हिन्दी साहित्य – कविता ☆ आत्मनिर्भरता – मेरा सफर ☆ श्री मनीष खरे “शायर अवधी”

श्री मनीष खरे “शायर अवधी”

(ई-अभिव्यक्ति में श्री मनीष खरे “शायर अवधी”जी का हार्दिक स्वागत है। श्री मनीष जी का परिचय उनके ही शब्दों में – “मैंने 300 से अधिक शायरी, गजल, कविताएं लिखीं किन्तु, कभी इस तरह से प्रकाशित करने की कोशिश नहीं की। इस लॉकडाउन में मैंने महसूस किया कि मुझे अपनी इस सोच नुमा चौकोर कमरे से बाहर आना चाहिए और अपनी “अभिव्यक्ति” को अपनी डायरी से बाहर डिजिटल मीडिया में ले जाना चाहिए। मैं ऑटोमोबाइल क्षेत्र के एक प्रसिद्ध संस्थान में मानव संसाधन टीम का सदस्य हूँ। अपने समग्र कैरियर के दौरान  मैं ऐसे कई लोगों से मिला हूँ, जिन्होंने मेरे मस्तिष्क में विभिन्न  संवेदनाओं को जगाने का प्रयास किया है और उनके साथ उनकी भावनाओं को जिया है। मेरी सभी रचनाएँ उन सभी को समर्पित हैं जिन्होंने अब तक मेरे जीवन के विभिन्न पहलुओं को स्पर्श किया है।”  आज प्रस्तुत है आपकी एक  भावप्रवण समसामयिक रचना  “आत्मनिर्भरता – मेरा सफर”।)

☆ कविता  – आत्मनिर्भरता – मेरा सफर 

 

यूँ गरीबी की चटाई मैं उठाये चल पड़ा हूँ

अपने काँधे पे बिठाये मासूमियत मैं चल पड़ा हूँ

जानता ना मानता मैं सुख की अभिलाषा को रत्ती भर

जीतने खुद से खुद की लड़ाई मैं चल पड़ा हूँ

यूँ गरीबी की चटाई ………

तपतपाती धूप में मखमल समझ इस राह को

गर्म करती ये धधकती हवायें इस सिसकती आह को

बन गया मैं आत्मनिर्भर ये समझ ले आसमां

चल पड़ा हूँ मैं बदलने किस्मत बनी उस स्याह को

मीलों की ये कश्मकश अब पंजो से उधेड़ने चल पड़ा हूँ

अपने काँधे पे बिठाये…….

यूँ गरीबी की चटाई………

क्या था जो जीत मैं ले जा रहा था पिंड को

ख्वाहिशे थी ये मेरी जो आ गया इस राह मैं

बन गया था आशियाना ये शहर सपनो का मेरे

देखता हूँ जब भी मैं मासूम उन निगाहों को

बिखरते सपने ये मेरे बूंदो के भाव में

देखी थी ज़िन्दगी मैंने अपनों को लेकर भविष्य की

हैं खड़े जो संग मेरे हर ख़ुशी हर चाह में

लौट वतन अपने मैं मेरे पिंड में कुछ जमाऊंगा

आत्मनिर्भरता का प्रत्यक्ष प्रमाण सबको दिखलाऊंगा

बिखरते सपनो को फिर से संजोने उठ खड़ा हूँ

यूँ गरीबी की चटाई…..

 

© श्री मनीष खरे “शायर अवधी”

पुणे, महाराष्ट्र

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ उत्सव कवितेचा # 7 – झाडांच्या देशात/पेड़ों के देश में (भावानुवाद) ☆ श्रीमति उज्ज्वला केळकर

श्रीमति उज्ज्वला केळकर

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपके कई साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। इसके अतिरिक्त आपने कुछ हिंदी साहित्य का मराठी अनुवाद भी किया है। आप कई पुरस्कारों/अलंकारणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं एवं 6 उपन्यास, 6 लघुकथा संग्रह 14 कथा संग्रह एवं 6 तत्वज्ञान पर प्रकाशित हो चुकी हैं।  हम श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी के हृदय से आभारी हैं कि उन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – उत्सव कवितेचा के माध्यम से अपनी रचनाएँ साझा करने की सहमति प्रदान की है। आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता  ‘झाडांच्या देशातएवं इस मूल कविता का आपके ही द्वारा हिंदी अनुवाद  ‘पेड़ों के देश में’। आप प्रत्येक मंगलवार को श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।)

यह कविता हायकू सदृश्य है। किन्तु, इसे हायकू नहीं कह सकते। यहाँ 3 पंक्तियों की रचना है किन्तु, मात्रा का विचार नहीं किया है। इसे त्रिवेणी या  कणिका कहा जा सकता है। 

–  श्रीमति उज्ज्वला केळकर

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – उत्सव कवितेचा – # 7 ☆ 

☆ झाडांच्या देशात  

(काही हायकू)

झाडांच्या देशात

ऊन पाहुणे आले.

