हिन्दी साहित्य – कविता ☆ पितृ दिवस विशेष – पिता ही कर पाए ☆ सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी  मानव संसाधन में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। एच आर में कई प्रमाणपत्रों के अतिरिक्त एच. आर.  प्रोफेशनल लीडर ऑफ द ईयर-2017 से सम्मानित । आपने बचपन में ही स्कूली शिक्षा के समय से लिखना प्रारम्भ किया था। आपकी रचनाएँ सकाळ एवं अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों / पत्रिकाओं तथा मानव संसाधन की पत्रिकाओं  में  भी समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। हाल ही में आपकी कविता पुणे के प्रतिष्ठित काव्य संग्रह  “Sahyadri Echoes” में प्रकाशित हुई है। पितृ दिवस पर आज प्रस्तुत है उनकी विशेष रचना – पिता ही कर पाए )

? पितृ दिवस विशेष – पिता ही कर पाए ?

 

छाव बनकर जो छा जाए ,

पग-पग पर पथ दर्शाए ,

चोट लगे तो दवा बन जाए,

ये तो केवल इक पिता ही कर पाए ,

**

ऊँगली पकड़ जो चलना सिखाये ,

हार कर भी हमसे जो हर्षाए ,

हर दुःख से जो हमको बचाए,

ये तो केवल इक पिता ही कर पाए ,

**

हमारी ख़ुशी में जो खुद मुस्कुराए,

हर तूफ़ां के लिए चट्टान बन जाए,

हर ज़िद्द हमारी सर-आँखोँ से लगाए,

ये तो केवल इक पिता ही कर पाए ,

**

अपनी इच्छाओं को दबा हमारी खुशी परवान चढ़ाए,

इक मुस्कान के लिए हमारी कर जाए सौ उपाए,

हर परिस्तिथि में जो जीने की कला सिखलाए,

ये तो केवल इक पिता ही कर पाए ,

**

सख्त बनकर-बुरा बनकर भी प्यार जताए,

कठोर बनकर अनुशासन में रहना सिखाए,

माँ की तुलना में कम कहलाना अपनाए,

ये तो केवल इक पिता ही कर पाए ,

**

प्यार ना जता कर निष्ठुर कहलाए,

बच्चो की नज़रो में निर्दयी बन जाए,

ऊंचा दर्जा ना पा कर भी प्यार जताए,

ये तो केवल इक पिता ही कर पाए .

 

© सुश्री दीपिका गहलोत  “मुस्कान ”  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – वो वीर तिरंगे का वारिस था ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज आपके “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण , समसामयिक एवं ओजस्वी रचना  – वो वीर तिरंगे का वारिस था।  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य –  वो वीर तिरंगे का वारिस था ☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

जलाया होगा खुद का जिस्म बारूद गोलों से,

और फिर अनेकों गोलीयां सीनें पर खाई होगी।

दुश्मन के खून से खेली होगी सीमा पर होली,

इस तरह वतन परस्ती की रस्म निभाई होगी।।1।।

हिम्मत से मारा होगा दुश्मन को सरहद पे,

इस तरह मां की आबरू उसने बचाई होगी।

पहना होगा तिरंगे का कफन हमारी खातिर,

इस तरह अपनी‌ पूंजी वतन पे लुटाई होगी।।2।।

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

घर बार वतन वो छोड़ चला,चमन चहकता छोड़ चला ।

दुश्मन की कमर तोड़ने वह,अंधी मां को घर छोड़ चला।

गलियों में गांव के पला बढ़ा, सबका राज दुलारा था।

अंधी की कोख से पैदा था, उसके जीवन का सहारा था।।1।।

आंखों से देख सकी न उसे, खुशबू  से पहचानती थी।

पदचापों की आहट से, वह अपने लाल को जानती थी।

जब लाल सामने होता तो, उसको छू कर दुलराती थी।

मुख माथा चूम चूम उसका, उसको गले लगाती थी।।2।।

वह पढ़ा लिखा जवान हुआ, सेना का दामन थाम लिया था ।

उस दिन टटोल वर्दी हाथों से,  मां ने उसको सहलाया था।

अब वतन लाज तेरे हाथों, वर्दी  का मतलब बतलाया था।

उसको गले लगा करके,अपनी ममता से नहलाया था।।3।।

 

