हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस विशेष – भाषा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस विशेष – भाषा  

 

‘ब’ का ‘र’ से बैर है

‘श’ की ‘त्र’ से शत्रुता

‘द’ जाने क्या सोच

‘श’, ‘म’ और ‘न’ से

दुश्मनी पाले है,

‘अ’ अनमना-सा

‘ब’ और ‘न’ से

अनबन ठाने है,

स्वर खुद पर रीझे हैं

व्यंजन अपने मद में डूबे हैं,

‘मैं’ की मय में

सारे मतवाले हैं

है तो हरेक वर्ण पर

वर्णमाला का भ्रम पाले है,

येन केन प्रकारेण

इस विनाशी भ्रम से

बाहर निकाल पाता हूँ

शब्द और वाक्य बन कर

मैं भाषा की भूमिका निभाता हूँ।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

16.12.18, रात्रि 11:55 बजे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 26 ☆ प्रभात ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी के मौलिक मुक्तक / दोहे   “प्रभात ”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 26 ☆

☆ प्रभात ☆

सौगात

सूरज की यह लालिमा,देती सुखद प्रभात

खगकुल का कलरव मधुर,पूरब की सौगात

 

लालिमा

देख उषा की लालिमा,मन हर्षित हो जाय

करते सूरज को नमन,दिल से अर्घ चढ़ाय

 

पूरब

पूरब दिशा सुहावनी,पूरब घर का द्वार

उत्तम फल मिलता सदा,दूर भगे अँधियार

 

सूरज

सूरज की गर्मी सदा,करती नव बरसात

जिसके दिव्य प्रकाश से,डरती है यह रात

 

खगकुल

खगकुल की महिमा बड़ी,उनके रूप अनेक

देते संदेशा सुबह,काम करें सब नेक

 

प्रभात

प्रथम नमन माता-पिता,फिर प्रभात -सत्कार

करते जो उनके यहाँ,खुशियाँ सदाबहार

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अपने वरक्स ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – अपने वरक्स 

 

फिर खड़ा होता हूँ

अपने कठघरे में

अपने अक्स के आगे

अपना ही मुकदमा लड़ने,

अक्स की आँख में

पिघलता है मेरा मुखौटा

उभरने लगता है

असली चेहरा..,

सामना नहीं कर पाता

आँखें झुका लेता हूँ

और अपने अक्स के वरक्स

हार जाता हूँ अपना मुकदमा

हर रोज की तरह!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

( कविता संग्रह ‘मैं नहीं लिखता कविता’ से।)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र # 13 ☆ कविता – प्यार में ☆ डॉ. राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘चक्र’ 

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी  का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  महान सेनानी वीर सुभाष चन्द बोस जी की स्मृति में एक एक भावप्रवण कविता  “प्यार में.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 13 ☆

☆ प्यार में ☆ 

 

प्यार में हम जिए या मरे

मुश्किलों से मगर कब डरे

 

आस्था का समर्पण रहा

अर्घ्य देकर रहे हम खरे

 

बचपना जब हवा हो गया

फूल, शूलों में जाकर झरे

 

लोग कहते रहे यूँ हमें

कोई पागल, कोई मसखरे

 

खेत, बच्चे, पखेरू, विटप

सब मेरे दिल को लगते हरे

 

मेरे अंदर के बच्चे सभी

मुझसे मिलते हैं खुशियाँ भरे

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ बदल रहा है ” सारे ज़हाँ से अच्छा ” ☆– श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”

श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”

 

☆ बदल रहा है ” सारे ज़हाँ से अच्छा “☆

मिलकर चलो…मिलकर चलो…

बदल रहा है ” सारे ज़हाँ से अच्छा “…

वक्त कि मांग है मिलकर चलों…

“हरा” तो हर किसी का है…

केसरिया तो सारे जग का है…

” नीला” गगन तो सबका है…

” सफेद ” शांति जग की चाहत है…

मिलकर चलो…मिलकर चलो…

बदल रहा है ” सारे ज़हाँ से अच्छा “…

 