फुलांच्या भेटी देउन गेले.

 

झाडांच्या देशात

पाऊस पाहुणा आला.

भुइच्या घरात जाऊन दडला.

 

झाडांच्या देशात

शिशिर पाहुणा आला.

पाने ओरबाडून पळून गेला.

 

झाडांच्या देशात

पक्षी पाहुणे आले.

वहिवाटीच्या हक्कावरून भांडत सुटले.

 

झाडांच्या देशात

चंद्र पाहुणा आला.

सावल्यांचा खेळ खेळत राहिला.

 

☆ पेड़ों के देश में  

(श्रीमती उज्ज्वला केळकर द्वारा उनकी उपरोक्त कविता का हिंदी भावानुवाद)

 

पेड़ों के देश में

धूप मेहमान आयी

फूलों की भेंट चढ़ाकर चली गई।

 

पेड़ों के देश में

बारिश मेहमान आयी

भूमि के घर जा छिप गयी

 

पेड़ों के देश में

शिशिर मेहमान आया

पत्तों को झिंझोड़ कर भाग गया।

 

पेड़ों के देश में

पंछी मेहमान आये

आवास के अधिकार के लिए झगड़ते रहे।

 

पेड़ों के देश में

चन्द्र मेहमान आया

परछाइयों से खेल खेलता रहा।

 

© श्रीमति उज्ज्वला केळकर

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ याद के संदर्भ में दोहे ☆डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। अपनी  कालजयी रचना याद के संदर्भ में दोहे  को ई- अभिव्यक्ति  के पाठकों के साथ साझा करने के लिए आपका  हृदय से आभार।)

 ✍  याद के संदर्भ में दोहे  ✍

 

याद हमारी आ गई, या कुछ किया प्रयास।

अपना तो यह हाल है, यादें बने लिबास।।

 

फूल तुम्हारी याद के, जीवन का एहसास।

वरना है यह जिंदगी, जंगल का रहवास।।

 

यादों की कंदील ने, इतना दिया उजास।

भूलों के भूगोल ने, बांच लिया इतिहास ।।

 

बादल आकर ले गए, उजली उजली धूप ।

अंधियारे में कौंधते, यादों वाले स्तूप।।

 

सांसो की सरगम बजे, किया किसी ने याद।

शब्दों का है मौन व्रत, कौन करे संवाद ।।

 

यादों के आकाश में, फूले खूब बबूल ।

सांसों की सर फूंद भी, अधर रही है झूल ।।

 

सांसों का संकीर्तन, मिलन क्षणों की याद।

मन-ही-मन से कर रहा, एकाकी संवाद।।

 

© डॉ. राजकुमार सुमित्र

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

9300121702

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 4 – डालियों पर लिखी …. ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है उनका अभिनव गीत  “डालियों पर लिखी ….“ ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 4 – ।। अभिनव गीत ।।

☆ डालियों पर लिखी …. ☆

 

इधर बाहों में कहीं

जैसे सिमट

आपकी यह

आगमनआहट

 

लता को बिछुये

पिन्हाती है

हवा को पछुआ;

बनाती है

 

भागती ही

मिली है सरपट

 

पेड़ जैसे सिर

खुजाते हैं

फूल खुद में

ही लजाते हैं

 

डालियों पर

खिलखिला झटपट

 

खुशबुओं के

बीच में छिपकर

शर्म से कहती

जरा चुप कर

 

लाज से दोहरी

हुई नटखट

 

मुस्कुराकर

शाम से कहती

क्यों नहीं आराम

है करती

 

क्या किसी से

हो गई खटपट

 

डालियों पर

लिखी छन्दो सी

पत्तियों में

ज्यों परिन्दों सी

 

वहीं ठहरी है

जहाँ तलछट

 

बाँसुरी के संग

कन्हाई की

बाँह पकड़े

हुये भाई की

 

छोड़ आई क्यों

दुखी पनघट

 

