हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 43 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  “भावना के दोहे ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 43 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे 

 

हमने तो अब कर लिया, जीवन का अनुवाद।

पृष्ठ – पृष्ठ पर लिख दिया, दुख,पीड़ा, अवसाद।।

 

तेरा-मेरा हो गया, जन्मों का अनुबंध।

मिटा नहीं सकता कभी, कोई यह संबंध।।

 

रात चाँदनी कर रही, अपने प्रिय से बात।

अंधियारी रातें सदा, करतीं बज्राघात।।

 

दर्शन बिन व्याकुल नयन, खोलो चितवन-द्वार।

बाट पिया की देखती, विरहिन बारंबार।।

 

रात चाँद को देखकर, होता मगन चकोर।

नैन निहारे रात भर, निर्निमेष चितचोर।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 34 ☆ कोरोना वायरस !! ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी  की एक समसामयिक भावप्रवण कविता  “कोरोना वायरस !!”। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 34 ☆

☆ कोरोना वायरस !! ☆

वो सब को

एक नजर से

देखता है..!

जाति-पांति

धर्म को नहीं

लेखता है.!!

 

उसकी नजर में

सब एक समान हैं.!

सब का ही करता

वो सम्मान है.!!

 

उसके शरण में

जो भी आता है.!!

वो भव सागर से

मुक्ति पा जाता है.!!

 

वो मान-अपमान

सुख-दुख,

लाभ-हानि से परे है.!

उसकी झोली में

बड़े-बड़े नत मस्तक

हाथ जोड़ खड़े हैं.!!

 

वो रिश्ते-नाते

दोस्ती-यारी

सभी पर भारी है.!

उसकी छवि

इस दुनिया से

बिल्कुल न्यारी है.!!

 

बड़ी बड़ी

शक्तियाँ

उसके आगे

महज एक

खिलौना हैं.!

 

उसकी

मर्जी से ही

यहाँ सब कुछ

होना है.!!

 

वो सर्व व्यापी

काल दृष्टा है.!

उससे पंगा

समझो

भिनिष्टा है..!!

 

वो मन्दिर, मस्ज़िद

चर्चों और गुरुद्वारों में.!

वो शहर शहर

हर देश,गाँव

गलियारों में.!!

 

उसकी महिमा

बड़ी निराली है.!

वो आम नही

बड़ा बलशाली है.!!

 

यह सुनते ही

सामने खड़ा

दोस्त बोला.!

सीधा क्यों नहीं

कहता ये

भगवन हैं भोला..!!

 

हमने ज्यूँ सुनी

दोस्त की वाणी.!

झट अपनी

भृकुटि तानी.!!

 

और कहा सुन.!

अपना माथा धुन.!!

ये भगवन नहीं

कोरोना वायरस है

ज्यूँ  होता लोहा सोना

छूता जब पारस है..!!

 

यूँ ही जब कोई

संक्रमित को

छूता है.!

फिर वो भी

बन जाता

अछूता है.!!

 

ये बड़ी वैश्विक

बीमारी है.!!

जिसने

सारी दुनिया की

हालत बिगाड़ी है..!!

 

इसलिए दोस्त

जरा दूर से बात

करना.!

और “संतोष” को

हाथ जोड़

नमस्कार करना..!!

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ अंतरराष्ट्रीय पुस्तक दिवस विशेष  – काव्य धारा ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

( आज प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित  अंतरराष्ट्रीय पुस्तक दिवस के अवसर पर  उनकी विशेष रचना  “ काव्यधारा ”। ) 

 

आत्म परिचय 

चित्रकार नहीं फनकार है हम, शब्दों से चित्र बनाते हैं।

रंग, तूलिका को छुआ नहीं,  कलमों से कला दिखाते हैं।

रचना में शब्द हैं रंग भरते, इस कला को नित आजमाते हैं

अपना परिचय क्या दूं सबको,  कुछ भी कहते शरमाते हैं।

पढ़ना लिखना  है शौक मेरा, हम आत्मानंद कहाते हैं।

 

☆ अंतरराष्ट्रीय पुस्तक दिवस विशेष  – काव्य धारा ☆

 

कल्पना के लोक से, शब्द का  लेकर सहारा।

रसासिक्त होकर भाव से, बन प्रकट हो काव्यधारा।

 

