हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 14 ☆ दोहे सलिला ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपके दोहे सलिला . )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 14 ☆ 

☆ दोहे सलिला ☆ 

❃ ❃ ❃ ❃ ❃

मन में अब भी रह रहे, पल-पल मैया-तात।

जाने क्यों जग कह रहा, नहीं रहे बेबात।।

❃ ❃ ❃ ❃ ❃

रचूँ कौन विधि छंद मैं,मन रहता बेचैन।

प्रीतम की छवि देखकर, निशि दिन बरसें नैन।।

❃ ❃ ❃ ❃ ❃

कल की फिर-फिर कल्पना, कर न कलपना व्यर्थ।

मन में छवि साकार कर, अर्पित कर कुछ अर्ध्य।।

❃ ❃ ❃ ❃ ❃

जब तक जीवन-श्वास है, तब तक कर्म सुवास।

आस धर्म का मर्म है, करें; न तजें प्रयास।।

❃ ❃ ❃ ❃ ❃

मोह दुखों का हेतु है, काम करें निष्काम।

रहें नहीं बेकाम हम, चाहें रहें अ-काम।।

❃ ❃ ❃ ❃ ❃

खुद न करें निज कद्र गर, कद्र करेगा कौन?

खुद को कभी सराहिए, व्यर्थ न रहिए मौन.

❃ ❃ ❃ ❃ ❃

प्रभु ने जैसा भी गढ़ा, वही श्रेष्ठ लें मान।

जो न सराहे; वही है, खुद अपूर्ण-नादान।।

❃ ❃ ❃ ❃ ❃

लता कल्पना की बढ़े, खिलें सुमन अनमोल।

तूफां आ झकझोर दे, समझ न पाए मोल।।

❃ ❃ ❃ ❃ ❃

क्रोध न छूटे अंत तक, रखें काम से काम।

गीता में कहते किशन, मत होना बेकाम।।

❃ ❃ ❃ ❃ ❃

जिस पर बीते जानता, वही; बात है सत्य।

देख समझ लेता मनुज, यह भी नहीं असत्य।।

❃ ❃ ❃ ❃ ❃

भिन्न न सत्य-असत्य हैं, कॉइन के दो फेस।

घोडा और सवार हो, अलग न जीतें रेस।।

❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ सत्य ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ सत्य 

प्रलय के बाद

बचा रहता है सत्य,

सृजन के पूर्व

विद्यमान होता है सत्य,

सत्य आदिबिंदु है,

सत्य इतिबिंदु है,

अपरंपार ही सत्य

संसार भी सत्य,

ईश्वर ही सत्य

नश्वर भी सत्य,

ज्ञान ही सत्य

विज्ञान भी सत्य,

यथार्थ ही सत्य

कल्पना भी सत्य,

सूक्ष्म ही सत्य

स्थूल भी सत्य,

एक ही सत्य

अनेक भी सत्य,

सत्य अनादि

सत्य अनंत,

सत्यं परं धीमहि

एकं सद् विप्रा बहुधा वदंति!

©  संजय भारद्वाज

(प्रातः 9.55 बजे, 17.6.19)

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।#घर में रहें। सुरक्षित रहें।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 41 ☆ पत्थर में एक किरदार ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है  सौ. सुजाता काळे जी  द्वारा  प्राकृतिक पृष्टभूमि में रचित एक अतिसुन्दर भावप्रवण  कविता  “पत्थर में एक किरदार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 41 ☆

☆ पत्थर में एक किरदार ☆

 

हर पत्थर में एक चेहरा दिखता है

कोई हरा, कोई नीला

और कोई लाल दिखता है।

कोई श्वेत, कोई श्याम

और कोई पीला दिखता है।

हर पत्थर में एक चेहरा दिखता है।

 

हर चेहरा ओढ़े हैं एक मुखौटा

मुझे हर पत्थर में एक किरदार दिखता है।

कुछ अजीब सा नशा है रंगीन पत्थरों में

‘सांज’ हर किरदार मुझे अपना सा लगता है।

हर पत्थर में एक चेहरा दिखता है।

 

© सुजाता काळे

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोबाईल 9975577684

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ चुप्पियाँ-14 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ चुप्पियाँ-14 

आदमी

बोलता रहा ताउम्र,

दुनिया ने

अबोला कर लिया,

हमेशा के लिए

चुप हो गया आदमी,

दुनिया आदमी पर

बतिया रही है!

 

©  संजय भारद्वाज

प्रातः 9:44 बजे, 2.9.2018

( कवितासंग्रह *चुप्पियाँ* )

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।#घर में रहें। सुरक्षित रहें।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 52 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 52 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे  ☆

 

नव्य विधा है काव्य की, झरता है संगीत।

सरस  काव्य की धार से, निकला है नवगीत।।

 

पछुवा की चलने लगी, तेज हवा तत्काल।

अपने अगन समेटती, वर्षा  दृष्टि विशाल।।

 

सांझ सबेरे ढूंढ़ती, पनघट राधा श्याम।

आस लगाए टेरती,  कहां छुपे घन श्याम।।

 

शिल्पकार गढ़ने लगे, कौशल शील विधान।।

होती उत्तम शिल्प की, प्रथक श्रेष्ठ पहचान।।

 