© राघवेन्द्र तिवारी

23-04-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ निधि की कलम से # 11 ☆ लम्हों की किताब ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता  “लम्हों की किताब ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 11 ☆ 

☆ लम्हों की किताब  ☆

 

लम्हों की किताब में यादों को शब्दों में पिरोकर, कुछ बात मैंने कही हैं,

माँ छूटी मायका छूटा कई रिश्ते जुड़े, एक मजबूत रिश्ता तुम्हारा भी है,

शहर बदले रास्ते बदले दोस्त बदले, कई रास्ते बदलने के बाद,

नये साथ के साथ एक साथ तुम्हारा भी था,

लम्हों की किताब में यादों को शब्दों में पिरोकर, कुछ बात मैंने कही हैं।

 

तिनका तिनका जोड़ा बूंद-बूंद को समेटा,

घर के द्वार खिड़की जोड़ी, मेरे कन्धों के साथ एक कन्धा तुम्हारा भी था,

ख्वाब टूटे, फिर टूटे, नए सपने टूटे फिर जुड़े,

रात में घबरा कर जब उठे, तो एक तकिया तुम्हारा भी था,

लम्हों की किताब में यादों को शब्दों में पिरोकर, कुछ बात मैंने कही हैं।

 

मौसम बदले काले बादल आए,

आँसू झरे डर गई, गमों में डूब गई एक आँसू तुम्हारा भी था,

बेटा आया, फूलों सी मुस्कान लाया,

आँखों में नए ख्वाब नई रोशनी आई, उसमे एक मुस्कान तुम्हारी भी थी,

लम्हों की किताब में यादों को शब्दों में पिरोकर, कुछ बात मैंने कही हैं।

 

बात पुरानी हो गई, किताबों के पन्ने मैले हो गए,

काई पतझड़ सावन आ कर चले गए, जीवन ने समय के साथ मौसम बदले,

फिर भी हम साथ चलते-चलते, लम्हों की किताब बन गई,

 

हर लम्हें का एक-एक पन्ना खुलता गया, उम्र कटती जा रही है,

लम्हों की किताब में यादों को शब्दों में पिरोकर, कुछ बात मैंने कही हैं।

 

©  डॉ निधि जैन, पुणे

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 11 ☆ मुक्तिका/हिंदी ग़ज़ल ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी मुक्तिका/हिंदी ग़ज़ल

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 11 ☆ 

☆ मुक्तिका/हिंदी ग़ज़ल☆ 

 

किस सा किस्सा?, कहे कहानी

गल्प- गप्प हँस कर मनमानी

 

कथ्य कथा है जी भर बाँचो

सुन, कह, समझे बुद्धि सयानी

 

बोध करा दे सत्य-असत का

बोध-कथा जो कहती नानी

 

देते पर उपदेश, न करते

आप आचरण पंडित-ज्ञानी

 

लाल बुझक्कड़ बूझ, न बूझें

कभी पहेली, पर ज़िद ठानी

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ पर्यावरण दिवस विशेष – धरती प्यारी मां ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। पर्यावरण दिवस के अवसर पर आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की एक रचना  धरती प्यारी मां।  यह डॉ मुक्ता जी के  पर्यावरण के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण कविता के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ पर्यावरण दिवस विशेष – धरती प्यारी मां

 

धरती हमारी स्वर्ग से सुंदर

नव-निधियों की खान मां

सहनशीलता का पाठ पढ़ाती

मिलजुल कर रहना सिखाती मां

अपरिमित सौंदर्य का सागर

अन्नपूर्णा, हमारी प्यारी मां

जन्मदात्री,सबका बोझ उठाती

पल-पल दुलराती,सहलाती मां

विपत्ति की घड़ी में धैर्य बंधाती

प्यार से सीने से लगाती मां

कैसे बयान करूं उसकी महिमा

शब्दों का मैं अभाव पाती मां

मानव की बढ़ती लिप्सा देख

रात भर वह आंसू बहाती मां

सरेआम शील-हरण के हादसे

उसके अंतर्मन को कचोटते मां

अपहरण, फ़िरौती के किस्से

मर्म को भेदते,आहत करते मां

पाप,अनाचार बढ़ रहा बेतहाशा

विद्रोह करना चाहती घायल मां

मत लो उस के धैर्य की परीक्षा

सृष्टि को हिलाकर रख देगी मां

 

