हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – समकालीन प्रश्न  ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – समकालीन प्रश्न 

असंख्य आदमियों की तरह

आज एक और

आदमी मर गया,

अपने पीछे वे ही

अमर प्रश्न छोड़ गया,

समकालीन प्रश्न-

अब यह आदमी नहीं रहा

ऐसे में हमारा क्या होगा?

सार्वकालिक प्रश्न-

जन्म से पहले

आदमी कहाँ था,

मृत्यु के बाद

आदमी कहाँ जाएगा?

लगता है जैसे

कई तरह के प्रयोगों का

रसायन भर है आदमी,

जीवन की थीसिस के लिए

शोध और अनुसंधान का

साधन भर है आदमी।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(कवितासंग्रह ‘मैं नहीं लिखता कविता’ से)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र # 11 ☆ कविता/गीत – वाग्देवी माँ मुझे स्वीकार लो☆ डॉ. राकेश ‘चक्र’

डॉ. राकेश ‘चक्र’

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी  का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  वसंत पंचमी के अवसर पर एक अतिसुन्दर रचना   “वाग्देवी माँ मुझे स्वीकार लो.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 11 ☆

☆ वाग्देवी माँ मुझे स्वीकार लो ☆ 

 

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों -सा

सजा संसार दो

 

शब्द में भर दो मधुरता

अर्थ दो मुझको सुमति के

मैं न भटकूँ सत्य पथ से

माँ बचा लेना कुमति से

 

भारती माँ सब दुखों से

तार दो

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों -सा सजा

संसार दो

 

कोई छल से छल न पाए

शक्ति दो माँ तेज बल से

कामनाएँ हों नियंत्रित

सिद्धिदात्री कर्मफल से

 

बुद्धिदात्री ज्ञान का

भंडार दो

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों -सा सजा

संसार दो

 

भेद मन के सब मिटा दो

प्रेम की गंगा बहा दो

राग-द्वेषों को हटाकर

हर मनुज का सुख बढ़ा दो

 

शारदे माँ! दृष्टि को

आधार दो

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों-सा सजा

संसार दो

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ कविता ☆ वसंत पंचमी विशेष – सरस्वती वन्दना ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(प्रस्तुत है  हमारे आदर्श  गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा वसंत पंचमी  पर्व पर विशेष कविता  ‘सरस्वती वन्दना‘। ) 

 

 ☆ वसंत पंचमी विशेष – सरस्वती वन्दना ☆ 

शुभवस्त्रे हंस वाहिनी वीण वादिनी शारदे ,
डूबते संसार को अवलंब दे आधार दे !
हो रही घर घर निरंतर आज धन की साधना ,
स्वार्थ के चंदन अगरु से अर्चना आराधना
आत्म वंचित मन सशंकित विश्व बहुत उदास है,
चेतना जग की जगा मां वीण की झंकार दे !
सुविकसित विज्ञान ने तो की सुखों की सर्जना
बंद हो पाई न अब भी पर बमों की गर्जना
रक्त रंजित धरा पर फैला धुआं और औ” ध्वंस है
बचा मृग मारिचिका से , मनुज को माँ प्यार दे
ज्ञान तो बिखरा बहुत पर , समझ ओछी हो गई
बुद्धि के जंजाल में दब प्रीति मन की खो गई
उठा है तूफान भारी , तर्क पारावार में
भाव की माँ हंसग्रीवी , नाव को पतवार दे
चाहता हर आदमी अब पहुंचना उस गाँव में
जी सके जीवन जहाँ , ठंडी हवा की छांव में
थक गया चल विश्व , झुलसाती तपन की धूप में
हृदय को माँ ! पूर्णिमा सा मधु भरा संसार दे

 

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 32 – आओ कविता-कविता खेलें….☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी द्वारा रचित एक व्यंग्यात्मक कविता  “आओ कविता-कविता खेलें….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 32☆

☆ आओ कविता-कविता खेलें…. ☆  

 

आओ कविता-कविता खेलें

मन से या फिर बेमन से ही

एक, दूसरे को हम झेलें।

 

गीत गज़ल नवगीत हाइकु

दोहे, कुण्डलिया, चौपाई

जनक छन्द, तांका-बांका

माहिया,शेर मुक्तक, रुबाई,

 

लय,यति-गति,मात्रा प्रवाह संग

वर्ण गणों के कई झमेले। आओ कविता….

 

छंदबद्ध कुछ, छंदहीन सी

मुक्तछंद की कुछ कविताएं

समकालीन कलम के तेवर

समझें कुछ, कुछ समझ न पाएं

 

आभासी दुनियां में, सभी गुरु हैं

नहीं कोई है चेले। आओ कविता……..

