हिन्दी साहित्य – कविता ☆ पूर्णिमा का चाँद  ☆ सुश्री सरिता त्रिपाठी

सुश्री सरिता त्रिपाठी  

( युवा साहित्यकार सुश्री सरिता त्रिपाठी जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आप  CSIR-CDRI  में एक शोधार्थी के रूप में कार्यरत हैं। विज्ञान में अब तक 23 शोधपत्र अंतरराष्ट्रीय जर्नल में सहलेखक के रूप में प्रकाशित हुए हैं। वैज्ञानिक एवं तकनीकी क्षेत्र में कार्यरत होने के बावजूद आपकी हिंदी साहित्य में विशेष रूचि है । आज प्रस्तुत है आपकी  भावप्रवण कविता “पूर्णिमा का चाँद”। )

आज जन्मदिवस के अवसर पर आपको हार्दिक शुभकामनाएं !

☆ पूर्णिमा का चाँद ☆  

 

निकले जो रात को टहलने

चाँदनी का वो दीदार हुआ

निकला तो था वो आज पूरा

पूर्णिमा का चाँद जो था

 

रोशनी की तमन्ना में नयन

टकटकी जो लगाए बैठे थे

देखने को वो चाँद पूरा

फुर्सत से आ बैठे थे

 

देखते देखते घिर गया था वो

बादलों के उस चादर से

अपने मोबाइल में हमने भी

उसे कैद कर लिये थे

 

सिमट रहा था वो अब

बादलों के आगोश में

उसकी इस बेबसी पे

हम बेचैन हो रहे थे

 

© सरिता त्रिपाठी

लखनऊ, उत्तर प्रदेश

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 42 ☆ ग़ज़ल ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  “ग़ज़ल  ”।  यह कविता आपकी पुस्तक एक शमां हरदम जलती है  से उद्धृत है। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 42 ☆

☆ ग़ज़ल  ☆

 

प्यासी रूह को मुकम्मल करे ऐसा मुनफ़रिद सुराग है यह

यूं फूंककर हवाओं से न बुझाओ कि जलता चराग है यह

 

कांपते दिल को दे जो सुकून, तड़पते लबों को आराम

समझो तो कुछ भी नहीं, समझो तो दहकती आग है यह!

 

वैसे भी बुझाए कहाँ बुझे हैं मोहब्बत के जलते शोले?

धधकती हुई लौ दिल में छुपाये सुलगता अलाव है यह!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ अजातशत्रु ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ अजातशत्रु 

आँखों में आँखें डालकर

धमकी भरे स्वर में

उसने पूछा,

तुमसे मिलने आ जाऊँ?

उसकी बिखरी लटें समेटते

दुलार से मैंने कहा,

अपने चाहनेवाले से

इस तरह कभी

पेश आता है भला कोई?

जाने क्या असर हुआ

शब्दों की अमरता का,

वह छिटक कर दूर हो गई,

मेरी नश्वरता

प्रतीक्षा करती रही,

उधर मुझ पर रीझी मृत्यु

मेरे लिए जीवन की

दुआ करती रही..!

 

©  संजय भारद्वाज

(9.48 बजे, 14 जून 2019)

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।#घर में रहें। सुरक्षित रहें।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ आईना ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी  बेंगलुरु के जैन महाविद्यालय में सह प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं  साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, स्वर्ण मुक्तावली- कविता संग्रह, स्पर्श – कहानी संग्रह, कशिश-कहानी संग्रह विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज ससम्मान  प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण एवं सार्थक कविता आईना।  इस बेबाक कविता के लिए डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी की लेखनी को सादर नमन।)  

☆ कविता – आईना ☆ 

 

नहीं श्रृंगार का मात्र

यह आईना है समाज का

इंसान को परखने का

समस्या से जूझते जब

भी

देखते है आईना

मिलता है सुकून

समय की नज़ाकत

बनते-बिगडते रिश्ते

देश का भविष्य भी

नज़र आता है

परिपक्व और सौम्य

प्रतिबिम्ब समाज का

आत्मावलोकन इंसान का

आईना है पूरक सच्चाई की

इंसान के मन की परत

खोलकर आईना दिखाता

रास्ता उसे..

