श्री मच्छिंद्र बापू भिसे
(श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की अभिरुचिअध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य वाचन, लेखन एवं समकालीन साहित्यकारों से सुसंवाद करना- कराना है। यह निश्चित ही एक उत्कृष्ट एवं सर्वप्रिय व्याख्याता तथा एक विशिष्ट साहित्यकार की छवि है। आप विभिन्न विधाओं जैसे कविता, हाइकु, गीत, क्षणिकाएँ, आलेख, एकांकी, कहानी, समीक्षा आदि के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। आप महाराष्ट्र राज्य हिंदी शिक्षक महामंडल द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी अध्यापक मित्र’ त्रैमासिक पत्रिका के सहसंपादक हैं। अब आप प्रत्येक बुधवार उनका साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज पढ़ सकेंगे । आज प्रस्तुत है उनकी नवसृजित कविता “तेरी बद्दुआएँ”।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज – # 4☆
☆ तेरी बद्दुआएँ ☆
(विधा:कविता)
कवि: मच्छिंद्र भिसे,
अरे सुन प्यारे पगले,
देख तेरी बद्दुआएँ काम कर गईं,
पटकना था जमीं पर हमें,
यूँ आसमाँ पर बिठा गईं।
तेरी रंग बदलती सूरत ने,
परेशान बारंबार किया,
यही रंगीन सूरत मुझे,
हर बार सावधान कर गई।
आप एहसास चाहा जब भी,
नफरत ही नफरत मिली,
न जाने कैसे तेरी यह नफरत,
खुद को सँजोये प्रीत बन गई।
छल-कपट की सौ बातें,
इर्द-गिर्द घूमती रहीं,
तेरा बदनसीब ही समझूँ,
जो उभरने का गीत बन गई।
तेरी हर एक बद्दुआ,
मेरी ताकत बनती गई,
देनी चाही पीड़ा हमें,
वह तो दर्द की दवा बन गई।
सुन, अभिशाप से काम न चला,
आशीर्वचन का चल एक दीप जला,
आएगा जीवन में एक नया विहान,
दीप की ज्योति बार-बार कह गई।