 

वाह-वाह करते-करते अब

दिल से आह निकल जाती है

इसकी उधर, उधर से इसकी

कॉपी पेस्ट चली आती है,

 

रोज समूहों से मोबाइल

सम्मानों के खोले थैले। आओ कविता….

 

उन्मादी कवितायें, प्रेमगीत

कुछ हम भी सीख लिए हैं

मंचों पर पढ़ने के मंतर

मनमंदिर में टीप लिए हैं,

 

साथी कई और भी हैं इस

मेले में हम नहीं अकेले।  आओ कविता….

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ठूँठ ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – ठूँठ

हर ठूँठ

उगा सकता है

हरी टहनियाँ

अबोध अंकुर

खिलखिलाती कोंपले

और रंग-बिरंगे फूल,

चहचहा सकें जिस पर

पंछियों के झुंड..,

बस चाहिए उसे

थोड़ी सी खाद

थोड़ा सा पानी

और ढेर सारा प्यार,

कुछ यूँ ही-

हर आदमी चाहता है

पीठ पर हाथ

माथा सहलाती अंगुलियाँ

स्नेह से स्निग्ध आँखें

और हौसला बढ़ाते शब्द,

अपनी-अपनी भूमिका है,

तुम सब जुटे रहो

ठूँठों को हरा करने की मुहिम में

और मैं कोशिश करूँगा

कोई कभी ठूँठ हो ही नहीं!

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(कवितासंग्रह ‘मैं नहीं लिखता कविता’ से)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ कविता ☆ तो सारी दुनियाँ हो एक इकाई ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(प्रस्तुत है  हमारे आदर्श  गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा वसुधैव कुटुम्बकम  के सिद्धांत पर आधारित कविता  ‘तो सारी दुनियाँ हो एक इकाई‘। ) 

 

 ☆ तो सारी दुनियाँ हो एक इकाई ☆ 

 

प्रभात किरणें हटा अँधेरा क्षितिज पै आ मुस्कुरा रही हैं

प्रगति की चिड़िया हरेक कोने में बाग के चहचहा रहीं है।

मगर अजब हाल है जिंदगी का, कि पाके सब कुछ विपन्नता है-

भरे हुये वैभव में भी घर में, झलकती मन की ही  खिन्नता है ।।1।।

 

बढ़े तो आवागमन के साधन, घटी भी दुनियाँ की दूरियाँ हैं-

कठिन बहुत पर है कुछ भी पाना, बढ़ी कई मजबूरियाँ हैं

सिकुड़ के दुनियाँ हुई है छोटी, मगर है मैला हरेक कोना-

रहा मनुज छू तो आसमाँ को, विचारों में पर अभी भी बौना ।।2।।

 

सराहना कम है सद्गुणों की, पसरती ही दिखती है बुराई

कमी है सहयोग की भावना की, अधिक है मतभेद तथा लड़ाई ।

दुखी है मानव, मनुष्य से ही, मनुष्य ही उसका है भारी  दुश्मन,

अधर में छाई है मधुर मुस्कान पै विष छुपाये हुये ही है मन ।।3।।

 

सरल और  सीधे हैं दिखते आहत, जो चाहते ममता प्यार मल्हम

विचारना है मनुष्यता को कि उनके दुख दर्द  सब कैसे हों कम

अगर सही सोच की सर्जना हो, तो इस धरा पै सुख- शान्ति आये

समाज में यदि हो संवेदना तो यही धरा स्वर्ग का रूप पायें ।।4।।

 

बदलनी होगी प्रवृत्ति मन की, मिटाने होंगे सब शस्त्र और बम

न हो कहीं भी जो ‘‘तू-तू – मैं-मैं‘‘ सभी का नारा हो एक हैं हम

कहीं न मन में हो भेद कोई तो न कहीं भी हो कोई लड़ाई

मिटेंगे सारी बनाई सीमायें, हो सारी दुनिया बस एक इकाई ।।5।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 10 ☆ कविता – संस्कार ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण कविता  “संस्कार।)

☆ साप्ताहक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 10 ☆

☆ संस्कार ☆

 

कल जहाँ   से   चली   थी   वहाँ  आई  है

उसकी  किस्मत  कहाँ   से  कहाँ  लाई  है

 

ये    जरूरी   नहीं     रक्त   संबंधी   हों

जो   हिफाजत   करे  वो  मिरा  भाई  है

 

कैसी  बेसुध  हुई   आज   तरुणाईयाँ

देख  लज्जा  जिन्हें आज  सकुचाई है

 

