हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ चुप्पियाँ -12 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ चुप्पियाँ – 12 ☆

मेरे शब्द

चुराने आए थे वे,

चुप्पी की मेरी

अकूत संपदा देखकर

मुँह खुला का खुला

रह गया…..,

समर्पण में

बदल गया आक्रमण,

मेरी चुप्पी में

कुछ और पात्रों का

समावेश हो गया!

# दो गज़ की दूरी, है बहुत ज़रूरी।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(प्रातः 8:07 बजे, 2.9.18)
(कविता-संग्रह *चुप्पियाँ* से)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ आई कांट ब्रीथ ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार

डॉ प्रतिभा मुदलियार

(डॉ प्रतिभा मुदलियार जी का अध्यापन के क्षेत्र में 25 वर्षों का अनुभव है । वर्तमान में प्रो एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय। पूर्व में  हांकुक युनिर्वसिटी ऑफ फोरन स्टडिज, साउथ कोरिया में वर्ष 2005 से 2008 तक अतिथि हिंदी प्रोफेसर के रूप में कार्यरत। कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत।  इसके पूर्व कि मुझसे कुछ छूट जाए आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया डॉ प्रतिभा मुदलियार जी की साहित्यिक यात्रा की जानकारी के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें –

जीवन परिचय – डॉ प्रतिभा मुदलियार

आज प्रस्तुत है डॉ प्रतिभा जी की एक समसामयिक कविता  आई कांट ब्रीथ।  यह कविता इस बात का प्रतीक है कि मानवीय संवेदनाएं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आहत हुई हैं । जॉर्ज फ्लॉयड  एक प्रतीक हैं और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रंगभेद, धार्मिक भेदभाव, जातिवाद, नस्लवाद, कट्टरता के विरुद्ध स्वर प्रखर होना स्वाभाविक है और मानवता के हित में साहित्यकार इससे अछूते नहीं हैं। )

☆ आई कांट ब्रीथ ☆

 

नहीं ली जाती है सांस

जब उठ खडे होते हैं

प्रश्न

वर्ण, रंग और व्यक्ति की

पहचान पर।

 

नहीं ली जाती है सांस

जब रौंध दी जाती

व्यवस्था के हांथों

प्रतिरोध में उठी आवाज़।

 

नहीं ली जाती है सांस

जब तोड दिए जाते हैं

पैरों तले

हक के लिए उठे हाथ।

 

नहीं ली जाती है सांस

जब गर्दन पर

कस दिया

जाता है सत्ता का घुटना।

 

नहीं ली जाती है सांस

जब व्यवस्था के बाशिंदे

महज़ कुछ सिक्कों की खातिर

घोटने लगते हैं गला

और तत्पर हो जाते है

अनायास दोहराने

क्रूर और बर्बर

इतिहास।

 

ज़ॉर्ज फ्लायड

तुम्हारी

घुटी सांस के

साथ घुट रही हैं

सांसें सबकी

रच रहा है

वर्तमान

शब्द शिल्प

तुम्हारे जरिए

रचता रहेगा

श्वास लेख

अंटिल वी ब्रीथ

 

©  डॉ प्रतिभा मुदलियार

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी अध्ययन विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय, मानसगंगोत्री, मैसूर 570006

दूरभाषः कार्यालय 0821-419619 निवास- 0821- 2415498, मोबाईल- 09844119370, ईमेल:    [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ऐन सर्दियों में ☆ श्री भगवान् वैद्य ‘प्रखर’

श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’

( श्री भगवान् वैद्य ‘ प्रखर ‘ जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आप हिंदी एवं मराठी भाषा के वरिष्ठ साहित्यकार एवं साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपका संक्षिप्त परिचय ही आपके व्यक्तित्व एवं कृतित्व का परिचायक है।

