरप्रीत कौर जी  की एक समसामयिक भावप्रवण कविता  “करवा चौथ और महंगाई”।)   

☆ कविता ☆ करवा चौथ और महंगाई

कृष्ण पक्ष की चौथ,

करवे से देती चाँद को अर्ध्य

करती पति की दीर्घायु

होने की कामना,

सुहाग बना रहे

बस यही भावना.

 

सजना के लिए

करती साज सिंगार,

षोडशी की तरह दमकता रूप,

उपहार, होता बस प्यार

जताने का बहाना

होती यूं लालायित

मानो मिलेगा संसार.

उधर,

पिया जी हैं असमंजस में,

मिलती है आधी पगार

महामारी की है मार.

बाजारों में रौनक छाई है,

उत्सवों की अंगड़ाई है.

क्या, कैसे खरीद लूँ

जो “प्रिया” के मन

को भाए,

कुछ समझ ना आए.

तोहफा तो नहीं

जो जमा पूंजी है पास मेरे

वह सब दे दूँगा,

जो उतने में आये ले आना

साफ कह दूँगा.

अरमान कैसे करेगी पूरे

मेरे पास पैसे हैं थोड़े.

 

कलाइयों में चूड़ियाँ सजानी हैं,

हाथों में मेंहदी भी रचानी है,

पूजा के लिए साड़ी

नयी होनी चाहिए.

 

साजन के मन की बातों से

अंजान नहीं थी सजनी

वो भी झेल रही थी

महँगाई की मार.

 

कह दी उसने

दिल की बात,

चाँद के साथ देख

मुख तेरा,

तेरे करों से करूँ

जल-भोजन ग्रहण

हो जाए जीवन

मेरा सफल

 

बस यही तुम्हारा प्रेम

है मेरा उपहार.

 

©  सुश्री हरप्रीत कौर

ई मेल [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 69 – अभी हम आधे पौने हैं……. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना  अभी हम आधे पौने हैं…….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 69 ☆

☆ अभी हम आधे पौने हैं…….☆  

 

हम चाबी से चलने वाले, मात्र खिलौने हैं

बाहर से हैं भव्य, किन्तु अंदर से बौने हैं।

 

बाहर से हैं भव्य, किन्तु अंदर से बौने हैं।

बीच फसल के, पनप रहे हम खरपतवारों से

पहिन मुखौटे लगा लिए हैं, चित्र दीवारों पे

भीतर से भेड़िये, किन्तु बाहर मृगछौने हैं।….

 

नकली मुस्कानें और मीठे बोल रटे हमने

सभा समूहों में, नीति के जाप लगे जपने

हम सांचों में ढले, बिकाऊ पत्तल दोने हैं।…..

 

शिलान्यास-उदघाटन-भाषण, राशन की बातें

दिन में उजले काम, कुकर्मों में बीते रातें

कर के नमक हरामी, कहते फिरें अलोने हैं…..

 

कई योजनाएं हमने, गुपचुप उदरस्थ करी

भेड़ों के बहुमत से, तबियत रहती हरी-भरी

बातें शुचिता की, नोटों के बिछे बिछौने हैं।….

 

इत्र-फुलेल सुवासित जल से,तन को साफ किया

मन मलिन ही रहा, न इसका चिंतन कभी किया

दिखें सुशिक्षित-शिष्ट,नियत से निपट घिनोने हैं..…

 

बाहर – बाहर जाप, पाप भीतर में सदा किया

चतुराई से दोहरा जीवन, सब के बीच जिया

फिर भी पूरे नहीं, अभी हम आधे-पौने हैं।……

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ लिप्सा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ लिप्सा ☆

राजाओं ने

अपने शिल्प

बनवाये,

अपने चेहरे वाले

सिक्के ढलवाये,

कुछ ने

अपनी श्वासहीन देह

रसायन में लपेटकर

पिरामिड बनाने की

आज्ञा करवाई,

कुछ ने

जीते-जी

भव्य समाधि

की व्यवस्था लगवाई,

काल के साथ

तरीके बदले

आदमी वही रहा,

अब आदमी

अपने ही पुतले,

बनवा रहा है

खुद ही अनावरण

कर रहा है,

वॉट्स एप से लेकर

फेसबुक, इंस्टाग्राम,

ट्विटर पर आ रहा है,

अपनी तस्वीरों से

सोशल मीडिया

हैंग करा रहा है,

प्रवृत्ति बदलती नहीं है,

मर्त्यलोक के आदमी की

अमर होने की लिप्सा

कभी मरती नहीं है!

