हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 18☆ कविता (हाईकु) – प्रकृति ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  हाईकु शैली में  रचित एक भावपूर्ण कविता  “ प्रकृति  ।  इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमती कृष्णा जी बधाई की पात्र हैं।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 18☆

☆ हाईकु – प्रकृति   ☆

 

मचा बवंडर

त्राहि त्राहि मची

जल समाहित

 

बाढ़  उफनती

बढ़ती न रुकती

रौद्र दिखती.

 

जड़ें हिलाती

कमाल ही करती

अस्तित्व समझाती

 

मत खेलो

मुझको तो समझो

माँ तुम सबकी.

 

कहीं खाली

कहीं  भर दिया

लिया दिया.

 

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य- कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #28 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

आचार्य सत्य नारायण गोयनका

(हम इस आलेख के लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी, योगाचार्य एवं प्रेरक वक्ता योग साधना / LifeSkills  इंदौर के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के महान कार्यों से अवगत करने में  सहायता की है। आप  आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के कार्यों के बारे में निम्न लिंक पर सविस्तार पढ़ सकते हैं।)

आलेख का  लिंक  ->>>>>>  ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆  कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे # 28 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

(हम  प्रतिदिन आचार्य सत्य नारायण गोयनका  जी के एक दोहे को अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे, ताकि आप उस दोहे के गूढ़ अर्थ को गंभीरता पूर्वक आत्मसात कर सकें। )

आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे बुद्ध वाणी को सरल, सुबोध भाषा में प्रस्तुत करते है. प्रत्येक दोहा एक अनमोल रत्न की भांति है जो धर्म के किसी गूढ़ तथ्य को प्रकाशित करता है. विपश्यना शिविर के दौरान, साधक इन दोहों को सुनते हैं. विश्वास है, हिंदी भाषा में धर्म की अनमोल वाणी केवल साधकों को ही नहीं, सभी पाठकों को समानरूप से रुचिकर एवं प्रेरणास्पद प्रतीत होगी. आप गोयनका जी के इन दोहों को आत्मसात कर सकते हैं :

मन बंधन का मूल है, मन ही मुक्ति उपाय ।

विकृत मन जकड़ा रहे, निर्विकार खुल जाए ।। 

 आचार्य सत्यनारायण गोयनका

#विपश्यना

साभार प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

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Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 32 ☆ सीलापन ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जीसुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “सीलापन ”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 32☆

☆ सीलापन  

जब बारिश ज़्यादा हो जाती है,

न जाने क्यों

ये शामें बड़ी बेवफा सी लगने लगती हैं-

कुछ गुजरी कहानियां याद आती हैं,

कुछ छूटने का ग़म होता है,

कुछ बिछुड़ने का दर्द होता है,

कुछ घुटन सी लगती है,

कुछ वादे याद आते हैं,

और फिर बिजली के कड़कने के साथ

कुछ टूट सा जाता है!

 

बारिश का क्या है

अगले दिन ख़त्म हो जाती है,

पर उसका सीलापन

ज़हन को भिगोये रखता है!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ कर्म से कोरोना ☆ श्री कुमार जितेन्द्र

श्री कुमार जितेन्द्र

 

(युवा साहित्यकार श्री कुमार जितेंद्र जी  कवि, लेखक, विश्लेषक एवं वरिष्ठ अध्यापक (गणित) हैं। आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक रचना। )

☆ कर्म से कोरोना ☆

 

हे! मानव,

कैसा कर्म कर लिया तुमने,

कोरोना को जन्म देकर ।

त्राहिम- त्राहिम मचाया तुमने,

कोरोना को फैलाकर ।।

 

हे! मानव,

प्रकृति को भूल कर,

तोड़ी तुमने मर्यादा ।

मार पड़ी जब प्रकृति की,

तो हो गया हक्का – बक्का ।।

 

हे! मानव,

तुम हल्के में नहीं लेवे,

कोरोना की महामारी को ।

इटली और चाइना की तबाही,

देख रोके नहीं रुकती ।।

 

हे! मानव,

कैसा कर्म कर लिया तुमने,

कोरोना को जन्म देकर ।

त्राहिम- त्राहिम मचाया तुमने,

कोरोना को फैलाकर ।।

 

हे! मानव,

बच्चे, बूढ़े और बेघर का,

तुम्हें रखना है ख्याल ।

सभी रहें अपने घर,

कोरोना का हैं ईलाज ।।

 

हे! मानव,

नहीं होवे जनहानि,

कोरोना महामारी से ।

अफवाहों को न फैलाएं,

अफवाहें हैं बड़ा वायरस ।।

 