 

अच्छे- बुरे की पहचान

सही-गलत का फैसला

सगुण- निर्गुण का,

लेखा-जोखा है आईना

अंतर्मन का विस्तार है

संघर्ष व बलिदान की

कहानी दोहराता है

इतिहास को देखकर

आईने में शहीदों को

याद कर सीना गर्व से

इतराता है…

 

देश की आज़ादी

देख खुश होता है मन

तो दूसरी ओर

जर्जर होता देश भी

देखते हैं आईने में

बहता अश्रु न रुकता है

मुंम्बई में बम्ब ब्लास्ट

वो शहीदों की लाशे

बच्चों की चीख

सब कुछ नज़र आते ही

कान पर हाथ रख देते हैं

दंगे-फसाद सब के मूल में

देश की हर परेशानी

हर खुशी में मौजूद

समाज साक्ष है आईना ।

 

©  डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

लेखिका, सहप्राध्यापिका, हिन्दी विभाग, जैन कॉलेज-सीजीएस, वीवी पुरम्‌, वासवी मंदिर रास्ता, बेंगलूरु।

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 55 – सिद्धेश्वरी के दोहे  ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  शब्दों पर आधारित अप्रतिम  “ सिद्धेश्वरी के दोहे   ।   इस सर्वोत्कृष्ट  प्रयास  के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 55 ☆

☆ सिद्धेश्वरी के दोहे 

 

1. भूकंप 

आया भूकंप  धरती फटी, मची त्राहि-त्राहि

सहे प्रकृति का कोप सब, समय सूझे कुछ नाहि

 

2.कुटिया

कहे कबीर कुटिया भली, भवन महल अटारी

दो गज जमीन सोइये, मीठी नींद सवारी

 

3.चौपाल

चौपालों में बैठ दादा, कहते राम कहानी

राज छोड़ वनवास गये, कैकयी टेढ़ी जबानी

 

4.नवतपा

नवतपा की ताप बहुत, हाहाकार मचाय

भरी दोपहरी न निकले, शरीर अपने बचाय

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे। )

 ✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

 

बांच सको तो बांच लो ,आंखों का अखबार।

प्रथम पृष्ठ से अंत तक ,लिखा प्यार ही प्यार ।।

 

नयन तुम्हारे वेद सम,  चितवन  है श्लोक ।

पा लेता हूं यज्ञ फल, पलक पुराण विलोक।।

 

नयन देखकर आपके, हुआ मुझे एहसास।

जैसे ठंडी आग में, झुलस रही हो प्यास ।।

 

आंखों के आकाश में, घूमे सोच विचार।

अंत:पुर आंसू बसे, पलके पहरेदार ।।

 

आंखों आंखों दे दिया, मन का चाहा दान।

आंखों में ही डूब कर, हुआ कुंभ का स्नान ।।

 

इन आंखों में क्या भरा, हरा किया जो काठ।।

सहमति हो तो डूब कर, कर लूं पूजा-पाठ ।।

 

खुली आंख देखा किए, दुनिया का दस्तूर ।

अभी अभी जो था यहां, अभी अभी है दूर।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

9300121702

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 7 – पानी की पीर ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है उनका अभिनव गीत  “पानी की पीर ”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ #7 – ।। अभिनव गीत ।।

☆ पानी की पीर  ☆

 

एक बहिन  ::  गगरी

कलशा   ::  एक भाई

लौट रही पनघट से

मुदिता भौजाई

 

प्यास बहुत गहरी

पर उथली घडोंची

पानी की पीर

जहाँ गई नहीं पोंछी

 

एक नजर छिछली पर

जगह-जगह पसरी है

सम्हल सम्हल चलती

है  घर  की   चौपाई

 

कमर कमर अँधियारा

पाँव पाँव दाखी

छाती पर व्याकुल

कपोल सदृश पाखी

 

एक छुअन गुजर चुकी

लौट रही दूजी

लम्बाया इंतजार

जो था चौथाई

 

नाभि नाभि तक उमंग

क्षण क्षण गहराती है

होंठों  ठहरी तरंग

जैसे उड़ जाती है

 

इठलाती चोटी है

पीछे को उमड़ घुमड़

आज  इस नई संध्या

जैसे बौराई

 

© राघवेन्द्र तिवारी

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ सत्य ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ सत्य 

प्रलय के बाद

बचा रहता है सत्य,

सृजन के पूर्व

विद्यमान होता है सत्य,

सत्य आदिबिंदु है,

सत्य इतिबिंदु है,

अपरंपार ही सत्य

संसार भी सत्य,

ईश्वर ही सत्य

नश्वर भी सत्य,

ज्ञान ही सत्य

विज्ञान भी सत्य,

यथार्थ ही सत्य

कल्पना भी सत्य,

सूक्ष्म ही सत्य

स्थूल भी सत्य,

एक ही सत्य

अनेक भी सत्य,

सत्य अनादि

सत्य अनंत,

सत्यं परं धीमहि

एकं सद् विप्रा बहुधा वदंति!