आओ! वृक्ष लगा कर धरा को

स्वच्छ बनाएं,हरित-क्रांति लाएं

प्लास्टिक का हम त्याग करें

स्वदेशी को जीवन में अपनाएं

जल बिन नहीं जीवन संभव

बूंद-बूंद बचाने की मुहिम चलाएं

वायु-प्रदूषण बना सांसों का दुश्मन

नदियों का जल भी विषैला हुआ

प्रकृति का आराधन-पूजन करें

सर्वेभवंतु सुखीनाम् के गीत गाएं

 

पर्यावरण की रक्षा हित हम सब

मानसिक प्रदूषण को भगाएं मां

दुष्प्रवृत्तियां स्वत: मिट जाएंगी

ज़िंदगी को उत्सव-सम मनाएं मां

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

22.4.20….4.30 p.m

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – सस्वर बुंदेली गीत ☆ बुंदेली फागें – आचार्य भगवत दुबे ☆ स्वरांकन एवं प्रस्तुति श्री जय प्रकाश पाण्डेय

आचार्य भगवत दुबे

(आज प्रस्तुत है हिंदी साहित्य जगत के पितामह  गुरुवार परम आदरणीय आचार्य भगवत दुबे जी  की  बुंदेली फागें ”। हम आचार्य भगवत दुबे जी के हार्दिक आभारी हैं जिन्होंने अपनी अमृतवाणी के माध्यम से बुंदेली भाषा में  बुंदेली फागें आपसे साझा करने हेतु प्रेषित किया है। इस कार्य के लिए हमें श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी का सहयोग मिला है,  जिन्होंने उनकी बुंदेली फागें अपने  मोबाईल में  स्वरांकित कर हमें प्रेषित किया है।  – हेमन्त बावनकर )    

आप आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विस्तृत आलेख निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं :

हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆ – हेमन्त बावनकर

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि आपके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर तीन पी एच डी ( चौथी पी एच डी पर कार्य चल रहा है) तथा दो एम फिल  किए गए हैं। डॉ राज कुमार तिवारी ‘सुमित्र’ जी के साथ रुस यात्रा के दौरान आपकी अध्यक्षता में एक पुस्तकालय का लोकार्पण एवं आपके कर कमलों द्वारा कई अंतरराष्ट्रीय सम्मान प्रदान किए गए। आपकी पर्यावरण विषय पर कविता ‘कर लो पर्यावरण सुधार’ को तमिलनाडू के शिक्षा पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। प्राथमिक कक्षा की मधुर हिन्दी पाठमाला में प्रकाशित आचार्य जी की कविता में छात्रों को सीखने-समझने के लिए शब्दार्थ दिए गए हैं।

श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के ही शब्दों में  
संस्कारधानी के ख्यातिलब्ध महाकवि आचार्य भगवत दुबे जी अस्सी पार होने के बाद भी सक्रियता के साथ निरन्तर साहित्य सेवा में लगे रहते हैं । अभी तक उनकी पचास से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। बचपन से ही उनका सानिध्य मिला है।
उन्होंने बुंदेली फागें टेप कर ई-अभिव्यक्ति पत्रिका में प्रकाशित करने हेतु  प्रेषित किया है।
आप परम आदरणीय आचार्य भगवत दुबे जी की बुंदेली फागें उनके चित्र अथवा लिंक पर क्लिक कर उनके ही स्वर में सुन सकते हैं। आपसे अनुरोध है कि आप सुनें एवं अपने मित्रों से अवश्य साझा करें:

आचार्य भगवत दुबे 

शिवार्थ रेसिडेंसी, जसूजा सिटी, पो गढ़ा, जबलपुर ( म प्र) –  482003

मो 9691784464

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 49 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं प्रदत्त शब्दों पर   “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 49 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

होता है आलोक जब,

खिलता पुष्पित पुंज।

कलियों का कलरव बढ़ा,

गूंज उठा है कुंज।

 

करते है हम आचमन,

गंग जमुन का नीर।

ईश अर्चना पूर्ण हो

मन से हटती पीर।

 

आज लोग डरते नहीं,

करने से ही पाप ।

अंतरात्मा दे रही,

उनको ही अभिशाप।।

 

मन की चाबी से भला,

कैसे खोले भेद।

सबके मन में दिख रहे

जाने कितने  छेद।

 

चतुराई की चाल से,

उनसे किया सवाल।

आज आदमी डस रहा,

बनकर जैसे व्याल।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ सैनिक ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी  बेंगलुरु के जैन महाविद्यालय में सह प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं  साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, स्वर्ण मुक्तावली- कविता संग्रह, स्पर्श – कहानी संग्रह, कशिश-कहानी संग्रह विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज ससम्मान  प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता  सैनिक ।  इस बेबाक कविता के लिए डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी की लेखनी को सादर नमन।)  