हे! मानव,

कैसा कर्म कर लिया तुमने,

कोरोना को जन्म देकर।l

त्राहिम- त्राहिम मचाया तुमने,

कोरोना को फैलाकर ।।

 

हे! मानव,

संबंधो में थी दूरिया,

पहले से ही गहरी ।

कोरोना के वायरस से,

गहरी हो गई और दूरिया ।।

 

हे! मानव,

स्वच्छता और एकांतपन है,

कोरोना का बचाव ।

समय नहीं है घबराने का,

सतर्कता का दे सुझाव ।।

 

हे! मानव,

कैसा कर्म कर लिया तुमने,

कोरोना को जन्म देकर ।

त्राहिम- त्राहिम मचाया तुमने,

कोरोना को फैलाकर ।।

 

✍?कुमार जितेन्द्र

साईं निवास – मोकलसर, तहसील – सिवाना, जिला – बाड़मेर (राजस्थान)

मोबाइल न. 9784853785

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हिन्दी साहित्य- कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #27 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

आचार्य सत्य नारायण गोयनका

(हम इस आलेख के लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी, योगाचार्य एवं प्रेरक वक्ता योग साधना / LifeSkills  इंदौर के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के महान कार्यों से अवगत करने में  सहायता की है। आप  आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के कार्यों के बारे में निम्न लिंक पर सविस्तार पढ़ सकते हैं।)

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Shri Jagat Singh Bisht

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☆  कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे # 27 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

(हम  प्रतिदिन आचार्य सत्य नारायण गोयनका  जी के एक दोहे को अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे, ताकि आप उस दोहे के गूढ़ अर्थ को गंभीरता पूर्वक आत्मसात कर सकें। )

आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे बुद्ध वाणी को सरल, सुबोध भाषा में प्रस्तुत करते है. प्रत्येक दोहा एक अनमोल रत्न की भांति है जो धर्म के किसी गूढ़ तथ्य को प्रकाशित करता है. विपश्यना शिविर के दौरान, साधक इन दोहों को सुनते हैं. विश्वास है, हिंदी भाषा में धर्म की अनमोल वाणी केवल साधकों को ही नहीं, सभी पाठकों को समानरूप से रुचिकर एवं प्रेरणास्पद प्रतीत होगी. आप गोयनका जी के इन दोहों को आत्मसात कर सकते हैं :

यही धर्म का नियम है, यही धर्म की रीत ।

धारे ही निर्मल बने, पावन बने पुनीत ।।

 आचार्य सत्यनारायण गोयनका

#विपश्यना

साभार प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 39 ☆ – विश्व कविता दिवस विशेष – जीवन प्रवाह ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में   wishw कविता दिवस पर उनकी विशेष कविता   जीवन प्रवाह । आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 39

☆  विश्व कविता दिवस विशेष  – जीवन -प्रवाह  ☆ 

(विश्व कविता दिवस पर जीवन की कविता – – – )
सबसे बड़ी होती है आग,

     और सबसे बड़ा होता है पानी।

तुम आग पानी से बच गए,

     तो तुम्हारे काम की चीज़ है धरती ।

धरती से पहचान कर लोग ,

तो हवा भी मिल सकती है ,

धरती के आंचल से लिपट लोगे

तो रोशनी में पहचान बन सकती है ,

तुम चाहो तो धरती की गोद में ,

       पांव फैलाकर सो भी सकते हो ,

धरती को नाखूनों से खोदकर ,

        अमूल्य रत्नों  को भी पा सकते हो ,

या धरती में खड़े होकर ,

        अथाह समुद्र नाप भी सकते हो ,

तुम मन भर जी भी सकते हो ,

         धरती पकडे यूं मर भी सकतेहो ,

कोई फर्क नहीं पड़ता ,

          यदि जीवन खतम होने लगे ,

असली बात तो ये है कि ,

धरती पर जीवन प्रवाह चलता रहे

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ कोरोना -केवल वायरस नहीं है! ☆ श्रीमती तृप्ति रक्षा

श्रीमती तृप्ति रक्षा  

(श्रीमती तृप्ति रक्षा जी  शिक्षिका हैं एवं  आपकी वेब पोर्टल पर कवितायेँ प्रकाशित होती रहती हैं। संगीत, पुस्तकें पढ़ना एवं सामाजिक कार्यों में विशेष अभिरुचि है।  विचार- स्त्री हूँ स्त्री के साथ खड़ी हूँ।  आज  प्रस्तुत है  आपकी एक समसामयिक कविता  “कोरोना -केवल वायरस नहीं है!” )

☆ कोरोना -केवल वायरस नहीं है! 

