हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 18 ☆ रूहानियत ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “रूहानियत”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 18 ☆

☆ रूहानियत

मिटना ही है एक दिन,

मिट ही जायेंगे तेरे बोल!

माती सा तेरा जिस्म,

इसका कहाँ कहीं कोई मोल?

 

आवाज़ का ये जो दरिया है

किसी दिन ये सूख जाएगा;

और ये जो चाँद सा रौशन चेहरा है

अमावस्या में ढल जाएगा!

 

ये जो मस्तानी सी तेरी चाल है,

इसका कहाँ कुछ रह जाएगा?

ये जो छोटा सा तेरा ओहदा है,

ये तो उससे भी पहले ख़त्म हो जाएगा!

 

ये जो तेरी इतराती हुई हँसी है,

ये भी चीनी सी घुल जायेगी;

ये जो बल खाती तेरी अदाएं हैं,

ये तुझसे चुटकी में जुदा हो जायेंगी!

 

सुन साथी, इन बातों पर तू गुमान न कर,

ये सब तो ख़ुदा की ही देन हैं!

सर झुका ले ख़ुदा के आगे,

ये तेरा हर जलवा ख़ुदा का प्रेम है!

 

जिस दिन तू रूहानियत के

कुछ करीब आ जाएगा;

उसी दिन सुन ए साथी,

तू मुकम्मल हो जाएगा!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 2 ☆ घर/नवगीत ☆ – श्री प्रयास जोशी

श्री प्रयास जोशी

(श्री प्रयास जोशी जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आदरणीय श्री प्रयास जोशी जी भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स  लिमिटेड भोपाल से सेवानिवृत्त हैं।  आपको वरिष्ठ साहित्यकार  के अतिरिक्त भेल हिंदी साहित्य परिषद्, भोपाल  के संस्थापक सदस्य के रूप में जाना जाता है। 

ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि – इस बार हम एक नया प्रयोग  करेंगे ।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने यात्रा संस्मरण श्री सुरेश पटवा जी की कलम से आप तक पहुंचाई एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक सतत पहुंचा रहे हैं।  हमें प्रसन्नता है कि  श्री प्रयास जोशी जी ने हमारे आग्रह को स्वीकार कर यात्रा  से जुडी अपनी कवितायेँ  हमें,  हमारे  प्रबुद्ध पाठकों  से साझा करने का अवसर दिया है। इस कड़ी में प्रस्तुत है उनकी कविता  “घर/नवगीत”। 

☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 2 – घर/नवगीत ☆

 

मेरा घर तो, कच्चा घर था

यह पक्का घर, मेरा नहीं है..

–मेरा घर तो, नदी किनारे

घने नीम की, छाया में था

जिस में बैठ, परिंदे दिन भर

गाना गाते थे..

–इस घर में वह, छांव कहां है?

लिपा-पुता, आँगन था मेरा

धूप, हवा, पानी की जिसमें

कमी नहीं थी..

मेरा घर तो, फूलों वाला

खुशबू वाला, कच्चा घर था

यह पक्का घर, मेरा नहीं है..

–हंस-हंस कर हम, सुबह-शाम

मिलते थे खुल कर

बिना बात की, बात नहीं थी

मेरे घर में…

मेरा घर तो, कच्चा घर था

यह पक्का घर, मेरा नहीं है

 

(नर्मदा की वैचारिक यात्रा में गरारूघाट पर लिखा गीत)

 

©  श्री प्रयास जोशी

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 1 ☆ नर्मदा की आवहवा ☆ – श्री प्रयास जोशी

श्री प्रयास जोशी

(श्री प्रयास जोशी जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आदरणीय श्री प्रयास जोशी जी भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स  लिमिटेड भोपाल से सेवानिवृत्त हैं।  आपको वरिष्ठ साहित्यकार  के अतिरिक्त भेल हिंदी साहित्य परिषद्, भोपाल  के संस्थापक सदस्य के रूप में जाना जाता है। 

ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि – इस बार हम एक नया प्रयोग  करेंगे ।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने यात्रा संस्मरण श्री सुरेश पटवा जी की कलम से आप तक पहुंचाई एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक सतत पहुंचा रहे हैं।  हमें प्रसन्नता है कि  श्री प्रयास जोशी जी ने हमारे आग्रह को स्वीकार कर यात्रा  से जुडी अपनी कवितायेँ  हमें,  हमारे  प्रबुद्ध पाठकों  से साझा करने का अवसर दिया है। इस कड़ी में प्रस्तुत है उनकी कविता  “नर्मदा की आवहवा”। 

☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 1 – नर्मदा की आवहवा ☆

बेटे ने,

सामान उठाते हुये कहा-

पापा! अपनी आदत के बोझ को

थोड़ा कम करिये

—पिता ने, हंसते हुये कहा-

बेटा! समय के उधड़े होने के बावजूद

इस झोले में मुझे

यादों का भार बिल्कुल नहीं लगता…

—मैं, तो सिर्फ इसलिये कह रहा हूँ पापा

कि जब आप पिछली बार आये थे

तो होशंगाबाद, इटारसी की

कितनी सारी सब्जियाँ लाद लाये थे

परेशानी उठाने की कोई

फालतू जरूरत नहीं है पापा

यहां बेंगलौर में,

सब मिलता है

इस बार मम्मी ने कहा-

लेकिन बेटा ! इस बार हम

करेली का गुड़,

नरसिंहपुर की मटर

और

जबलपुर के सिंघाड़े लाये हैं…

—बेटा, हँसा….

— पिता ने कहा-

मैं, क्या यह नहीं जानता कि

दुनिया में हर जगह,

हर चीज मिलती है?

लेकिन इन में नर्मदा का पानी

मिट्टी और आवहवा है

जिसके दम पर तुम

दुनिया भर में उड़ते-फिरते हो,

समझे …

पापा! आप भी बस..

—पापा ने बहू से कहा—

मेरे इस झोले को

संभाल कर रखना, संध्या!

लौटते समय मैं/

इसी झोले में

कावेरी का पानी

मिट्टी और आवहवा लेकर

भोपाल जांउगा मैं…

 

©  श्री प्रयास जोशी

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 10 – विशाखा की नज़र से ☆ पाठशाला ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी रचना पाठशाला अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 10 – विशाखा की नज़र से 

☆ पाठशाला ☆

 

लगती है परिंदों की पाठशाला ,

वृक्ष की कक्षाओं में ।

गूँज उठती हैं हर दिशा ,

इस पाठ के दुहराव में ।

 

चीं -चीं करती माँ चिड़ियाँ ,

क्या कुछ नन्हे को सिखलाती है ।

कुछ आरोहित स्वर में ,

घटनाक्रम समझाती है ।

 

मैं खिड़की से देख दृश्य ,

भ्रमित हर बार हो जाती हूँ ।

इतने शब्द है मेरे पास ,

पर ना अंश को समझा पाती हूँ ।

 

नन्हे परिन्दें माँ की सीख

आत्मसात कर जाते है ।

अंश मेरी सीख पर

प्रश्न चिन्ह लगाते है ।

 

क्या मस्तिष्क का विकसित होने

विकास की निशानी है ।

या परिदों सा जीवन जीना ,

जीवन  की कहानी है ।

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – कविता/ग़ज़ल ☆ मेरे घर का मंज़र देखना ☆ – सुश्री शुभदा बाजपेई

सुश्री शुभदा बाजपेई

 

(सुश्री शुभदा बाजपेई जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आप हिंदी साहित्य  की ,गीत ,गज़ल, मुक्तक,छन्द,दोहे विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं। सुश्री शुभदा जी कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं एवं आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर  कई प्रस्तुतियां। आज प्रस्तुत है आपकी एक आपकी एक बेहतरीन ग़ज़ल  “मेरे घर का मंज़र देखना ”. )

 

☆ मेरे घर का मंज़र देखना ☆

 

तुम कभी  आकर के मेरे घर  का मंज़र देखना,

दर्द के बिस्तर पे  फ़ैली ग़म की चादर देखना।

 

