हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 1 ☆ गीत – अभिनन्दन है ☆ – डॉ. राकेश ‘चक्र’

डॉ. राकेश ‘चक्र’

(डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत है। 

हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ राकेश जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा एक लाख पचास हजार के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। 

यह हमारे लिए गर्व की बात है कि डॉ राकेश ‘चक्र’ जी ने  ई- अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से अपने साहित्य को हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर लिया है। इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं उनका एक गीत   “अभिनन्दन है ”..)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 1 ☆

☆  अभिनंदन है  ☆ 

 

प्रीत भरे गीत का

अभिनंदन है

वन्दन है,वंदन है,वन्दन है

 

जयति राष्ट्र गान हो

लय ललित विधान हो

प्रेम की प्रतीति का

मान, स्वाभिमान हो

 

मीत भरे गीत का

अभिनंदन है

वंदन है, वंदन है, वंदन है

 

वीणा को तान दो

मधुरिम मुस्कान दो

पावन उजियारे को

नव नित पहचान दो

 

रीत भरे गीत का

अभिनंदन है

वंदन है, वंदन है, वंदन है

 

नयनों में सागर हो

जीवन ये गागर हो

झरते ये झरनों का

नदियों सा जागर हो

 

कीर्ति भरे गीत का

अभिनंदन है

वंदन है , वंदन है ,वंदन है

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – पाखण्ड ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

(We present an English Version of this Hindi Poetry “पाखण्ड ”  as ☆ Hypocrisy☆.  We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation. )

☆ संजय दृष्टि  –  पाखण्ड

मुखौटों की

भीड़ से घिरा हूँ

किसी चेहरे तक

पहुँचूँगा या नहीं

प्रश्न बन खड़ा हूँ,

मित्रता के मुखौटे में

शत्रुता छिपाए,

नेह के आवरण में

विद्वेष से झल्लाए,

शब्दों के अमृत में

गरल की मात्रा दबाए,

आत्मीयता के छद्म में

ईर्ष्या से बौखलाए,

मनुष्य मुखौटे क्यों जड़ता है,

भीतर-बाहर अंतर क्यों रखता है?

मुखौटे रचने-जड़ने में

जितना समय बिताता है

जीने के उतने ही पल

आदमी व्यर्थ गंवाता है,

श्वासोच्छवास में कलुष

अस्तित्व को कसैला करता है,

गंगाजल-सा जीवन रखो मित्रो,

पाखंड में क्या धरा है..?

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य # 21– ये चेहरे सब दूध धुले हैं…. ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  मन  से  एक कविता   “ये चेहरे सब दूध धुले हैं….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 22☆

☆ ये चेहरे सब दूध धुले हैं….☆  

 

इन्हें कुर्सियों पर बैठाओ

ये चेहरे सब दूध धुले हैं।।

 

ये नैतिकता के चारण हैं

कान लगाकर ध्यान लगाओ

कहे रात को दिन, तो दिन है

दिन को कहे रात, सो जाओ।

है बेदागी ये वैरागी

त्यागी, तपसी शहद घुले हैं

ये चेहरे सब दूध धुले हैं।।

 

दिवस-रैन, बेचैन-व्यथित

नृपवंशज राजकुमार दुलारे

देशप्रेम, जन-जन के खातिर

भटक रहे दर-दर बेचारे।

कुनबों सहित समर्पित,अपने

अपनों के करतब भूले हैं

ये चेहरे सब दूध धुले हैं।।

 

कोई भी हद पार करेंगे

बस यह आसन्दी है पाना

लक्ष्य एक,अवरोधक है जो

कैसे भी है उसे हराना।

दलदलीय क्रन्दनवन में

मिल,झूल रहे सावन झूले हैं

ये चेहरे सब दूध धुले हैं।।

 

उधर कहे वे, मेरी सल्तनत

यहाँ, नहीं कोई आएगा

पूछ-परख की नहीं इजाजत

सही वही, जो मन भायेगा।

क्रय-विक्रय, सौदेबाजी

गठबंधन के बाजार खुले हैं

ये चेहरे सब दूध धुले हैं।।

 

इधर सभी हैं आत्ममुग्ध

सत्ता के मद में, हैं बौराये

दर्प भरे से, भ्रमित उचारे

बिन सोचे जो मन में आये।

राष्ट्रप्रेम ज्यूँ निजी धरोहर

जतलाकर, मन में फूले हैं

ये चेहरे सब दूध धुले हैं।।

 

अदल-बदल के खेल चल रहे

बेशर्मी के ओढ़ मुखौटे

कठपुतली से नाच रहे हैं

खूब चल रहे सिक्के खोटे।

इधर रहे बेभाव अन्तुले

उधर गए तो स्वर्ण तुले हैं

ये चेहरे सब दूध धुले हैं।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 17 ☆ रौशनाई!☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “रौशनाई!”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 17 ☆

☆ रौशनाई!