गुदगुदाती हो हृदय को, या कभी दिल चीर जाती।

या कभी बन वेदनायें अश्क आंखों से है बहाती।

 

कविता ग़ज़ल या गीत बन, नित नये नगमे सुनाती।

लेखनी से तुम निकल कर, पुस्तकों में आ समाती।

 

नित नयी महफ़िल सजाती,  श्रोताओं के मन लुभाती।

काव्यधारा काव्यधारा,  अनवरत तुम बहती जाती।

 

देख कर तेरी रवानी,  कितने ही दिवाने हो गये।

बांह में तेरी लिपट, ना जाने कितने सो गये।

 

काव्यधारा याद  तेरी, कुछ को महीनों तक रही।

चाह में तुमसे मिलन की, आस दिल में पल रही।

 

इक आस का नन्हा दिया, इस दिल में अब तक जल रहा।

खुद डूबने की चाह ले कर, तेरे ही किनारे पर चल रहा।।

 

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

सर्वाधिकार सुरक्षित

22-4-2020

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208 मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – सस्वर बुंदेली गीत ☆ बैरन या कैसी बीमारी ? – आचार्य भगवत दुबे ☆ स्वरांकन एवं प्रस्तुति श्री जय प्रकाश पाण्डेय

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

आचार्य भगवत दुबे

(आज प्रस्तुत है हिंदी साहित्य जगत के पितामह  गुरुवार परम आदरणीय आचार्य भगवत दुबे जी  का एक समसामयिक, प्रेरक एवं शिक्षाप्रद कविता बैरन  या कैसी बीमारी ?”। हम आचार्य भगवत दुबे जी के हार्दिक आभारी हैं जिन्होंने मानवता के अदृश्य शत्रु ‘ कोरोना ‘ से बचाव के लिए  शिक्षाप्रद सन्देश अपनी अमृतवाणी के माध्यम से बुंदेली भाषा में दिया है । इस कार्य के लिए हमें श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी का सहयोग मिला है,  जिन्होंने उनकी कविता को  अपने  मोबाईल में  स्वरांकित कर हमें प्रेषित किया है। यह गीत समय पर प्राप्त हो गया था किन्तु, अस्वस्थता के कारण सम्पादित करने में विलम्ब हेतु मुझे खेद है – हेमन्त बावनकर )    

आप आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विस्तृत आलेख निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं :

हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆ – हेमन्त बावनकर

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि आपके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर तीन पी एच डी ( चौथी पी एच डी पर कार्य चल रहा है) तथा दो एम फिल  किए गए हैं। डॉ राज कुमार तिवारी ‘सुमित्र’ जी के साथ रुस यात्रा के दौरान आपकी अध्यक्षता में एक पुस्तकालय का लोकार्पण एवं आपके कर कमलों द्वारा कई अंतरराष्ट्रीय सम्मान प्रदान किए गए। आपकी पर्यावरण विषय पर कविता ‘कर लो पर्यावरण सुधार’ को तमिलनाडू के शिक्षा पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। प्राथमिक कक्षा की मधुर हिन्दी पाठमाला में प्रकाशित आचार्य जी की कविता में छात्रों को सीखने-समझने के लिए शब्दार्थ दिए गए हैं।

श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के ही शब्दों में  
संस्कारधानी के ख्यातिलब्ध महाकवि आचार्य भगवत दुबे जी अस्सी पार होने के बाद भी सक्रियता के साथ निरन्तर साहित्य सेवा में लगे रहते हैं । अभी तक उनकी पचास से ज्यादा किताबें प्रकाशित हो चुकी है। बचपन से ही उनका सानिध्य मिला है। कोरोना की विभीषिका के चलते मानव जाति पर आये भीषण संकट के संदर्भ में आचार्य भगवत दुबे जी से दूरभाष पर बातचीत हुई। लाॅक डाऊन और कर्फ्यू के साये में अपनी दिनचर्या  के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा कि विपदा की घड़ी में सभी लोगों को अपने घर की देहरी के अंदर ही रहना चाहिए, घर से बाहर जाने से बचना चाहिए।अपना एवं अपने परिवार के स्वास्थ्य पर ध्यान देना चाहिए संयमित रहकर अपनी प्रिय अभिरुचि पर काम करते हुए व्यस्त रहना चाहिए।
जब हमने उनसे कोरोना समय पर लिखी रचनाओं की चर्चा की तो उन्होंने बताया कि इस विकट समय पर साहित्यकारों को जन-जन को जागरुक करने वाली रचनाऐं लिखनी चाहिए और समाज के अंदर फैली हताशा और निराशा को दूर करने के लिए मनोबल बढ़ाने वाली रचनाऐं पाठक के बीच आनी चाहिए। बुंदेली गीत को टेप कर ई-अभिव्यक्ति पत्रिका में प्रकाशित करने हेतु  प्रेषित किया है।
आप परम आदरणीय आचार्य भगवत दुबे जी का  प्रेरक एवं शिक्षाप्रद बुंदेली  गीत उनके चित्र अथवा लिंक पर क्लिक कर उनके ही स्वर में सुन सकते हैं। आपसे अनुरोध है कि आप सुनें एवं अपने मित्रों से अवश्य साझा करें:

आचार्य भगवत दुबे 

शिवार्थ रेसिडेंसी, जसूजा सिटी, पो गढ़ा, जबलपुर ( म प्र) –  482003

मो 9691784464

 

स्वरांकन एवं प्रस्तुति – जय प्रकाश पाण्डेय – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ अंतरराष्ट्रीय पुस्तक दिवस विशेष ☆ पुस्तकें ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  रचित एक समसामयिक विशेष रचना “पुस्तकें”। ) 

 

☆  अंतरराष्ट्रीय पुस्तक दिवस विशेष ☆ पुस्तकें ☆

 

युग से संचित ज्ञान का भंडार हैं ये पुस्तकें

सोच और विचार का संसार हैं ये पुस्तकें

 

देखने औ” समझने को खोलती नई खिड़कियां

ज्ञानियो से जोड़ने को तार हैं ये पुस्तकें

 

इनमें रक्षित धर्म संस्कृति आध्यात्मिक मूल्य है

जग में अब सब प्रगति का आधार हैं ये पुस्तकें

 

घर में बैठे व्यक्ति को ये जोड़ती हैं विश्व से

दिखाने नई राह नित तैयार हैं ये पुस्तकें

 

देती हैं हल संकटो में और हर मन को खुशी

संकलित सुमनो का सुरभित हार हैं ये पुस्तकें

 

कलेवर में अपने ये हैं समेटे इतिहास सब

आने वाले कल को एक उपहार हैं ये पुस्तकें

 

हर किसी की पथ प्रदर्शक और सच्ची मित्र हैं

मनोरंजन सीख सुख आगार हैं ये पुस्तकें

 

किसी से लेती न कुछ भी सिर्फ देती हैं ये स्वयं

सिखाती जीना औ” शुभ संस्कार हैं ये पुस्तकें

 

पुस्तको बिन पल न सकता कहीं सभ्य समाज कोई

फलक अमर प्रकाश जीवन सार हैं ये पुस्तकें

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 24 ☆ वाग्देवी माँ मुझे स्वीकार लो ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  आपकी एक अतिसुन्दर प्रार्थना  “वाग्देवी माँ मुझे स्वीकार लो.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 24 ☆

☆ वाग्देवी माँ मुझे स्वीकार लो ☆

 

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों -सा

सजा संसार दो

 

शब्द में भर दो मधुरता

अर्थ दो मुझको सुमति के

मैं न भटकूँ सत्य पथ से

माँ बचा लेना कुमति से

 

भारती माँ सब दुखों से

तार दो

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों -सा सजा

संसार दो

 

कोई छल से छल न पाए

शक्ति दो माँ तेज बल से

कामनाएँ हों नियंत्रित

सिद्धिदात्री कर्मफल से

 

बुद्धिदात्री ज्ञान का

भंडार दो

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों -सा सजा

संसार दो

 

भेद मन के सब मिटा दो

प्रेम की गंगा बहा दो

राग-द्वेषों को हटाकर

हर मनुज का सुख बढ़ा दो

 

शारदे माँ! दृष्टि को

आधार दो

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों-सा सजा

संसार दो

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 44 – वर्तमान समय के 10 दोहे ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  उनके अतिसुन्दर  वर्तमान समय के 10 दोहे।)

