डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
(अग्रज एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं। आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ “तन्मय साहित्य ” में प्रस्तुत है अग्रज डॉ सुरेश कुशवाहा जी के आयु के 71 वर्ष के शुभारंभ पर कविता “साठोत्तरीय…….”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 28☆
☆ साठोत्तरीय……. ☆
इकहत्तर की वय में, वही चेतना, प्राण वही है
परिवर्तित मौसम में भी, मन में अरमान वही है।
है, उमंग – उत्साह, बदन में चाहे दर्द भरा हो
पीड़ा की पगडंडी यदि, मंजिल का एक सिरा हो
पा लेंगे चलते – चलते, जो सोचा यहीं कहीं है.
परिवर्तित———-
आत्म शक्ति और संकल्पों का, लेते हुए सहारा
आशाओं के बल पर, टिका हुआ विश्वास हमारा
शिथिल शिराएं हुई, किन्तु हम शक्तिहीन नहीं हैं
परिवर्तित———–
कई तरंगे रंग बिरंगी, अन्दर दबी पड़ी है
जग को कुछ नूतन देने को, तत्पर चाह खड़ी है
सब उतार दें कागज पर, जो अबतक नहीं कही है
परिवर्तित————
पाया जो जग से अब तक, लौटाने की है बारी
देखें कर्ज चुकाने की, क्या की हमने तैयारी
सींचें उन्हें और, जिनसे जीवन रसधार बही है
परिवर्तित————
आदर्शों की लिखें वसीयत नवपीढ़ी के नाम करें
अबतक अपने लिए जिये, आगे कुछ ऐसे काम करें
नीर क्षीर हों पावन, जीने का ये मार्ग सही है
परिवर्तित————-
महकाएं इस मनमंदिर को, मुरझाने से पहले
तन्मय हो निर्मल सरिता बन, अंतर्मन में बह लें
द्रष्टा बनें स्वयं के, बाहर के प्रपन्च सतही है
परिवर्तित मौसम में——
© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
जबलपुर, मध्यप्रदेश
मो. 989326601