शिल्प साधना से लिखा,  साहित्यिक इतिहास।

साध रहे रस छंद को, भाव और विन्यास।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 43 ☆ चमक-दमक ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  भावप्रवण कविता  “चमक-दमक ”। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 43 ☆

☆ चमक-दमक ☆

चमक-दमक है ऊपरी,दुनिया माया जाल ।

कभी न इससे उलझिए,जी का यह जंजाल ।।

 

चमक-दमक अब शहर की,बढ़ा रहे हैं माल ।

कोरोना के दौर में,ये खतरे के जाल ।।

 

चमक-दमक मन मोहती,दिल पर करती घात ।

सूरत देख सुहावनी,मचल उठें जज्बात ।।

 

चमक -दमक रख बाहरी,अंदर ह्रदय मलीन ।

सादा जीवन जी रहे,सज्जन और कुलीन  ।।

 

ऊपर-ऊपर मेकअप,भीतर गन्दी सोच  ।

बाहर-भीतर विविधता, यह चरित्र की लोच ।।

 

नेताओं की चमक का,जाने क्या है राज ।

दिन दूनी दौलत बढ़े, निर्धन हैं मुहताज।।

 

झूठ सँवरकर नाचता,जैसे वन में मोर ।

करता सीधा वार सच,बिना चमक बिन शोर ।।

 

चमक-दमक इस चर्म की,दिल को लेती मोह।

जो गिरता इस गर्त में,निकले दिल से ओह ।।

 

संस्कृति अपनी भूलकर, चमक-दमक में आज ।

दिल में अब”संतोष” रख,मोह विदेशी त्याज  ।।

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ संजय* ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ संजय 

दिव्य दृष्टि की

विकरालता का भक्ष्य हूँ,

शब्दांकित करने

अपने समय को विवश हूँ,

भूत और भविष्य

मेरी पुतलियों में

पढ़ने आता है काल,

वर्तमान परिदृश्य हूँ,

वरद अवध्य हूँ,

कालातीत अभिशप्त हूँ!

©  संजय भारद्वाज

(18.5.2018, अपराह्न 3:50 बजे)

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।#घर में रहें। सुरक्षित रहें।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 33 ☆ तुम भारत हो ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक सकारात्मक एवं भावप्रवण कविता  “तुम भारत हो.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 33 ☆

☆  तुम भारत हो ☆ 

 

तुम भारत हो पहचान करो

स्वमेव स्वयं

बुद्धम शरणम

 

खगकुल का वंदन है देखे

अब भोर हँसे

स्व शांत चित्त ये सागर भी

मन मोर बसे

प्रियवर के  अनगिन हैं मोती

चिर जीव रसे

 

पवन सुखद है तरुणाई

सुंदर वरणम

तुम भारत हो पहचान करो

स्वमेव स्वयं

बुद्धम शरणम

 

है अतुल सिंधु पावन बेला में

प्रीत बिंदु

अब अपना स्व लगता है

मीत बन्धु

मनवा ने छोड़े द्वंद्व

रच रहा नए छंद

 

प्राची में है लाली छाई

कमलम अरुणम

तुम भारत हो पहचान करो

स्वमेव स्वयं

बुद्धम शरणम

 

दृग में चिंतन, उर में मंथन

है अब आया

ये धरा बनी कुंदन चन्दन

है मन भाया

है वंदन करती पोर-पोर

खिलती काया

 

है सत चित भी अब

आनन्दम करुणम

तुम भारत ही पहचान करो

स्वमेव स्वयं

बुद्धम शरणम

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ विश्वास ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ विश्वास 

रोज रात

सो जाता हूँ

इस विश्वास से कि

सुबह उठ जाऊँगा,

दर्शन कहता है-

साँसें बाकी हैं

तोे उठ पाता हूँ,

मैं सोचता हूँ-

विश्वास बाकी है

सो उठ जाता हूँ..!

©  संजय भारद्वाज

(बुधवार 15 जून 2016, रात्रि 12:10 बजे)

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।#घर में रहें। सुरक्षित रहें।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 4 – हर फूल में महक हो जरूरी नहीं ☆ – श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी  अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता हर फूल में महक हो जरूरी नहीं. 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 4 – हर फूल में महक हो जरूरी नहीं ☆

 

हर फूल में महक हो यह कोई जरूरी नहीं,

बस खिल कर किसी के काम आ जाए यह क्या कम है?

 

हर फूल का इत्र बने यह कोई जरूरी नहीं,

बस खिल कर बगिया को रोशन कर दे यह क्या कम है?

 

हर फूल बगिया को रोशन करे यह जरूरी नहीं,

भगवान के चरणों में जगह पा धन्य हो जाए यह क्या कम है?

 

हर फूल मंदिर में चढ़ पवित्र हो जाए यह जरूरी नहीं,

किसी तस्वीर पर चढ़ लोगों की आंखे नम कर दे यह क्या कम है?

 

हर फूल तस्वीर पर चढ़े यह भी कोई जरूरी नही,

फूल खिलकर बगियाँ को रंग-बिरंगा कर दे यह क्या कम है?

 

हर फूल पर कांटों का पहरा हो यह कोई जरूरी नही,

रंग बिरंगे फूल फिजा में खुशबू फैला दे यह क्या कम है?

 

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002

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