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 44 ☆

☆ वर्तमान समय के 10 दोहे  ☆  

 

बाहर  में  विचरण  करें, पशु – पक्षी  स्वच्छंद।

भीतर मानव हैं विकल, गतिविधियां सब मन्द।।

 

मेल जोल  छूना  मना, हाथों  पर  प्रतिबंध।

मूंह  नाक  पर  मुश्क  है, ठप्प  पड़े  संबंध।।

 

बारह दिवस पुनः शेष हैं, क्या फिर होगा बन्द।

रैन – दिवस  ये  चल  रहा, मन  में  अंतर्द्वन्द।।

 

समय कटे कटता नहीं, कल की चिंता आज।

खबरें पल-पल उड़ रही, बनकर  खूनी बाज।।

 

मन  बहलाने  को  यदि, टीवी. खोलें  आप।

इनमें  भी आता  नजर, कोरोना  का  श्राप।।

 

परिचर्चा  में  देख  सुन, टीवी. पर  हैरान।

बेशर्मी   से   टूटते,   मानवीय   प्रतिमान।।

 

सौ  शब्दों  की  भीड़ में, पल्ले  पड़े  न एक।

अपनी-अपनी डफलियां, खेलें फेकम-फेंक।।

 

हुआँ-हुआँ का शोर ज्यों, वन में करे सियार।

उदघोषक खुश  हो रहा, टीआर पी से  प्यार।।

 

उठते  बैठे  दिन   कटे, जगते   सोते   रात।

आओ हम मिल दें सभी, कोरोना को मात।।

 

बाहर  के  इस  मौन  में, अंदर  उतरें  आप।

बहुत जपा संसार को, अब अपने को जाप।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ चाहो तो ☆ श्री रामस्वरूप दीक्षित

श्री रामस्वरूप दीक्षित

(ई-अभिव्यक्ति में श्री रामस्वरूप दीक्षित जी  का हार्दिक स्वागत है।  मूल विधा गद्य व्यंग्य । इसके अतिरिक्त कविताएं  और लघुकथाएं भी लिखते है । धर्मयुग,सारिका ,हंस ,कथादेश  नवनीत,कादंबिनी ,साहित्य अमृत,वसुधा, व्यंग्ययात्रा, अट्टाहास एवं जनसत्ता ,हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स, राष्ट्रीय सहारा,दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, नईदुनिया,पंजाब केसरी, राजस्थान पत्रिका,सहित देश की सभी प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित । कुछ रचनाओं का पंजाबी, बुन्देली, गुजराती और कन्नड़ में अनुवाद। मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन की टीकमगढ़ इकाई के अध्यक्ष

☆ कविता – चाहो तो ☆

चाहो तो

सोच सकते हो तुम भी

उन हालातों के बारे में

जो बना दिये गए हैं

तुम्हारे आसपास

और उन्हें बनाने वालों के बारे में भी

कि अगर ये हालात न बनाये  गए होते

तो तुम्हारी ये हालत न होती

तुंम भी

महसूस कर सकते थे

फूलों की महक

दूधिया चांदनी में

झरता हुआ प्रेम

अपने बालों को सहलाती

किसी की उंगलियों की छुअन

किसी के घर की तरफ से आने वाली हवाओं में

सूंघ सकते थे

उनकी देह की गंध

किसी की याद में सुधबुध खोकर

कंकड़ फेंकते रह सकते थे

किसी बहती हुई नदी की धार में

पर

अब तो

कुछ भी सोचना सम्भव नहीं तुम्हारे लिए

एक अदृश्य बाघ की

धारीदार पीठ

और पैने नाखून

तैर जाते हैं आंखों में

कुछ भी सोचने से पहले

 

© रामस्वरूप दीक्षित

सिद्ध बाबा कॉलोनी, टीकमगढ़ 472001  मो. 9981411097

ईमेल –[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ चांदनी ☆ डॉ मौसमी परिहार