©  संजय भारद्वाज

(प्रातः 9.55 बजे, 17.6.19)

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।#घर में रहें। सुरक्षित रहें।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ निधि की कलम से # 13 ☆ घरोंदा ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता  “घरोंदा”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 13 ☆ 

☆ घरोंदा  ☆

 

मैंने एक घरोंदा बनाया था,

यादों की मिट्टी से उसे खड़ा कर पाया था।

 

सपनों के पानी से उसे सींचा था,

लम्हों की मिट्टी से उसे बनाया था,

सब की नज़रों से उसे बचाया था,

एक और आशियाना बनाया था,

उसके कमरे में मेरा एक एक सपना छुपाया था।

 

मैंने एक घरोंदा बनाया था,

यादों की मिट्टी से उसे खड़ा कर पाया था।

 

सच्चाईयों के समुद्र ने बहा दिया,

तेज धूप ने उसे जला दिया,

तेज आँधी ने उसे गिरा दिया,

लोगों की ठोकरों ने उसे गिरा दिया,

दुनिया के छल-कपट ने मुझे रुला दिया।

 

मैंने एक घरोंदा बनाया था,

यादों की मिट्टी से उसे खड़ा कर पाया था।

 

उम्र की बढ़ती राह पर घरोंदें की सच्चाई समझ में आई है,

हर कमजोर वस्तु का भविष्य समझ में आया है,

घरोंदा छोड़ मकान का स्वपन सजाया है,

ईट गारे के साथ विश्वास से ठोस बनाया है,

हर नींव के पत्थर को अपने ऊपर विश्वास के काबिल बनाया है।

 

मैंने एक घरोंदा बनाया था,

यादों की मिट्टी से उसे खड़ा कर पाया था।

 

©  डॉ निधि जैन, पुणे

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #2 ☆ हम तो मजदूर हैं ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है।  सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग  स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आखिर मैं भी तो वही कर रहा हूँ। आज से हम प्रत्येक सोमवार आपका साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी प्रारम्भ कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है एक समसामयिक एवं भावप्रवण रचना  “हम तो मजदूर हैं ”। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #2 ☆ 

☆ हम तो मजदूर हैं  ☆ 

 

निकल पड़े हैं हम सड़कों पे

मंज़िल अभी दूर है

हम तो मजदूर है

 

लगे हुए है काम पर ताले

कैसे अपना पेट पाले

जमा पूंजी सब खत्म हो गई

भूख हमपे हावी हो गई

संगी साथी सब बेचैन हैं

कट रही आंखों में रैन हैं

थक हार कर सब चूर हैं

हम तो मजदूर हैं

 

सर पर गठ़री, गोद में बच्चा

आंख में आंसू, कमर में लच्छा

ऐंठती आंतें, रूकती सांसें

भटक रहे हैं, भूखे प्यासे

तपती धूप, झूलसते पांव

आंखें ढ़ूंढ रही है छांव

प्रवासी होना क्या कसूर है ?

हम तो मजदूर हैं

 

मौत हो गई कितनी सस्ती

खाली हो गई मजदूर बस्ती

पैदल,ट्रक, बस या रेलगाड़ी

मजदूर मर रहे बारी-बारी

घड़ियाली आंसू रो रहे हैं

हमको दोष दे रहे हैं

हम असहाय, लाचार, मजबूर हैं

हम तो मजदूर हैं

 

मंदिर, मस्जिद, गिरजे, गुरूद्वारे

बंद पड़े हैं अब तो सारे

किसको हम फरियाद सुनायें

किसको अपना दर्द बतायें

भूल गया है शाय़द अफ़सर

जीवन का अंतिम ठिकाना

राजा हो या रंक

मरकर सबको वहीं है जाना

जीवन-मृत्यु के दो-राहे पर

हम खड़े बेकसूर हैं

हम तो मजदूर हैं

हां भाई! हम तो मजदूर हैं

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़)

मो  9425592588

26/06/2020

Please share your Post !

Shares