रात की तन्हाई में जब मैं लिखूंगी खत कभी,

आग में लिपटे  हुए  अक्षर उठाकर देखना।

 

खुद समझ जाओगे तुम पीडा मेरे मन की जनाब,

एक पल मेरी जगह पर खुद को लाकर देखना।

 

आईनो को छोडकर खुदको कभी तन्हाई में,

दीन-ओ-ईमान की मूरत बना कर देख्नना।

 

लोग धोखा खायेंगे इस बार भी ‘शुभदा’ सुनो

खोखली मुस्कान चेहरे पर सजाकर देखना।

 

© सुश्री शुभदा बाजपेई

कानपुर, उत्तर प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – मृत्यु ! ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संजय दृष्टि  –  मृत्यु!

मृत्यु क्या है..?

फोटो का फ्रेम में टँक जाना,

जीवन क्या है…?

फ्रेम बनवाना, फोटो खिंचवाना,

एक सिक्के के दो पहलू हैं,

कभी इस ओर आना

कभी उस पार जाना…!

आजका दिन सार्थक बीते।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ विधुर बंधुओं को समर्पित – आर्तनाद ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

 

(आज प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित  विधुर बंधुओं को समर्पित एक कविता – आर्तनाद

श्री सूबेदार पाण्डेय जी के शब्दों में  – ‘आर्तनाद’ का अर्थ है, दुखियारे के दिल की दर्द में डूबी आवाज।  कवि की ये रचना उसी बिछोह के पीड़ा भरे पलों का चित्रण करती है। जब जीवन में साथ चलते-चलते जीवनसाथी अलविदा हो जाता है, तब रो पड़ती हैं दर्द में डूबी आँसुओं से भरी आँखें, और जुबां से निकलती है गम के समंदर में डूबी हुई आवाज। यह रचना समाज के विधुर बन्धुओं को समर्पित है।)

☆ विधुर बंधुओं को समर्पित – आर्तनाद  ☆

 

हाय प्रिये तुम कहाँ खो गई,
अब मैं तुमसे मिल न सकूंगा।
अपने सुख-दुख मन की पीड़ा,
कभी किसी से कह न सकूं गा।

 

घर होगा परिवार भी होगा,
दिन होगा रातें भी होगी।
रिश्ते होंगे नाते भी होंगे,
फिर सबसे मुलाकातें होगी।

 

जब तुम ही न होगी इस जग में,
फिर किससे दिल की बातें होंगी।
।। हाय प्रिये तुम कहाँ खो गई ।।1।।

 

मेरे जीवन में ऐसे आई तुम,
जैसे जीवन में बहारें आई थी।
सुख दुःख में मेरे साथ चली,
कदमों से कदम मिलाई थी।

 

जब थका हुआ होता था मैं,
तुमको ही सिरहाने पाता था।
तुम्हारे हाथों का कोमल स्पर्श,
मेरी हर पीड़ा हर लेता था।
।। हाय प्रिये तुम कहाँ खो गई ।।2।।

 

इस जीवन के झंझावातों में,
दिन रात थपेड़े खाता था।
फिर उनसे टकराने का साहस,
मैं तुमसे ही तो पाता था ।

 

रूखा सूखा जो भी मिलता था,
उसमें ही तुम खुश रहती थी,
अपना गम और अपनी पीड़ा,
क्यों कभी न मुझसे कहती थी।
।। हाय प्रिये तुम कहाँ खो गई ।।3।।

 

मेरी हर खुशियों की खातिर,
हर दुख खुद ही सह लेती थी।
मेरे आँसुओं के हर कतरे को,
अपने दामन में भर लेती थी।

 

जब प्यार तुम्हारा पाता तो,
खुशियों से पागल हो जाता था।
भुला कर सारी दुख चिंतायें
तुम्हारी बाहों में सो जाता था।
।। हाय प्रिये तुम कहाँ खो गई ।।4।।

 