डॉ मौसमी परिहार

(संस्कारधानी जबलपुर में  जन्मी  डॉ मौसमी जी ने “डॉ हरिवंशराय बच्चन की काव्य भाषा का अध्ययन” विषय पर  पी एच डी अर्जित। आपकी रचनाओं का प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन तथा आकाशवाणी और दूरदर्शन से नियमित प्रसारण। आकाशवाणी के लोकप्रिय कार्यक्रम ‘युगवाणी’ तथा दूरदर्शन के ‘कृषि दर्शन’ का संचालन। रंगकर्म में विशेष रुचि के चलते सुप्रसिद्ध एवं वरिष्ठ पटकथा लेखक और निर्देशक अशोक मिश्रा के निर्देशन में मंचित नाटक में महत्वपूर्ण भूमिका अभिनीत। कई सम्मानों से सम्मानित, जिनमें प्रमुख हैं वुमन आवाज सम्मान, अटल सागर सम्मान, महादेवी सम्मान हैं।  हम भविष्य में आपकी चुनिंदा रचनाओं को ई- अभिव्यक्ति में साझा करने की अपेक्षा करते हैं। आज प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर कविता  ‘चांदनी’ )   

 ☆ कविता  – चांदनी ☆

 

आज अचानक देखा,

ठूँठ पर ,फिर निकल पडी

सफेद चांदनी के फूल की

नई कोपलें,,,,

 

और कुछ नई  कलियां भी,

तीखी धूप में, सफेद श्रृंगार

मानो  ललचा रही है धूप को,

 

हमने तो रात की  चांदनी

ही सुनी थी ,चांद वाली

अब देखो, ये चांदनी भी

बिखेर रही है ,,,,चांदनी धूप के साथ !!

 

© डॉ मौसमी परिहार

21/04/20

संप्रति – रवीन्द्रनाथ टैगोर  महाविद्यालय, भोपाल मध्य प्रदेश  में सहायक प्राध्यापक।

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 22 ☆ कविता – कठपुतली ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक अतिसुन्दर और  मौलिक कविता  कठपुतली।  श्रीमती कृष्णा जी ने  कठपुतली के खेल के माध्यम से काफी कुछ  बड़ी ही सहजता से कह दिया है।  वास्तव में जब हम बच्चे थे ,तो कठपुतली का नाच देखने की उत्सुकता रहती थी । अब तो मीडिया ने इस कला को काफी पीछे धकेल दिया  है किन्तु, अब भी कुछ कलाकार इसे जीवित रखे हुए हैं।  इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमती कृष्णा जी बधाई की पात्र हैं।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 22 ☆

☆ कविता  – कठपुतली ☆

एक बार की बात बताऊँ

कठपुतली का नाच दिखाऊँ

कहा बापू ने हमसे…

हम सभी छोटे बड़े

निकले कठपुतली को देखने

मैने कहा माँ तू चलना

वह बोली- नहीं मै घर की

कठपुतली हूँ.

 

क्या…? मै बोली

वह बोली

बड़ी होगी तो समझेगी

जा अभी तू जा.

 

आओ..आओ नाच देखलो

छम्मक छम्मक नाचे है

काम बड़ा कर जाये है

देखो …अभी सासुरे जायेगी

फिर सासु की डांट खायेगी

 

और फिर पानी भरने घाट …

बड़े बड़े मटको मे जायेगी.

घर मे जनावर को भूसा चोकर डाले…

 

हरी घाँस चरने को देगी

अब घर में  सबको भोजन परसेगी

घर के सारे काम निपटा समेट कर

पति के पैर दबा फिर सोयेगी

भोर होते ही फिर पिछली

दिनचर्या दुहरायेगी.

 

समाप्त हुआ कठपुतली का खेल

मैने देखा जो जो काम करे थी

अम्मा कठपुतली भी वही..करे

बापू से पूछा मैने यही सभी तो

अम्मा घर मे दिनभर करे है

तो बापू अम्मा को कठपुतली कहें…..

 

बेटी की बाते सुनकर वे बोले

नहीं सुनो अगले घर जाने की

तैयारी मे हमने यह कठपुतली का

नाच दिखाया अनजाने में ही

लाडो सब कुछ तूने ज्ञान है पाया

बस अगले बरस कर दूंगा ब्याह तेरा..

तू भी जिम्मेदारी सासुरे की निभा

 

बेटी छटपटाहट की मारी

कभी माँ और कभी कठपुतली को देखे है

 

अंतर क्या कोई बतलाये

इन दोनों की तासीर एक है

यहाँ भी पुरूष चलावे

वहाँ भी वही तमाशा करवावे है.

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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