वतन पे मरने का मकसद ले, सरहद की तरफ बढ़ा था वह।

अपने ही वतन के गद्दारों की,  नजरों में आज चढ़ा था वह।

जम्मू कश्मीर जल रहा था, थे नौजवान बहके बहके।

आगे दुश्मन की गोली थी, पीछे हाथों में पत्थर थे।।4।।

 

वह अभिमन्यु बन चक्रव्यूह में,खड़ा खड़ा बस सोच रहा।

समझाउं उसको या मारूं,  ना समझ पड़ा बस देख रहा।

क्या करें वो कैसे समझाये, कानून के हाथों बंधा हुआ।

सीने में गोली सिर पे पत्थर,खाता फिर भी तना हुआ ।।5।।

पीछे अपनों के पत्थर है, आगे दुश्मन की ‌गोली है।

मेरे शौर्य उठती उंगली है कुछ लोगों की कड़वी  बोली है।

इस तरह खड़ा कुछ सोच रहा, उसको बस समझ नहीं आया।

अपनों से बच गैरों से निपट यह सूत्र काम उसके आया।।6।।

अपनों की मार सही उसने,उफ़ ना किया ना हाथ उठा,

अंतहीन लक्ष्य साथ ले सरहद पे चला वह क़दम बढ़ा।

अपनी तोपों के गोलों से दुश्मन का हौसला तोड़ दिया। ।

पीछे को दुश्मन भाग चलाउनके रुख को वह मोड़ दिया ।।7।।

 

धोखे से बारूद पे पांव पड़े तब उसमें विस्फोट  हुआ।

मरते मरते जय हिन्द बोला सरहद पे उसकी जली चिता।

सरहद पे जिसकी चिता जली वो असली हिंदुस्तानी था।

जो जाति धर्म से ऊपर उठकर मातृभूमि बलिदानी था ।।8।।

कर्मों से इतिहास ‌लिखा इक अंधी मां का बेटा है।

उसने भी अपने सीने में इक हिंदुस्तान ‌समेटा है।

अपनों के नफरत‌ से वह  घायल था बेहाल था।

वो वीर तिरंगे का वारिस था भारत मां का लाल था ।।9 ।।

 

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ विकल्प ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ विकल्प 

यात्रा में संचित

होते जाते हैं शून्य,

कभी छोटे, कभी विशाल,

कभी स्मित, कभी विकराल..,

विकल्प लागू होते हैं

सिक्के के दो पहलू होते हैं-

सारे शून्य मिलकर

ब्लैकहोल हो जाएँ

और गड़प जाएँ अस्तित्व

या मथे जा सकें

सभी निर्वात एकसाथ

पाये गर्भाधान नव कल्पित,

स्मरण रहे-

शून्य मथने से ही

उमगा था ब्रह्मांड

और सिरजा था

ब्रह्मा का अस्तित्व,

आदि या इति

स्रष्टा या सृष्टि

अपना निर्णय, अपने हाथ

अपना अस्तित्व, अपने साथ,

समझ रहे हो न मनुज..!

©  संजय भारद्वाज, पुणे

[email protected]

( प्रात: 8.44 बजे, 12 जून 2019)

#हरेक के भीतर बसे ब्रह्मा को नमन। आपका दिन सार्थक हो।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ एकता ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी  बेंगलुरु के जैन महाविद्यालय में सह प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं  साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, स्वर्ण मुक्तावली- कविता संग्रह, स्पर्श – कहानी संग्रह, कशिश-कहानी संग्रह विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज ससम्मान  प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण एवं सार्थक कविता एकता।  इस बेबाक कविता के लिए डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी की लेखनी को सादर नमन।)  