संक्षिप्त परिचय : 4 व्यंग्य संग्रह, 3 कहानी संग्रह, 2 कविता संग्रह, 2 लघुकथा संग्रह, मराठी से हिन्दी में 6 पुस्तकों तथा 30 कहानियाँ, कुछ लेख, कविताओं का अनुवाद प्रकाशित। हिन्दी की राष्ट्रीय-स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में विविध विधाओं की 1000 से अधिक रचनाएँ प्रकाशित। आकाशवाणी से छह नाटक तथा अनेक रचनाएँ प्रसारित
पुरस्कार-सम्मान : भारत सरकार द्वारा ‘हिंदीतर-भाषी हिन्दी लेखक राष्ट्रीय पुरस्कार’, महाराष्ट्र राजी हिन्दी साहित्य अकादमी, मुंबई द्वारा कहानी संग्रहों पर 2 बार ‘मूषी प्रेमचंद पुरस्कार’, काव्य-संग्रह के लिए ‘संत नामदेव पुरस्कार’ अनुवाद के लिए ‘मामा वारेरकर पुरस्कार’, डॉ राम मनोहर त्रिपाठी फ़ेलोशिप। किताबघर, नई दिल्ली द्वारा लघुकथा के लिए अखिल भारतीय ‘आर्य स्मृति साहित्य सम्मान 2018’

हम आज प्रस्तुत कर रहे हैं श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’ जी  द्वारा सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  की एक भावप्रवण  अप्रतिम मराठी कविता  का अतिसुन्दर हिंदी भावानुवाद ‘ऐन सर्दियों में

☆ ऐन सर्दियों में ☆

भरोसे के इन दरख्तों ने ही

विश्वासघात किया हमारा

ऐन सर्दियों में ।

 

आश्रय नकारना

उन्हें संभव न हुआ

तब उन्होंने ईंटे निकाल लीं

अपने घर की दीवारों की

 

अब खुले में हम

प्रतीक्षा कर रहे हैं

परों के झड़ने की

या किसी शिकारी के मर्मभेदी तीर की ।

 

श्री भगवान् वैद्य ‘प्रखर’ 

30 गुरुछाया कॉलोनी, साईं नगर अमरावती – 444 607

मोबाइल 8971063051

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ अगर प्यार है…. ☆ डॉ सीमा सूरी

डॉ सीमा सूरी

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार , पत्रकार  एवं सामाजिक कार्यकर्ता  डॉ सीमा सूरीजी  का ई-अभिव्यक्ति  में हार्दिक स्वागत हैं। आपकी उपलब्धियां इस सीमित स्थान में उल्लेखित करना संभव नहीं है। आपने कई राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय साहित्यिक मंचों  पर भारत का प्रतिनिधित्व किया है एवं आयोजनों का सफल संचालन भी किया है।  आपकी कई रचनाएँ प्रतिष्ठित राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय पत्र- पत्रिकाओं  में  प्रकाशित हुई हैं । आप कई राष्ट्रीय / अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों / अलंकारों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता अगर प्यार है….। )

☆ अगर प्यार है…. ☆ 

दूरी में क्यो अपनो को प्यार नही जताते लोग

उनके बिना नही जीवन है, क्यो नही बतलाते लोग

ज़रा सी तो बात है फिर भी क्यो छिपाते लोग

न जाने किस बात पे खुद पे यू इतराते लोग

माना समझा करते हैं हम, नही किसी का करते हैं गम

नही कोई उम्मीद लगाते, नही किसी का किया भुलाते

पर कह देना और जताना, ऐसे में ही अच्छा लगता है

दूर हैं सब जब ,समय बहुत है

हर रिश्ता सपना लगता है

क्या घट जाएगा उनका जो

थोड़ा सा प्यार जता दे तो

उनको भी तो फिक्र हमारी

बस इतना बतला दें वो

हर रिश्ता, बस प्यार मांगता

और थोड़ा सा यह अहसास

दूर भले है, फिर भी अपना, सदा रहेगा अपने पास

यही समय है कह देने का

अपनो को बतला दो आज

उनसे कितना प्यार तुम्हे है

जल्दी से जतला दो आज

कोई फर्क न पड़ता इस से, बल्कि और निखरता है

वो रिश्ता जो हर प्यारे से केवल प्यार ही करता है।

मन मे रख कर मत बांधो तुम

अपने प्रेम खजाने को

जितना बाँट दो, उतना बढ़ता

इस प्रेम को बढ़ जाने दो

 

©  डॉ सीमा सूरी

प्लाट नम्बर 70 ,प्रताप नगर जेल रोड ,नई दिल्ली 11 00 64

दूरभाष :84477 41053, 9958331143

 

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 2 – परिंदो का आसमान ☆ – श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी  अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता परिंदो का आसमान 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 2 – परिंदो का आसमान ☆

  

ऐ परिंदो आसमान में दूर ऊपर कहां तुम जाते हो,

कौन वहां रहता है तुम्हारा, तुम किस से मिलने जाते हो ||

 