जो गुमराह हैं उनको समझने दें…

भयभीत को शांत होने दें…

ये वक्त है कलम से तकदीर लिखने का…

नये वक्त की तस्वीरों में नये रंग भरने का…

वक्त है वतन कि नई ईबारत लिखने का…

मिलकर चलो…..मिलकर चलो…

बदल रहा है ” सारे ज़हाँ से अच्छा ”

 

सोचो लड़कर आपस में क्या मिलेगा…

ये संसार हँसेगा भी और हम पर राज भी करेगा…

न भीड़ को ताकत का नाम दे…

हो रहा है कुछ नया, इसका अनुभव होने दें…

बढ़ते कदम जब आशंकित होगें….

भीड़ से हम फिर रूख बदल देंगे…

मिलकर चलो…..मिलकर चलो…

बदल रहा है ” सारे ज़हाँ से अच्छा ”

 

© माधव राव माण्डोले “दिनेश”, भोपाल 

(श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”, दि न्यू इंडिया एश्योरंस कंपनी, भोपाल में उप-प्रबन्धक हैं।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 35 – सोच के अनुरूप ही परिणाम भी…. ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी  की एक प्रेरक कविता  “सोच के अनुरूप ही परिणाम भी….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 35 ☆

☆ सोच के अनुरूप ही परिणाम भी…. ☆  

 

एक पग आगे बढ़ो

पग दूसरा आगे चलेगा।

 

एक निर्मल मुस्कुराहट

पुष्प खुशियों का खिलेगा।

 

एक सच के ताप में

सौ झूठ का कल्मष जलेगा।

 

इक निवाला प्रेम का

संतृप्ति का एहसास देगा।

 

सज्जनों की सभासद में

एक दुर्जन भी खलेगा।

 

खोट है मन में यदि तो

आस्तीन विषधर पलेगा।

 

प्रपंचों पर पल रहा जो

हाथ वो इक दिन मलेगा।

 

जी रहा खैरात पर

वो मूंग छाती पर दलेगा।

 

अंकुरित होगा वही

जो बीज भूमि में गलेगा।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – निर्वसन धरती और हरियाली ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – निर्वसन धरती और हरियाली  

 

तपता मरुस्थल

निर्वसन धरती

सूखा कंठ

झुलसा चेहरा

चिपचिपा बदन

जलते कदम,

वातावरण-

दूर-दूर तक

शुष्क और बंजर था,

अकस्मात-

मेरी बिटिया हँस पड़ी,

अब-

लबालब पहाड़ी झरने हैं

आकंठ तृप्ति है

कस्तूरी- सा महकता बदन है

तलवों में मखमल जड़ी है

और अब-

दूर-दूर तक

हरियाली खिली है..!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 27 ☆ खामोशी ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जीसुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “खामोशी”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 27 ☆

☆ खामोशी

बारिश है

कि बरसे ही जा रही है,

काले बादलों ने

हरी-भरी धरती को भिगो रखा है,

एक अजीब सी खामोशी है हर तरफ!

 

परिंदों की आवाज़

कहीं खो गयी है,

गुल भीग-भीगकर

नम हो गए है

और झर रहे हैं,

बस हवाएं हैं कि

ज़ोरों से बोले जा रही हैं

और मचल रही हैं

कुछ कहने को!