☆ कविता – एकता ☆ 

दंगा हो रहा शहर में

लहू के प्यासे हुए लोग

लगाई आग चंद सियासतखोरोंने

जल गए घर अनेक

हुए कत्ल अनेक

न इंसान बचा न इंसानियत

हो रही हत्या आम इन्सान की

एक चिंगारी ने बृहद आकार लिया

आग बनकर ले चली इन्सान को

भाई-भाई पर जान न्यौछावर करते

धरती मां पर मर मिटते साथ-साथ

आज भडक उठी आग दुश्मनी की

फैल रही दंगे की आग

इन्सान बना भस्मासुर

खत्म कर रहा अपनों को

काट रहा गला दोस्त का

खत्म हो चली उसकी आत्मा

खेल रहा लहू से

खून कर अट्टहास कर रहा वह

इस बार खेलेंगे खून की होली

लहू की हो रही बारिश

न तो उगी फसल, न सब्जी

इन्सान पी रहा लहू इंसान का

सब हुए मांसाहारी

फैली दहशत समाज में

धर्म और सियासत के कारण किए खून

जिजीविषा की चाह में

हुआ हलाक  हर इंसान

जल गई अनेक दुकानें

हुआ ऐलाने जंग अपनों से

हुआ नरसंहार रो रहा आसमां

बह गई खून की नदियां

कौन हो तुम की पुकार

हिन्दू, मुसलमान, सिखम ईसाई

बंट गया इंसान स्वयं

दरिंदे बन गये इंसान

मारकर बच्चो को भी

बने ब्रह्म हत्या के भागी

फैला जाति-धर्म का जहर

कहर मचा है संसार में

दोस्त-दुश्मन की पहचान

भुलाकर कर रहा कत्ल

खुले आम आदम

मार दिया सबको

न बचा कोई भी

किस पर करेगा राज?

हो गया वीरान समाज

रोने के लिए भी न बचा

क्या सही क्या गलत

न समझ आ रहा है

जानवर से भी बदतर

इंसान हुआ पागल

आदमखोर इंसान

खा रहा,

अनाज नहीं खून

दोस्त को मारकर

दुनिया हुई बदहाल

रौंदकर अपनों को

पैरों तले कुचलकर

अत्याचार किए अनेक

भूखी शोषित जनता पर

असहाय अनजान जनता पर

समय बन गया काल

हो रहा मृत्यु का तांडव

बना आदमखोर आदमी

धज्जियां उड गई देश की

आदमी ने खत्म कर दी

जडे खुद की ही

नेस्तानाबूद कर

क्या पाना चाहा?

मात्र क्रौंच चीख

न समझ पाया सियासती खेल

चंद सियासतदारों का…

कर्फ्यू लगा शहर में

ठहरते हुए वक्त में

लगा रुक गया है

जीवन समाप्त हुआ

दंगा भी टल गया ।

वो चिंगारी आज भी

धधक रही इन्सान में

कब फिर से लेगी वह

आग का रुप नहीं पता

आ्दमी में समाया डर

समझ इन्सान…समझ

मन से डर को भगाकर

अल्लाह कहो या ईश्वर

गुरुद्वारे जाओ या मंदिर

चर्च जाओ या फिर मस्जिद

मिलेंगे तुम्हें एक ही ईश्वर

परवरदिगार के नाम अलग

कई रुपों में आया खुदा

बुराई को खत्म करने

लगाए नारे एकता के

अगर हम एक हुए

न टिकेगा दुश्मन

हमारे सामने

हम मात्र कठपुतलियाँ

ईश्वर के हाथों की

न कि चंद सियासतदारों की

समझना है इंसान

सब है हमारे बंधु

फिर क्यों कर रहे हो?

दंगल हर जगह पर

क्यों दोहरा रहे हो

महाभारत ?

क्यों हर गली में है द्रौपदी?

क्यों मांग रही सहारा?

घर- घर में क्यों बसी

कैकेयी और मंथरा ?

अपने फायदे के लिए

मत कर हत्या अनुज-मनुज की

रहना हमें  मिलजुलकर

हम  एक माँ की संतान

क्यों कर रहे हो फर्क?

लहू सबका एक

आवाज़ सबकी एक

मत कर खंडित माँ को

माँ के हज़ार टुकडे

धर्म या जाति के नाम पर

मत बाँट माँ को

मत कर अहंकार

मत कर युद्ध अपनोंसे

गीता का सूत्र अनोखा

मत ले दुहाई कृष्ण की

मत बन पापी इंसान

जन्म लेता विरला आदमी

सुंदर रचना है ब्रह्मा की

नष्ट मत कर इंसान को

खुदा की देन है  इंसान

 

©  डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

लेखिका, सहप्राध्यापिका, हिन्दी विभाग, जैन कॉलेज-सीजीएस, वीवी पुरम्‌, वासवी मंदिर रास्ता, बेंगलूरु।

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ शिलालेख ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ शिलालेख 

अतीत हो रही हैं

तुम्हारी कविताएँ

बिना किसी चर्चा के,

मैं आश्वस्ति से

हँस पड़ा..,

शिलालेख,

एक दिन में तो

नहीं बना करते!