सर्दी गर्मी हो या बारिश, हर मौसम में रोज सवेरे जाते हो,

ऐसा वहां क्या करते हो, सब साथ शाम को लौटकर आते हो ||

 

यहां तो असंख्य पेड़ पौधे और तुम्हारा खुद का घरोंदा है,

क्या वहां भी पेड़ पौधे और घरोंदा है जो रोज वहां जाते हो ||

 

सुना है आसमान में स्वर्ग होता है, जो एक बार वहां जाता है,

लौट कर नहीं आता, तुम रोज स्वर्ग से वापिस कैसे आ जाते हो ||

 

मेरा छोटा सा एक काम कर दो, वहां माता-पिता मेरे रहते हैं,

पैर छू कर उनका आशीर्वाद ले आना, रोज जो तुम स्वर्गजाते हो ||

 

या फिर इतना सा कर देना, अदब से पंखों पर अपने उनको बैठा लाना,

एक बार जी भर के मिल लूँ फिर ले जाना, तुम तो रोज स्वर्ग जाते हो ||

 

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 31 ☆ बेटियाँ नित्य नया इतिहास रचा रहीं ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण कविता बेटियाँ नित्य नया इतिहास रचा रहीं। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 31 ☆

☆ बेटियाँ नित्य नया इतिहास रचा रहीं ☆

 

बेटियाँ नित्य नया इतिहास रचा रहीं,

उन्नति के शिखर चढ़, राष्ट्र ध्वज फहरा रहीं.

 

असफलता ,न्यूनता को प़ेम से बुहारती,

ये ऊँची उड़ान की पतंग फहरा रही.

 

बचपन का लाड़-प्यार, रूठना -फूलना,

कर्तव्य-सरोवर में गोते लगा रहीं.

 

पीपल की,बरगद की शीतल -सी छाँहभी हैं

बेटियाँ हैं शेरनी भी, खौफ नहीं खा रहीं.

 

मर -मिट जा रहीं सीमा पै देश की.

शहीदों में नाम बेटियाँ लिखा रहीं.

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 39 ☆ खोज ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “ खोज ”।  यह कविता आपकी पुस्तक एक शमां हरदम जलती है  से उद्धृत है। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 39 ☆

☆ खोज ☆

जाने क्या खोज रही है रूह

कि लेती जाती है जनम पर जनम?

 

क्या कोई तलब है

जो रूह को कलम की नोक सा चलाती है?

या कोई ख्वाहिश है

जो बार-बार उसे आने को मजबूर करती है?

या यह कोई समंदर सी प्यास है

जो पूरा होने को तड़पती है?

या यह कोई अधूरे चाँद का हिस्सा है

जो पुर-नूर होने की आरज़ू रखती है?

या फिर यह कोई तिस्लिम है

जिसमें बेबस हो यह फंसी हुई है?

 

रूह की आज़ादी तो

सारी जुस्तजू ख़त्म होने के बाद शुरू होती है-

तो फिर यह जाने कौनसी दास्ताँ है

जो किसी कसक को रोके रखती है?

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिव्यक्ति # 19 ☆ कविता – सेवानिवृत्ति  ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा।  आज प्रस्तुत है  एक कविता  “सेवानिवृत्ति ”।  अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दीजिये और पसंद आये तो मित्रों से शेयर भी कीजियेगा । अच्छा लगेगा ।)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 19

☆  सेवानिवृत्ति  ☆

 

सेवा

और उससे निवृत्ति

असंभव है।

फिर

कैसी सेवानिवृत्ति?

 

कितना आसान है?

शुष्क जीवन चक्र का

परिभाषित होना

शुभ विवाह

बच्चे का जन्म

बच्चे का लालन पालन

बच्चे की शिक्षा दीक्षा

बच्चे की नौकरी

बच्चे का शुभ विवाह

फिर

बच्चे का जीवन चक्र

जीवन चक्र की पुनरावृत्ति

फिर

हमारी सेवानिवृत्ति।

 

एक कालखंड तक

बच्चे के जीवन चक्र के मूक दर्शक

फिर

सारी सेवाओं से निवृत्ति

महा-सेवानिवृत्ति ।

 

जैसे-जैसे

हम थामते हैं

पुत्र या पौत्र की उँगलियाँ

सिखाने उन्हें चलना

ऐसा लगता है कि

फिसलने लगती हैं

पिताजी की उँगलियों से

हमारी असहाय उँगलियाँ।

 