जिसके कंधों पे है भार दुनिया का वो

हाँ वो  पीढ़ी  स्वयं  आज  अलसाई है

 

अब  हे  ईश्वर   बचा   संस्कारों को  तू

वरना निश्चित प्रलय की ही अगुआई है

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 24 ☆ धारा जब नदी बनी ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जीसुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “धारा जब नदी बनी”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 24 ☆

☆ धारा जब नदी बनी

उस धारा के हाथों को

उस ऊंचे से पहाड़ ने

बड़े ही प्रेम से पकड़ा हुआ था,

और उसके गालों से उसके गेसू उठाते हुए

उसने बड़ी ही मुहब्बत भरी नज़रों से देखते हुए कहा,

“मैं तुमसे प्रेम करता हूँ!”

 

धारा

पहाड़ के प्रेम से अभिभूत हो

बहने लगी-

कभी इठलाती हुई,

कभी गीत गाती हुई!

इतना विश्वास था उसे

पहाड़ की मुहब्बत पर

कि उसने कभी पहाड़ों के आगे क्या है

सोचा तक नहीं!

 

पहाड़ का दिल बहलाने

फिर कोई नयी धारा आ गयी थी,

और इस धारा को

पहाड़ ने धीरे से धकेल दिया

और छोड़ दिया उसे

अपनी किस्मत के हाल पर!

 

कुछ क्षणों तक तो

धारा खूब रोई, गिडगिडाई;

पर फिर वो भी बह निकली

किस्मत के साथ

अपनी पीड़ा को अपने आँचल में

बड़ी मुश्किल से संभालते हुए!

 

यह तो धारा ने

पहाड़ से अलग होने के बाद

और नदी का रूप लेने के पश्चात जाना

कि उसके अन्दर भी शक्ति का भण्डार है

और उसकी सुन्दरता में

चार चाँद लग आये!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 4 ☆ बूढ़ा फकीर ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(माँ सरस्वती तथा आदरणीय गुरुजनों के आशीर्वाद से “साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति” लिखने का साहस/प्रयास कर रहा हूँ। अब स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा। इस आशा के साथ ……

मेरा परिचय आप निम्न दो लिंक्स पर क्लिक कर प्राप्त कर सकते हैं।

परिचय – हेमन्त बावनकर

Amazon Author Central  – Hemant Bawankar 

अब आप प्रत्येक मंगलवार को मेरी रचनाएँ पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है मेरी एक रचना “बूढ़ा फकीर”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति #4 

☆ बूढ़ा फकीर  ☆

बूढ़ा फकीर

बूढ़ा फकीर ही होता है।

जो फकीर

फकीर नहीं होता

वो फकीर हो ही नहीं सकता।

 

उसकी न कोई जात होती है

न उसका कोई मजहब ही होता है

और

यदि उसके पास कुछ होता है

तो वो उसका ईमान ही होता है।

 

मस्तमौला है वो

फक्कड़ है वो

कुछ मिला तो भी खुश

कुछ ना मिला तो भी खुश।

 

एक दिन देर शाम

बूढ़े फकीर ने

अपनी पोटली से दो रोटियाँ निकाली

एक रोटी दे दी

दौड़ कर आए कुत्ते को

और

दूसरी रोटी खा ली।

कटोरे का थोड़ा पानी खुद पी लिया

और

थोड़ा पिला दिया

दौड़ कर आए कुत्ते को।

 

एक इंसान दूर खड़ा देख रहा था

तमाशा

बड़े अचरज से

नजदीक आ कर पूछा

“बाबा …..?”

 

बूढ़े फकीर ने टोकते हुए कहा –

“जानता हूँ क्या पूछना चाहते हो?

ऊपर वाले ने

पेट सबको दिया है

और रोटी पानी पर

हक भी सब को दिया है।“

 

इंसान

देखता रह गया

और

बूढ़ा फकीर

सो गया

पोटली का सिरहाना बनाकर

बिना छत वाले आसमान के नीचे

जिसका रंग

आसमानी नीले से सुर्ख स्याह हो चला था ।

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

20 दिसम्बर 2016

 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मृत्यु ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – मृत्यु 

…मृत्यु पर इतना अधिक क्यों लिखते हो?
…मैं मृत्यु पर नहीं लिखता।
…अपना लिखा पढ़कर देखो।
…अच्छा बताओ, जीवन में अटल क्या है?
…मृत्यु।
…जीवन में नित्य क्या है?
… मृत्यु।
…जीवन में शाश्वत क्या है?
…मृत्यु।
… मैं अटल, नित्य और शाश्वत पर लिखता हूँ।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(11.42 बजे, 22.1.2020)

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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