ये क्या हुआ, कहाँ बह चली ये गुलाबी पुरवाई?

क्या किसी भटके मुसाफिर को तेरी याद आई?

 

बहकी-बहकी सी लग रही है ये पीली चांदनी भी,

बादलों की परतों के पीछे छुप गयी है तनहाई!

 

क्या एक पल की रौशनी है, अंधेरा छोड़ जायेगी?

या फिर वो बज उठेगी जैसे हो कोई शहनाई?

 

डर सा लगता है दिल को सीली सी इन शामों में,

कहीं भँवरे सा डोलता हुआ वो उड़ न जाए हरजाई!

 

ज़ख्म और सह ना पायेगा यह सिसकता लम्हा,

जाना ही है तो चली जाए, पास न आये रौशनाई!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

 

 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – अपवाद ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  अपवाद

 

एक ही पिता की

संतानों के स्वभाव

और संकल्प में

ध्रुवीय अंतर

नई बात नहीं है,

मेरी पीड़ा और

मेरी जिजीविषा भी

अपवाद नहीं हैं!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #24 – कुर्बान जिस्म जाँ ये, मेरी यहाँ वतन पर ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक  भावप्रवण हिंदी ग़ज़ल  “कुर्बान जिस्म जाँ ये, मेरी यहाँ वतन पर”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 24 ☆

 

☆ कुर्बान जिस्म जाँ ये, मेरी यहाँ वतन पर ☆

 

कुर्बान जिस्म जाँ ये मेरी यहाँ वतन पर

मैं नाम खुद लिखूंगा मेरा वहाँ कफ़न पर

 

मैं हाथ तोड़ दूंगा गद्दार के कसम से

कोई न हाथ डाले अब देश की बहन पर

 

झंडा सफे़द लेकर शव को उठाने आओ

गिनलो निशान सारे ना’पाक’ इस बदन पर

 

बारूद कम हुआ है अल्लाह की फ़जल से

अब फूल ही खिलेंगे कश्मीर के चमन पर

 

दुनिया समझ गई है दमख़म यहाँ हमारा

अब नाम हिंद का मैं लिख दूं वहाँ गगन पर

 

शांति की राह पर हम चलते रहे निरंतर

विश्वास है हमारा गांधी के उस भजन पर

 

भूखा किसान क्यो है इसका जवाब चुप्पी

कुछ साथ दे रहे हैं नेता बडे गबन पर

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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हिंदी साहित्य – कविता / Poetry – ☆ She Walks in Beauty / चलती फिरती सौंदर्य प्रतिमा ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।)

सुप्रसिद्ध कवि लार्ड बायरन की कविता  She Walks in Beauty / चलती फिरती सौंदर्य प्रतिमा  का कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी  द्वारा अनुवाद एक संयोग है।

इस सन्दर्भ में हम आपसे एक महत्वपूर्ण जानकारी साझा करना चाहेंगे। डॉ विजय कुमार मल्होत्रा जी (पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय,भारत सरकार) को इसी वर्ष जून माह में  यूनाइटेड किंगडम  के प्रसिद्ध शहर  नॉटिंघम  जाने का अवसर मिला। प्रवास के दौरान उन्हें हिन्दी कवयित्री और काव्यरंग की अध्यक्षा श्रीमति जय वर्मा जी ने अंग्रेज़ी के प्रसिद्ध कवि लॉर्ड बायरन की विरासत से भी परिचित कराया. रॉबिनहुड और लॉर्ड बायरन के नाम से प्रसिद्ध इस शहर में महात्मा गाँधी भी कुछ समय तक रुके थे. जहाँ बायरन ने  Don Juan जैसी कविताएँ लिखीं, वहीं  She Walks in Beauty जैसी प्रेम और प्रकृति की मिली-जुली कल्पनाओं पर आधारित कविताएँ भी लिखीं.