जब हमारे हाथ उठने लगते हैं

अगली पीढ़ी के सिर पर

देने आशीर्वाद

ऐसा लगता है कि

होने लगते हैं अदृश्य

हमारे सिर के ऊपर से

पिछली पीढ़ी के आशीर्वाद भरे हाथ।

 

इस सारे जीवन चक्र में

इस मशीनी जीवन चक्र में

कहाँ खो गई

वे संवेदनाएं

जो जोड़ कर रखती हैं

रिश्तों के तार ।

 

“हमारे जमाने में ऐसा होता था

हमारे जमाने में वैसा होता था”

 

ये शब्द हर पीढ़ी दोहराती है

और

हर बार अगली पीढ़ी

मन ही मन

इस सच को झुठलाती है।

 

कोई पीढ़ी

जीवन के इस कडवे सच को

कड़वे घूंट की तरह पीती है

तो

कोई पीढ़ी

उसी जीवन के कड़वे सच को

बड़े प्रेम से जीती है।

 

इस सारे जीवन चक्र में

कहीं खो जाती हैं

मानवीय संवेदनाएं

तृप्त या अतृप्त लालसाएं

जो छूट गईं हैं

जीवन की आपाधापी में कहीं।

 

अतः

यह सेवानिवृत्ति नहीं

एक अवसर है

पूर्ण करने

वे मानवीय संवेदनाएं

तृप्त या अतृप्त लालसाएं

कुछ भी ना छूट पाएँ।

 

कुछ भी ना छूट पाये

सारी जीवित-अजीवित पीढ़ियाँ

और

वह भी

जो बस गई है

आपकी हरेक सांस में

आपके सुख दुख की संगिनी

जिसके बिना दोनों का अस्तित्व

है अस्तित्वहीन।

 

सेवा

और उससे निवृत्ति

असंभव है।

फिर

कैसी सेवानिवृत्ति?

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ नेह ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ नेह ☆

मन विदीर्ण हो जाता है

जब कोई

कह-बोल कर

औपचारिक रूप से

बताता-जताता है,

रिश्तों को शाब्दिक

लिबास पहनाता है,

जानता हूँ,

नेह की छटाओं में

होती नहीं एकरसता है

पर मेरी माँ ने कभी नहीं कहा

‘तू मेरे प्राणों में बसता है।’

# दो गज़ की दूरी, है बहुत ज़रूरी।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(संध्या 7:35 बजे, शुक्रवार, 25.5.18)
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
मोबाइल– 9890122603

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 49 – कविता – जीवन है अनमोल धरोहर …….☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी  एक अप्रतिम समसामयिक कविता  “ जीवन है अनमोल धरोहर ……..।  वास्तव में जीवन अनमोल धरोहर है और उसे संभाल कर रखने के लिए सतर्कता  की आवश्यकता है  जिस सन्देश के लिए कविता प्रेरणा स्रोत है।  इस सर्वोत्कृष्ट  रचना के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 49 ☆

☆ कविता  – जीवन है अनमोल धरोहर ……..

 

जीवन है अनमोल धरोहर

इसे संभाले रहना

 

महामारी सा फैल गया

दुष्ट रक्त बीज कोरोना

जीवन है अनमोल धरोहर

इसे संभाले रहना

 

जड़ से इसे मिटाना है अब

भय से नहीं घबराना

स्वछता से रहना घर पर

स्वत नष्ट होगा कोरोना

 

जीवन है अनमोल धरोहर

इसे संभाले रहना

 

सात्विक भोजन बने घर पर

सब उसे प्रेम से खाना

भाव भक्ति में समय बिता

ज्ञान की किताबें पढ़ना

 

जीवन है अनमोल धरोहर

इसे संभाले रहना

 

सुबह-शाम दीपक उजियारा

धूप दीप सुगंधी लगाना

स्व स्वधा के पाठ से

निरोगी होगा भारत अपना

 

जीवन है अनमोल धरोहर

इसे संभाले रहना

 

बच्चे बूढ़ों का ध्यान रखें

प्यार से उनको समझाना

कुछ दिनों की बात है ये

सभी का होगा पूरा सपना

 

जीवन है अनमोल धरोहर

इसे संभाले रहना

 

लगेगी फिर बागों में रौनक

शहनाई बजेगी अंगना

सावन की बूंदे लाएंगी

सुख-शांति का गहना

 

जीवन है अनमोल धरोहर

इसे संभाले रहना।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

Please share your Post !

Shares
image_print