श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”
(आज आपके “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद साहित्य “ में प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना – वर्षा ऋतु । )
दो शब्द रचना कार के—-वर्षा ऋतु का आना, बूंदों का बरसना, इस धरा के साथ-साथ उस पर रहने वाले समस्त जीव जगत के तन मन को भिगो जाती है। जब धूप से जलती धरती के सीने पर बरखा की फुहारें पड़ती है तो ये धरा हरियाली की चादर ओढ़े रंग रंगीले परिधानों से सजी दुल्हन जैसी अपने ही निखरे रूप यौवन पर मुग्ध हो उठती है, किसान कृषि कार्यों में मगन हो जाता है। बोये गये बीजों के नवांकुरों की कोंपले, दादुर मोर पपीहे की बोली की तान अनायास ही जीवन में उमंग, उत्साह, उल्लास का वातावरण सृजित कर देते हैं। इन सब के बीच कजरी आल्हा के धुनों पर मानव मन थिरक उठता है, तो वहीं कहीं पर किसी बिरहिणी का मन अपने पिया की याद में आकुल हो उठता है। यह रचना आनंद और पीड़ा के इन्ही पलों का चित्रण करती है।
——— सूबेदार पाण्डेय
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – वर्षा ऋतु ☆
बरखा ऋतु आई उमड़ घुमड़,
बदरा लाई कारें कारें।
तन उल्लसित है मन पुलकित है,
खुशियां छाई द्वारे द्वारे ।
तन भींगा मन भी भींगा,
भींगी धरती भींगा अंबर।
झर झर झरती बूंदों से,
धरती ने ओढ़ा धानी चूनर ।।१।।
वो आती अपार जलराशि ले,
धरती की प्यास बुझाने को।
नदियों संग ताल पोखरों की ,
मानों गागर भर जाने को ।
जब काले मेघा देख मयूरे,
अपना नृत्य दिखाते हैं ।
जल भरते ताल पोखरों में,
दादुर झिंगुर टर्राते हैं ।।२।।
पुरवा चलती जब सनन सनन ,
घहराते बादल घनन घनन ।
गर्मी से मिलती है निजात,
चलती है शीतल सुखद पवन।
घहराते मेघों के उर में,
जब स्वर्ण रेखा खिंच जाती है।
चंचल नटखट बच्ची की तरह,
वह अगले पल छुप जाती है।।३।।
कभी आकर पास मचलती है,
कभी दूर दिखाई देती है।
अपना हाथ पकड़ने का,
आमंत्रण मानों देती है।
वह खेल खेलती लुका छुपी का,
दिखती चंचल बाला सी है।
घहराती है नभमंडल में,
धरती पर आती ज्वाला सी है।।४।।
कभी दौड़ती तीर्यक तीर्यक ,(टेढे़ मेढ़े)
दिखती है बलखाती सी।
कभी घूमती लहराती,
नर्तकी की नाच दिखाती सी।
कभी कड़कती घन मंडल में,
मन हृदय चीर जाती है।
कभी बज्र का रुप पकड़,
सब तहस नहस कर जाती है।।५।।
जब बरखा ऋतु आती है
त्योहारों के मौसम लाती है।
बालिका वधू संग सब सखियां,
गीत खुशी के गाती है ।
बाग बगीचों अमराई में,
डालों पर झूले पड़ते हैं ।
ढोल नगाड़े बजते हैं,
त्योहारों के मेले सजते हैं। ।६।।
कजरी के गीतों से वधुएं,
कजरी तीज मनाती हैं।
जब बरखा ऋतु आती है,
बिरहिणी में बिरह जगाती हैं ।
कोयल पपीहे की बोली,
जिया में हूक उठाती है ।
चौपालों में उठती आल्हा की धुन,
तन मन में जोश जगाती हैं ।।७।।
© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”
संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208
मोबा—6387407266