 कोरोना -केवल वायरस  नहीं है,
यह प्रकोप है
परमात्मा का ,
जिसे हमने खाद और पानी दियाहै
अपने अपराधों और
कुकृत्यों को बढ़ाकर ।
यह संतुलन है
हमारी प्रकृति का
जिसे हमने तार-तार किया है
धरती और पहाड़ों को बेधकर।
यह सूचक है
हमारी महत्त्वकांक्षा का,
जिसे हमने विकसित किया है
जैविक हथियारों के रूप में
मौत का सामान बनाकर।
यह आह्वान है
हमारी संस्कृति का
जिसे हम भूलने लगे  है,
और आगे बढ़ चले हैं
सब कुछ पीछे छोड़ कर।
यह अनुभूति है
उस दर्द का
जिसे हम महसूस कर सकते हैं,
आपस में  दूरी बढ़ाकर
या एक दूसरे को खोकर।
यह लड़ाई है
हम सबकी
आइए मिलकर लड़े,
मानवता के लिए
सारी कटुता भुलाकर।

© तृप्ति रक्षा

सिवान, बिहार

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ कोरोना कैसे होगा, कोई समझाए? ☆ श्री विनीत खरपाटे 

श्री विनीत खरपाटे 

( श्री  विनीत  खरपाटे जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आप ऐरोली नवी मुंबई में व्यवसायी हैं। विगत 30 वर्षों से समय समय पर स्वान्तः सुखाय कविता व लेख लिख कर संग्रहित करते हैं । अब तक चार हजार से अधिक रचनाएँ संग्रहित हैं । स्थानीय सामाजिक कार्यों में सक्रिय सहभागिता।  कभी प्रकाशित नहीं किया। यह आपकी प्रथम प्रकाशित रचना है। इसके लिए श्री विनीत जी को बधाई एवं शुभकामनाएं। आज प्रस्तुत है उनकी एक  समसामयिक  कविता  कोरोना कैसे होगा, कोई समझाए?)

☆ कोरोना कैसे होगा कोई समझाए ?

कुछ ना होगा जानू मैं यह

कैसे होगा कोई समझाए?

यह करोना तो फैलेगा

जो विदेश में रहता है।।

व्यक्ति से व्यक्ति तक पहुंचे

मीटर से ज्यादा ना कूदे

हवा से तो यह ना फैले

12 घंटे से ज्यादा जिए

28 डिग्री के बाद न जिए

 

कुछ ना होगा जानू मैं यह

कैसे होगा कोई समझाए ?

यह करोना तो फैलेगा

जो विदेश में रहता है

हां जीव समुंदर का खाएं तो

करोना हो सकता है

जो विदेश से घर को आए

उनसे भी ये हो सकता है

बस करना है चौकीदारी

मांस किसी का भी ना खाएं

जो विदेशों से घर को आए

इलाज कर ही घर पहुंचाएं।।

 

© विनीत खरपाटे

ऐरोली, नवी मुम्बई।

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य- कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #26 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

आचार्य सत्य नारायण गोयनका

(हम इस आलेख के लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी, योगाचार्य एवं प्रेरक वक्ता योग साधना / LifeSkills  इंदौर के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के महान कार्यों से अवगत करने में  सहायता की है। आप  आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के कार्यों के बारे में निम्न लिंक पर सविस्तार पढ़ सकते हैं।)

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☆  कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे # 26 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

(हम  प्रतिदिन आचार्य सत्य नारायण गोयनका  जी के एक दोहे को अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे, ताकि आप उस दोहे के गूढ़ अर्थ को गंभीरता पूर्वक आत्मसात कर सकें। )

आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे बुद्ध वाणी को सरल, सुबोध भाषा में प्रस्तुत करते है. प्रत्येक दोहा एक अनमोल रत्न की भांति है जो धर्म के किसी गूढ़ तथ्य को प्रकाशित करता है. विपश्यना शिविर के दौरान, साधक इन दोहों को सुनते हैं. विश्वास है, हिंदी भाषा में धर्म की अनमोल वाणी केवल साधकों को ही नहीं, सभी पाठकों को समानरूप से रुचिकर एवं प्रेरणास्पद प्रतीत होगी. आप गोयनका जी के इन दोहों को आत्मसात कर सकते हैं :