डॉ विजय कुमार मल्होत्रा जी के ही शब्दों में “कालजयी रचनाओँ को हिंदी-अंग्रेज़ी में अनूदित करने का बीड़ा उठाने वाले मेरे मित्र कैप्टन प्रवीण रघुवंशी ने “चलती-फिरती सौंदर्य प्रतिमा” शीर्षक से इसका हिंदी में अनुवाद भी कर दिया. मैंने पावर-पॉइंट (PPT) के माध्यम से दी गई अपनी प्रस्तुति में इस कविता को मूल अंग्रेज़ी के साथ-साथ हिंदी में भी प्रतिभागियों को सुनाया. सभी ने इसके हिंदी अनुवाद की भूरि-भूरि प्रशंसा की.”

यह अनुवाद इंग्लैंड में हिन्दी प्रोफेसरों को बहुत पसंद आया था। उन्होने कई देशों में इसका अपने भाषणों में उपयोग भी किया है जिसका सबसे सहृदय प्रतिसाद प्राप्त हुआ।

आइए…हम लोग भी इस कविता का मूल अंग्रेज़ी के साथ-साथ हिंदी में भी रसास्वादन करें और अपनी प्रतिक्रियाओं से इसके हिंदी अनुवादक कैप्टन प्रवीण रघुवंशी  को परिचित कराएँ.   

 

Original English Poem By Lord Byron

☆ She Walks in Beauty

She walks in beauty, like the night

Of cloudless climes and starry skies;

And all that’s best of dark and bright

Meet in her aspect and her eyes;

Thus mellowed to that tender light

Which heaven to gaudy day denies.

 

One shade the more, one ray the less,

Had half impaired the nameless grace

Which waves in every raven tress,

Or softly lightens o’er her face;

Where thoughts serenely sweet express,

How pure, how dear their dwelling-place.

 

And on that cheek, and o’er that brow,

So soft, so calm, yet eloquent,

The smiles that win, the tints that glow,

But tell of days in goodness spent,

A mind at peace with all below,

A heart whose love is innocent!

 – Lord Byron

 

लार्ड बायरन की मूल कविता का कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा हिंदी अनुवाद  

☆ चलती-फिरती सौंदर्य प्रतिमा ☆

रात्रि की भाँति, वो  सौन्दर्य-प्रतिमा,

 बादलों से विहीन, तारों भरी

रात्रि में

   अंधकार और प्रकाश की

अप्रतिम छटा लिये

चहलकदमी करती रही…

 

आकर्षक डील-डौल, सोहनी आँखे

भीनी-भीनी चाँदनी में पिघलती हुई

जो दिन के उजाले में कदापि

ईश्वर प्रदत्त भी संभव नहीं,

ऐसी लावण्यपूर्ण अनामिका!

 

एक अतिशय रंगीन छटा,

एक और वांछित किरण,

लहराती स्याह वेणियां

अर्ध-प्रच्छादित मुखाकृति

को और भी निखारती हुई…

जहाँ विचार मात्र ही

निरन्तर मधु-सुधा टपकाते…

कितना पवित्र, कितना प्यारा

उसका संश्रय…!

 

दैवीय कपोलों, के मध्यास्थित,

उन वक्र भृकुटियों  में

वो इतनी निर्मल, इतनी शांत,

फिर भी नितांत चंचल

विजयी मुस्कान लिए!

 

वो दैदीप्यमान आभा,

सौम्यता में व्यतीत क्षणों को

अभिव्यक्त करते हुए

एक शांतचित्त मन

एक निष्कपट प्रेम परितृप्त

वो कोमल हृदय धारिणी…!

 

–  कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, पुणे

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 9 – विशाखा की नज़र से ☆ सुख – दुःख ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी रचना सुख – दुःखअब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 9 – विशाखा की नज़र से

☆ सुख – दुःख ☆

 

मैंने दुःख को विदा किया

कभी ना लौट आने के लिए

वो सुख की चादर ओढ़ आया

मेरे निश्चय की आजमाइश में ।

 

उसने विदाई का सम्मान किया

बस दूर खड़े रह सुख का नाट्य किया

हाथों में गुब्बारे लिए उसने

मेरे बालमन को लोभित किया

 

कभी वो ख़्वाबों की तश्तरी लाया

कभी रंग -बिरंगी तितलियाँ लाया

मेरी बढ़ती ताक -झाँक को

उसकी नजरो ने जान लिया

 