 

मेरा दिल भी

बहुत कुछ कहना चाहता है

पर इस खामोशी ने

मुझे भी भिगो रखा है

और आज मैं बैठी रहना चाहती हूँ

बस चुपचाप एक कोने में

अपने मन के साथ,

अपनी ज़िदगी की किताब के

हर पन्ने को को

बस पलट-पलटकर देखना चाहती हूँ;

बस यही तमन्ना है

कि जितना हो सके

चूस लूँ जुस्तजू के वो सारे लम्हे

जिसकी चिंगारी ने मेरे ज़हन में

रौशनी भर दी थी!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – जीवन और मृत्यु ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – जीवन और मृत्यु

*शाश्वत, चिरंतन प्रेमीयुगल की गाथा साझा करने का प्रयास रहा हूँ।*

बार-बार इशारा कर

वह बुलाती रही

देख समझ कर भी

वह अनदेखा रहा,

एक-दूसरे के प्रति

असीम आकर्षण

एक-दूसरे के प्रति

अबूझ भय,

धूप-छाँह सी

उनकी प्रीत

अंधेरे-उजाले सी

उनकी रिपुआई,

वे टालते हैं मिलना

प्राय: सर्वदा

पर जितना टला

मिलन उतना अटल हुआ,

जब भी मिले

एकाकार अस्तित्व चुना

चैतन्य, पार्थिव जो भी रहा

रहा अद्वैत सदा,

चाहे कितने उदाहरण

दे जग प्रेम-तपस्या के

जीवन और मृत्यु का नेह

कब किसीने समझा भला!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

( 21 जनवरी 2017, प्रात: 6:35 बजे)

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 7 ☆ शब्द … और कविता ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा। अब आप प्रत्येक मंगलवार को मेरी रचनाएँ पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है मेरी एक प्रिय कविता कविता “शब्द … और कविता”।)

मेरा परिचय आप निम्न दो लिंक्स पर क्लिक कर प्राप्त कर सकते हैं।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति #

☆ शब्द … और कविता ☆

 

मेरे शब्द

कभी सोते नहीं।

जब तुम सोते हो

तब भी नहीं

और

जब मैं सोता हूँ

तब भी नहीं।

 

ये

शब्द ही तो

मेरे वजूद हैं

मेरी पहचान हैं।

 

जब सारी दुनिया सोती है

अपनी अपनी दुनियाँ में

अपनी अपनी नींद में

तब ये शब्द ही

मुझे जगाते हैं

और

कराते हैं

अहसास

कि –

कुछ शब्द नादान हैं

एक दूसरे से अनजान हैं।

 

कोशिश करता हूँ

उन्हें जोड़ने

मन मस्तिष्क के शब्दकोश में

उन्हे बताने कि –

यही तो उनकी पहचान है।

ये शब्द

कभी – कभी

जुड़ जाते हैं

और

कभी कभी

हाथों से फिसल जाते हैं

और

चले जाते हैं

दूर

बहुत दूर।

 

झील के पार

नदी के पार

दूर

पहाड़ों पर

पहाड़ों पर बने

किलों पर

समुन्दर पर

और

कभी कभी

सात समुन्दर पार भी

सवार होकर

मेरे मन की उड़ान पर ।

 

शब्द तो

स्वतंत्र हैं।

उन्हें कोई भी

बाँध नहीं सकता।

किसी का

मन मस्तिष्क भी नहीं

और

किसी देश की

सीमा भी नहीं ।

 

जब कभी

होता हूँ अकेला

तब चुपचाप

ये ही शब्द

मुझे

सुनाते हैं

शान्त झील

और

पहाड़ी नदी के गीत

हरे – भरे

खेतों – मैदानों

की शान्ति

और

पहाड़ों

घने जंगलों में फैली

भयावहता की कहानियाँ।

श्मशान की भयावहता

और

ऐतिहासिक किलों में दफन

इतिहास।

 

इन सभी शब्दों का

अपना वजूद है

मेरे जेहन में

मेरे अपने शब्दकोश में ।

 

मेरे सभी शब्द

मेरे प्रिय हैं

मेरे अतिप्रिय हैं

 

कभी – कभी

राह चलते

मिल जाते हैं

कुछ कठोर शब्द!

जो विचलित कर देते हैं

तब

उन्हें करना पड़ता है – दरकिनार।

तभी

रच पाता हूँ

शेष शब्दों से

ऐसे ही एक कविता!

 

बेम्बर्ग 29 मई 2014

 

 

© हेमन्त बावनकर

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