संजय भारद्वाज

# सजग रहें, सतर्क रहें, स्वस्थ रहें।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

[email protected]

(11 जून, 2016 संध्या 5:04 बजे)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 42 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  भावप्रवण  “ संतोष के दोहे ”। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 42 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆

विपदा

विपदा जब हो सामने, डरिये कभी न मित्र

धीरज धरम न छोड़िए, खीचें ऐसा चित्र

 

पक्षपात

पक्षपात जब भी हुआ, बढ़ा आपसी द्वंद

अगर भलाई चाहिए, छोड़ें सब छल छंद

 

मायावी

दुनिया मायावी लगे, बहुरूपी इंसान

रहें संभलकर जगत में, बनें नहीं नादान

 

आहत

दिल को आहत कर गया, सीमा चीन विवाद

इसे जल्द सुलझाइए, करें सघन संवाद

 

विभोर

सुन वर्षा का आगमन, वन में नाचे मोर

छटा सुहानी देख कर, मन हो गया विभोर

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

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आध्यत्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – त्रयोदश अध्याय (33) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

त्रयोदश अध्याय

(ज्ञानसहित प्रकृति-पुरुष का विषय)

 

यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः ।

क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ।।33।।

ज्यों रवि सारे विश्व में ,करता सहज प्रकाश

त्यों ही क्षेत्री क्षेत्र में ,देता आत्म प्रकाश ।।33।।

भावार्थ :  हे अर्जुन! जिस प्रकार एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है।।33।।

 

Just as the one sun illumines the whole world, so also the Lord of the Field (the Supreme Self) illumines the whole Field, O Arjuna!।।33।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ त्रिलोक ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ त्रिलोक

सुर,

असुर,

भूसुर,

एक मूल शब्द,

दो उपसर्ग,

मिलकर

तीन लोक रचते हैं,

सुर दिखने की चाह

असुर होने की राह,

भूसुर में

तीन लोक बसते हैं।

 

# सजग रहें, सतर्क रहें, स्वस्थ रहें।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(प्रातः 6:24 बजे, 25.5.19)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ बज़्म में ज़िक्र…. ☆ सुश्री भारती शर्मा

सुश्री भारती शर्मा

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री भारती शर्मा जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आप हिंदी साहित्य की गीत, ग़ज़ल, लघुकथाएँ विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। संक्षिप्त साहित्यिक यात्रा – प्रबंध सम्पादक : ‘अभिनव प्रयास’ (त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका)।  विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में गीत, ग़ज़ल, लघुकथाएँ प्रकाशित। दैनिक जागरण द्वारा लघुकथा प्रतियोगिता के अंतर्गत (613 प्रतिभागियों में से) लघुकथा संग्रह के प्रकाशनार्थ अलीगढ़ से चयनित ।आगरा आकाशवाणी से समय समय पर गीत, ग़ज़ल का नियमित  प्रसारण। आज प्रस्तुत है आपकी रचना “बज़्म में ज़िक्र….। “
☆ बज़्म में ज़िक्र…. ☆
सुर्ख़ आँखों में जब नमी देखी

बुझती-बुझती-सी रोशनी देखी

 

अश्क ढलके जो दो किनारों से

मैंने ख़्वाबों की खुदकुशी देखी

 

बज़्म में ज़िक्र आपका आया

फिर से ज़ख़्मों पे ताज़गी देखी

 

जाने क्यू उसने फेर ली नज़रें

कशमकश उसकी बेबसी देखी

 

बिन तेरे और क्या बताऊँ मैं

आग बरसाती चाँदनी देखी

 

देके आवाज़ छुप गये हो कहाँ

ये शरारत नयी-नयी देखी

 

सारी दुनिया में तू मिला मुझको

मैंने ख़ुद में तेरी कमी देखी

 

© भारती शर्मा

आगरा उत्तर प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 32 ☆ डोरी लगती गोली ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक सकारात्मक एवं भावप्रवण कविता  “डोरी लगती गोली.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 32 ☆

☆  डोरी लगती गोली ☆ 

 

उड़ी पतंगें देख गगन में

चिड़िया रानी  बोली।

नहीं सुहाए इनका उड़ना

डोरी लगती गोली।।

 

अनगिन साथी घायल होकर

प्राण गँवा देते हैं।

बढ़े प्रदूषण भू पर

झूठा सुख मानव लेते हैं।

 

अरे पतंगी तुम दुश्मन हो

हम जीवों के सारे।

तुम्हें एक दिन दण्ड मिलेगा

हम हैं ईश सहारे।

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

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