दुःख था बड़ा बहुरूपिया

समझता था मेरी कमजोरियाँ

हर उस शख्स का उसने रूप धरा

जिससे कभी था मेरा नाता जुड़ा

 

सब्र का मेरे बांध ढहा

हल्के से मन का किवाड़ खुला

दहलीज पर जो मैंने कदम रखा

मृगमरीचिका सा भरम हुआ

 

मैं दौड़ पड़ी उस ओर

सुख की चाह थी पुरजोर

उसने भी चादर फैला के मुझे

अपने अंक में समेट लिया

 

मै पहुँची अंध लोक

बस सुख की ही थी खोज

सुख का स्पर्श मुझे याद था

पर वहाँ कही ना उसका आभास था

 

मेरी आँखों से अश्रु बहे

सुख चाहे पर  दुःख मिले

क्यों पुराने पाठ ना याद रहे

सुख -दुःख सदा ही साथ रहे ।

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 11 ☆ एक आस-विश्वास तुम्हीं हो ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है उनके   भावप्रवण  दोहे  “एक आस-विश्वास तुम्हीं हो”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़ सकेंगे . ) 

 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 11 ☆

☆  एक आस-विश्वास तुम्हीं हो ☆

 

राधा नाम परम् सुखदाई
राधे-राधे भजो लगन से, तुरत सुनें यदुराई
श्याम प्रिया वृषभानु दुलारी, राधा मन चितलाई।
राधा बिन हैं कृष्ण अधूरे, राधे चित हरषाई
मुरली राधा नाम उचारे, ऐसी तान सुनाई
मन मोहन के मन को हरती, राधा की रसिकाई
जपता मन “संतोष” रैन-दिन, राधा कृष्ण कन्हाई
केशव तुम बिन और न कोई
एक आस-विश्वास तुम्हीं हो, तुम ही हो सब कोई
हर संकट से हमें उबारो, बिपदा जो भी होई
करते हैं प्रभु कृपा-अनुग्रह, परम् हितैषी सोई
नित्य श्याम, राधा गुण गाते, राधा प्रभु बिन रोई
ऐसी पावन प्रीति न जग में, जिसने आँख भिगोई
श्याम-शरण “संतोष” निरंतर,चिंतन प्रीति बिलोई।

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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हिन्दी साहित्य – ☆ बाल दिवस विशेष ☆ बाल कविता – बचपन ☆ – सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

बाल दिवस विशेष 

सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

( सुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आप मानव संसाधन में वरिष्ठ प्रबंधक हैं।  आपने बचपन में ही स्कूली शिक्षा के समय से लिखना प्रारम्भ किया था। आपकी पहली रचना दैनिक भास्कर में 1997 में प्रकाशित हुई थी। इसके अतिरिक्त आपकी रचनाएँ सकाळ एवं अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों / पत्रिकाओं तथा मानव संसाधन की पत्रिकाओं  में  भी समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। हाल ही में आपकी कविता “Sahyadri Echoes” में पुणे के प्रतिष्ठित काव्य संग्रह में प्रकाशित हुई है। आज प्रस्तुत है बाल दिवस के उपलक्ष में आपकी एक बाल कविता ” बचपन” । हम भविष्य में आपके उत्कृष्ट साहित्य को अपने पाठकों से साझा करने की अपेक्षा करते हैं।

☆ बाल कविता – बचपन  ☆

बचपन मेरा अच्छा था ,

जब मैं छोटा बच्चा था ,

मिट्ठी में खेला करता था ,

फिर भी साफ़ सुथरा रहता था ,

अपनों से लड़ता झगड़ता था ,

पर दिल तो फिर भी दुखता था ,

अकेले मुझे कुछ नहीं भाता था ,

सब के संग ही मन मेरा रमता था ,

मिल जुल कर रहना ही फलता था ,

तेरा मेरा करना तो खलता था ,

चोट औरों को लगती थी ,

दर्द फिर भी मुझे होता था ,

बिन शर्म ही मैं नाचा करता था ,

खुल कर खुशिया बांटा करता था ,

मम्मी पापा का लाड़ला था ,

बिन उनके रहना मुझे नहीं आता था,

सब कुछ बहुत अच्छा था ,

जब मैं अक्ल का थोड़ा कच्चा था ,

बचपन मेरा अच्छा था ,

जब मैं छोटा बच्चा था।

 

© सुश्री दीपिका गहलोत  “मुस्कान ”  

पुणे, महाराष्ट्र

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