 

©  संजय भारद्वाज 

11:43, 4.10.2018

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 20 ☆ खुशियों का झरना ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता खुशियों का झरना) 

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 20 ☆ खुशियों का झरना 

 

कभी खुशियों के झरनों की चाहत नहीं थी मुझे,

मुझे तो बस एक शीतल ओस की बूंद की दरकार थी ||

 

कभी खुशियों के खजाने की चाहत नहीं थी मुझे,

मुझे तो बस मोतियों सी रिश्तों की माला की दरकार थी ||

 

कभी खुशियों के समुन्द्र की चाहत नहीं थी मुझे,

मुझे तो बस मीठे पानी की झील सी जिंदगी की दरकार थी ||

 

कभी फूलों की बगिया की चाहत नहीं थी मुझे,

मुझे तो बस कांटों भरी जिंदगी में एक गुलाब की दरकार थी ||

 

जिंदगी हर हाल खुशनुमा हो ऐसी चाहत नहीं थी मुझे,

मुझे तो बस ग़मों भरी जिंदगी में एक ख़ुशी की दरकार थी ||

 

कभी आकाश छू लेने की जीवन में चाहत नहीं थी मुझे,

मुझे तो बस अपने पैर जमीं पर रहे बस यही दरकार थी ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – अष्टदशोऽध्याय: अध्याय (38) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय 18  

(सन्यास   योग)

(तीनों गुणों के अनुसार ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि, धृति और सुख के पृथक-पृथक भेद)

 

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्‌।

परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्‌॥

इंद्रिय के संयोग से ,जो लगता सुख धाम

किंतु अंत में विष सा जो, उसका राजस नाम ।।38।।

 

भावार्थ :  जो सुख विषय और इंद्रियों के संयोग से होता है, वह पहले- भोगकाल में अमृत के तुल्य प्रतीत होने पर भी परिणाम में विष के तुल्य (बल, वीर्य, बुद्धि, धन, उत्साह और परलोक का नाश होने से विषय और इंद्रियों के संयोग से होने वाले सुख को ‘परिणाम में विष के तुल्य’ कहा है) है इसलिए वह सुख राजस कहा गया है॥38॥

 

That pleasure which arises from the contact of the sense-organs with the objects, which is at first like nectar and in the end like poison-that is declared to be Rajasic.

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’  

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

[email protected] मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 56 ☆ ए मैना! ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साbharatiinझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “ए मैना!”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 56 ☆

☆  ए मैना! ☆

आज जब देखा मैंने तुम्हें

शाख पर मस्ती में बैठे हुए

तो तुम्हें देखती ही रह गयी!

 

बताओ न मैना!

क्या करती हो तुम दिन ढले

जब तुमने जी भर कर मेहनत कर ली होती है

और दाने चुग लिए होते हैं?

क्या सोच रही थीं तुम यूँ शाख पर बैठ हुए?

 

न ही तुम्हारे पास कोई मोबाइल है

कि किसी दोस्त से बातें कर लो,

न ही तुम टेलीविज़न पर

नेटफ्लिक्स की कोई फिल्म देखती हो,

न ही चाय पीने के लिए

कोई पड़ोसी ही आते हैं!

 

तुमको ध्यान से देख रही थी

कि तुमको कुछ भी नहीं चाहिए था

खुश रहने के लिए –

तुम्हारी तो फितरत ही है खुश रहने की!

कितनी आज़ाद हो तुम ए मैना!

लॉक डाउन तो अब हुआ है,

पर शायद हम इंसान तो बरसों से क़ैद ही हैं!

 

यह भी सच है

कि आज़ादी के साथ-साथ

तुम्हारे ऊपर ज़िम्मेदारी भी बहुत है!

किसी दिन तुम्हें बुखार आ जाए

फिर भी तुम्हें दाना लेने तो ख़ुद ही जाना होता है, है ना?

 

वैसे शायद यह ज़िम्मेदारी

अच्छी ही होती है,

आखिर तुम किसी पर बोझ तो नहीं बनतीं-

सीख लेती हो कि कैसे लड़ते हैं, जूझते हैं और आगे बढ़ते हैं!

और कैसे जगाते हैं आत्मविश्वास!

 

सच में, ए मैना!

आज बहुत कुछ सिखा गयीं तुम मुझे

जाने-अनजाने में!

 

अब जब भी मैं किसी मन की उथल-पुथल से

गुज़र रही होऊँगी तो देख लूंगी एक बार फिर से तुमको,

हो सकता है मुझे मिल जाए वो परम ख़ुशी

जिसकी चाहत तो हर कोई करता है

पर वो हाथ से फिसलती ही जाती है!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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