☆ कविता – सैनिक  ☆ 

निस्वार्थ, निष्कलमश

सेवार्थ तन-मन से

मात्र माँ को बचाना

करने चले साकार सपना

 

न देखा सुख व दर्द

न किसी की भी

व्यथा-कथा ध्येय मात्र

स्वदेश की प्राप्ति

 

कर स्वयं को अर्पित

उठाया शस्त्र

नाश मात्र अरिदल का

आन-बान से लडा वीर

 

युद्धभूमि में न डगमगाये कदम

आँधी न तूफ़ान से डरा वीर

न डरा अरिनाग फूँककार से

चल पडा अंगारों पर

 

दौड़ाये घोड़े रण रंग में’

सुध-बुध खोकर हुआ खूंखार

ललकारते हुए शत्रु को

मात्र कहता रहा

 

तुम्हारी एक मार तो

सह मेरी सहस्त्र मार

तुमने डाली आंख मां की ओर

नहीं तुम बचोगे इंसान

 

अक्षौहिणी का सिपाही

खुली हवा में

लहराते झंडे को देख

मेरा देश, मेरी माँ

 

हिन्दुस्तानी करते  सबसे प्यार,

देश हमारा सबसे न्यारा,

मर मिटेंगे देश की खातिर,

आंखे नोंच लेंगे दुश्मनों की,

 

मर्यादाओं का भान कर,

अभिमान से सर उठाकर,

स्वाभिमान की रक्षा कर,

न किसी को कुचलने देंगे

 

रक्षा करेंगे माँ भारती की,

अंगारों पर चलकर,

कर देंगे अर्पित स्वयं को,

सांसे है धरोहर माँ की,

 

दुश्मनों को दिखायेंगे,

उनकी औकात…

पर्वत से उनको है

टकराना…

 

हम लें चले माँ की सौगात

रास्ता बतलायेंगे उनको,

शेर-सी दहाड सैनिक,

चल पड़ा रणक्षेत्र में

 

कर्ज चुकाने के लिए

त्यागा परिवार को,

छोडा नवेली दुल्हन को,

रणरंग में चला अकेला,

 

सैनिक की एक मात्र पुकार,

दुश्मन को ललकारता,

आज मेरी तलवार या तुम

करेंगे रक्षा माँ भारती की

 

माँ भारती, सोयेंगे तुम्हारे अंचल में

जब तक है साहस भुजबल में

अंचल न छूने देंगे शत्रु को

माँ तुम्हारे ऋणी है हम

 

सिपाही की बुलंद आवाज़

चल पडा निडर होकर

मत कर साहस अरि

मां का आंचल बेदाग करने की

 

बेमतलब की बातें कर,

गुमराह नहीं करते हम,

मां भारती पुकार रही,

सहारा मात्र मांग रही,

 

हे माँ रक्षा करेंगे हम

तुम निश्चिंत होकर सो जाओ,

जाग रहे तुम्हारे बेटे

निज कर्तव्य का पालन करने

 

विवश नहीं हम

विरोचित है हम

कायर नहीं हम

लडेंगे मरने तक

 

आन-बान से रहना है तुझको

जग में न हिम्मत करेगा कोई

तुम्हें छूने से डरेगा हर इन्सान

आज आया चिताह रणभूमि में

 

दुश्मनों को भी भागना पडेगा

ठान लिया है एक सैनिक ने

कटकर मर जायेंगे

रक्षा तुम्हारी करेंगे

 

माथे पर लगाया

लहू का तिलक

भाले को चूमकर,

निकल पडा सैनिक,

 

दुश्मनों के छक्के छुडाने

लड रहा है सैनिक

आखिरी सांस तक

बचाया माँ भारती को

 

आशियाना बर्बाद कर देंगे

नहीं लोगे तुम चैन की साँस

आंचल माँ का थाम

प्यार से धूल को

 

माथे पर लगाकर

अटहरी में मुस्कुराता

चढता बलिवेदी पर

चिर निद्रा में सोता है

 

संपर्क:

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

लेखिका, सहप्राध्यापिका, हिन्दी विभाग, जैन कॉलेज-सीजीएस, वीवी पुरम्‌, वासवी मंदिर रास्ता, बेंगलूरु।

Please share your Post !

Shares
image_print