यही धर्म का नियम है, यही धर्म की रीत ।

धारे ही निर्मल बने, पावन बने पुनीत ।।

 आचार्य सत्यनारायण गोयनका

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ विश्वमारी या महामारी ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(आज मानवता अत्यंत कठिन दौर से गुजर रही है।  कई दिनों से ह्रदय अत्यंत  विचलित था । अंत में रचनाधर्मिता की जीत हुई और कुछ पंक्तियाँ लिख पाया। आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि आपका स्नेह मिलेगा और आप मेरी मनोभावनाओं से सहमत होंगे। आपको यह कविता पसंद आये तो मित्रों में अवश्य साझा करें। मेरे लिए नहीं सम्पूर्ण मानवता के लिए। यह आग्रह है मेरा  मानवता से मानवता के लिए । प्रस्तुत है मेरी  इसी क्षण लिखी गई समसामयिक कविता  “विश्वमारी या महामारी”।)

☆विश्वमारी या महामारी ☆

तुम मुझे कुछ भी कह सकते हो

विश्वमारी या महामारी

प्राकृतिक आपदा या मानव निर्मित षडयंत्र

अंत में हारोगे तो तुम ही न।

 

चलो मैं मान लेती हूँ,

मैं प्राकृतिक आपदा हूँ।

तुमने मेरा शांत-सौम्य रूप देखा था

और विभीषिका भी, यदा कदा।

 

कितना डराया था तुम्हें

आँधी-तूफान-चक्रवात से

भूकंप और भूस्खलन से

ओज़ोन छिद्र से

वैश्विक उष्णता से

जलवायु परिवर्तन से

और न जाने कितने सांकेतिक रूपों से

किन्तु,

तुम नहीं माने।

चलो अब तो मान लो

यह मानव निर्मित षडयंत्र ही है

जिसके ज़िम्मेदार भी तुम ही हो

तुमने खिलवाड़ किया है

मुझसे ही नहीं

अपितु

सारी मानवता से।

 

तुम्हें मैंने दिया था

सारा नश्वर संसार – ब्रह्मांड

और

यह अपूर्व मानव जन्म

सुंदर सौम्य प्राकृतिक दृश्य

शीत, वसंत, पतझड़, ग्रीष्म और वर्षा ऋतुएँ

हरे भरे वन उपवन

जीव-जंतु और सरीसृप

सुंदर मनमोहक झरने

शांत समुद्र तट

और

और भी बहुत कुछ

उपहारस्वरूप

जिनका तुम ले सकते थे ‘आनंद’।

 

किन्तु, नहीं,

आखिर तुम नहीं माने

तुमने शांत सुरम्य प्रकृति के बजाय

‘वैश्विक ग्राम’ की कल्पना की

किन्तु ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का सिद्धान्त भूल गए।

तुमने मानवता को

कई टुकड़ों में बांटा

रंगभेद, धर्म और जातिवाद के आधार पर।

तुमने प्राथमिकता दी

युद्धों और विश्वयुद्धों को

महाशक्ति बनने की राजनीति को

पर्यावरण से खेलने को

जीवों -सरीसृपों  को आहार बनाने को

विनाशक अस्त्र शस्त्रों को

स्वसंहारक जैविक शस्त्रों को

अहिंसा के स्थान पर हिंसा को

प्रेम के स्थान पर नफरत को

 

तुमने सारी शक्ति झोंक दी

विध्वंस में

गॅस चेम्बर और कॉन्सेंट्रेशन कैम्प

हिरोशिमा-नागासाकी और भोपाल गैस त्रासदी

गवाह हैं इसके।

तुम भूल गए

तुमने कितनी भ्रूण हत्याएं की

प्रत्येक सेकंड में कितने प्यारे बच्चे / मानव

भुखमरी, महामारी, रोग

और

नफरत की हिंसा के शिकार होते हैं।

काश,

तुम सारी शक्ति झोंक सकते

मानवता के उत्थान के लिए

दे सकते दो जून का निवाला

और बना सकते

अपने लिए अस्पताल ही सही।

 

तुम मुझे कुछ भी कह सकते हो

विश्वमारी या महामारी

प्राकृतिक आपदा या मानव निर्मित षडयंत्र

अंत में हारोगे तो तुम ही न।

 

आज जब मैंने तुम्हें आईना दिखाया

तो तुम डर गए

अपने घरों में दुबक कर बैठ गए

अब उठो

और लड़ो मुझसे

जिसके तुम्ही ज़िम्मेवार हो

अब भी मौका है

प्रकृति के नियमों का पालन करो

प्रकृति से प्रेम करो

रंगभेद, धर्म और जातिवाद से ऊपर उठकर

मानवता से प्रेम करो

अपने लिए न सही

कम से कम

अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए ही सही

जिसे तुमने ही जन्मा है

जैसे मैंने जन्मा है

तुम्हें – मानवता को

यह सुंदर सौम्य प्रकृति

उपहार है

तुम्हारे लिए

तुम्हारी आने वाली पीढ़ियों के लिए

मानवता के लिए।

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

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