तुम मेरी जीवन रेखा थी,
तुम ही  मेरा हमराज थी।
और मेरे गीतों गजलों की,
तुम ही तो आवाज थी।

जब नील गगन के पार चली,
मेरे शब्द खामोश हो गये।
बिगड़ा जीवन से ताल-मेल,
मेरे हर सुर साज खो गये।
।। हाय प्रिये तुम कहाँ खो गई ।।5।।

मँझधार में जीवन नौका की,
सारी पतवारें जैसे टूट गई हो।
तूफानों से लड़ती मेरी कश्ती,
किनारे पर जैसे डूब रही हो।

मेरे जीवन से तुम ऐसे गई,
मेरी बहारें जैसे रूठ गई हो।
इस तन से जैसे प्राण चले,
जीने की तमन्ना छूट गई हो।

शेष बचे हुए दिन जीवन के,
तुम्हारी यादों के सहारे काटूंगा,
अपने पीड़ा अपने गम के पल,
कभी नहीं किसी से बाटूंगा।

तुम्हारी यादों को लगाये सीने से,
अब बीते कल में मैं खो जाउंगा।
ओढ़ कफन की चादर इक दिन,
तुमसा गहरी निद्रा में सो जाऊंगा।

।। हाय प्रिये तुम कहाँ खो गई ।।6।।

 

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 16 ☆ विजय ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

((सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की पर्यावरण और मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक भावप्रवण कविता  “विजय”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 16 ☆

☆ विजय

कालरात्रि पर विजय पाना,
बड़ा कठिन होता है।
पर अमावस हो या हो पूनम,
जीना सिखलाता है…..

अंबर से एक तारा टूटे,
उसे क्या फर्क पड़ता है
जिनका एक मात्र सहारा छूटे,
उन्हें जीना तो पड़ता है…..

लंका दहन हो मर्कट का
या कुरूक्षेत्र का चक्रव्यूह हो
शत्रु पर पाने को विजय
भेदन तो करना पड़ता है…..

© सुजाता काळे,

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684

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हिन्दी साहित्य – साहित्य निकुंज # 23 ☆ कविता ☆ सागर की गहराई ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  उनकी कविता सागर की गहराई । 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 23  साहित्य निकुंज ☆

☆ सागर की गहराई

 

कौन जान सका

है सागर की गहराई

कौन समझ सका

सागर के उतार चढ़ाव को।

कितना चाहा

सागर को कसना।

पर न हो सका संभव

उठती है जब तरंगे

मचलता है सागर

आता है उफान

बांहे फैलाता है सागर

समेटने के लिए

संभव नहीं लम्हों को रोकना

बेबस सी मै देखती हूं

इन लम्हों लम्हों को

उफनते सागर को

छलकते गागर को ।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 13 ☆ चंगी जान,जहान है ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है उनकी भावप्रवण  कविता  “चंगी जान,जहान है ”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़ सकेंगे . ) 

 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 13 ☆

☆ चंगी जान,जहान है  ☆

 

चंगी जान,जहान है ।

सेहत ही धनवान है ।।

 

मिलता किसको साथ यहाँ।

सोचो सभी अनाथ यहाँ।।

ईश्वर कृपा महान है ।

चंगी जान,जहान है ।।

 

सबकी अपनी राह अलग।

भरी स्वार्थ से चाह अलग ।।

कहाँ बचा ईमान है ।।

चंगी जान,जहान है ।।

 

बातें केवल प्यार की ।

चाहत के इकरार की ।।

चढ़ती जो परवान है ।

चंगी जान,जहान है ।।

 

सच से सब कतराते हैं।

जिन्दा झूठ पचाते हैं।।

कैसा अब इंसान है ।

चंगी जान,जहान है ।।

 

मंज़िल सबकी एक यहाँ ।

राहें अपितु अनेक यहाँ ।।

तन की गति शमशान है ।

चंगी जान,जहान है ।।

 

होगा स्वस्थ अगर तन-मन।

तब होगा “संतोष” भजन।।

जीवन कर्म प्रधान है ।

चंगी जान,जहान है

चंगी जान,जहान है ।।

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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