हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ काव्य कुञ्ज – # 2 – मिट जाएगा …. ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की अभिरुचिअध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य वाचन, लेखन एवं समकालीन साहित्यकारों से सुसंवाद करना- कराना है। यह निश्चित ही एक उत्कृष्ट  एवं सर्वप्रिय व्याख्याता तथा एक विशिष्ट साहित्यकार की छवि है। आप विभिन्न विधाओं जैसे कविता, हाइकु, गीत, क्षणिकाएँ, आलेख, एकांकी, कहानी, समीक्षा आदि के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।  आप महाराष्ट्र राज्य हिंदी शिक्षक महामंडल द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी अध्यापक मित्र’ त्रैमासिक पत्रिका के सहसंपादक हैं। अब आप प्रत्येक बुधवार उनका साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज पढ़ सकेंगे । आज प्रस्तुत है उनकी नवसृजित कविता “मिट जाएगा…. ”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज – # 2 ☆

 

☆ मिट जाएगा….

 

खुशियों के चंद लमहों के लिए,

आस्था-परंपरा को पैरों तले रौंदने वाले,

मृग-मरीचिका के पीछे क्यों कर भागे,

खुद अस्तित्व भूल औरों को जहर पिलाने वाले,

मिट जाएगा क्षण भर में तू,

खुदगर्ज बन औरों की राह मिटाने वाले.

 

अपनों को तोड़कर लोलुपता के पकड़े जो रास्ते,

रोएगा वह फिर बिखरे रिश्ते जोड़ने के वास्ते,

फिर रिश्तों को सी पाया है भला कोई कभी,

ऐ रिश्तों को कच्ची-टुच्ची ड़ोर समझने वाले,

मिट जाएगा…….

 

संसार मोह, भरम का भंडार है यहाँ,

ईमान, सच्चाई, करम से छुटकारा भी कहाँ,

इन्हें छोड़ पथ तू सँवर पाएगा कभी,

द्वेष, दंभ को अपनाकर खुद को नोचने वाले,

मिट जाएगा…….

 

सपने सच होंगे सच्चाई जब साथ हो

स्वार्थ नहीं अब परोपकार  की बात हो,

उनको भला भूल पाया है संसार कभी,

खुद करने भला औरों के सिर काटने वाले,

मिट जाएगा…….

 

खाली हाथ आया था खाली हाथ ही जाएगा,

जो करम तुम्हारा था वही साथ ले जाएगा,

सत्कर्म नहीं झुके हैं जमाने के आगे कभी,

फूल ही बिखेरना औरों के पथ काँटे बिछाने वाले,

मिट जाएगा………

 

वक्त नहीं गुजरा अभी तू सिर को उठाए जा,

मत सोच खुद का पर काज हित बीज बोए जा,

फसल लहलहाएगी जिंदगी की कभी न कभी,

समझदार होकर ना समझी की नौटंकी वाले,

मिट जाएगा……..

-०-

१९ अगस्त २०१९

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 5 ☆ छोटी ज़िंदगी ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा ☆

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “छोटी ज़िंदगी”। )

 

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 5   

☆ छोटी ज़िंदगी ☆

 

कभी देखा है ध्यान से तुमने

मस्ताने गुलों को पेड़ों की डालियों पर

मुस्कुराते हुए?

 

शर्माती सी कली

जब एक गुल में परिवर्तित होती है,

उसका चेहरा ही बदल जाता है

और लबों पर उसके लाली छा जाती है!

 

हवाएँ इन इठलाते गुलों को

कभी चूमती हैं,

कभी मुहब्बत से गले लगा लेती हैं;

सूरज इनमें रौशनी भर

इनमें नया जोश पैदा करता है;

तितलियाँ और भँवरे

इनसे इश्क कर बैठते हैं;

पर यह गुल

इन सभी बातों से अनजान,

सिर्फ ख़ुशी से झूलते रहते हैं!

 

कभी-कभी इनको देखकर

बड़ा आश्चर्य होता है…

क्या यह गुल नहीं जानते

कि इनकी ज़िन्दगी इतनी छोटी है?

 

सुनो,

शायद यह बात गुल

अच्छे से जानते हैं,

और शायद यह भी समझते हैं

कि जितनी भी ज़िन्दगी हो

उसमें हर पल का लुत्फ़ लेना चाहिए;

तभी तो यह इतना खुश रहते हैं…

 

आज

अपने बगीचे में

जब एक बार फिर एक शोख गुलाबी गुलाब को

ख़ुशी से सारोबार देखा,

मेरे भी सीने में बसा हुआ डर

कहीं उड़ गया!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – सृजन ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

We present an English Version of this poem with the title ?✍ Creativity ✍? published today. We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi ji for this beautiful translation.)

 

?✍ संजय दृष्टि  – सृजन ✍?

 

कोई धन से अड़ा रहा

सम्पर्कों पर कोई खड़ा रहा,

प्राचीन से अर्वाचीन तक

बार्टर का सिलसिला चला रहा,

मैं निपट बावरा अकिंचन

केवल सृजन के बल पर टिका रहा।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – प्रकृति (1-2) ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

?? संजय दृष्टि  – प्रकृति (1-2) ??

 

 

प्रकृति-1

 

प्रकृति ने चितेरे थे चित्र चहुँ ओर

मनुष्य ने कुछ चित्र मिटाये

अपने बसेरे बसाये,

 

प्रकृति बनाती रही चित्र निरंतर,

मनुष्य ने गेरू-चूने से

वही चित्र दीवारों पर लगाये,

 

प्रकृति ने येन केन प्रकारेण

जारी रखा चित्र बनाना

मनुष्य ने पशुचर्म, नख, दंत सजाये,

 

निर्वासन भोगती रही

सिमटती रही, मिटती रही,

विसंगतियों में यथासंभव

चित्र बनाती रही प्रकृति,

 

प्रकृति को उकेरनेवाला

प्रकृति के खात्मे पर तुला

मनुष्य की कृति में

अब नहीं बची प्रकृति,

 

मनुष्य अब खींचने लगा है

मनुष्य के चित्र..,

मैं आशंकित हूँ,

बेहद आशंकित हूँ..!

 

प्रकृति-2

 

चित्र बनाने के लिए उसने

उतरवा दिये उसके परिधान,

फटी आँखे लिए वह बुदबुदाया-

अनन्य सौंदर्य! अद्भुत कृति!

वीभत्स परिभाषाएँ सुनकर

शर्म से गड़ गई प्रकृति..!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 10 – “गरीबासन” तथा  “कोशिश ” ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  दसवीं कड़ी में उनकी दो लघु कवितायें  “गरीबासन” तथा  “कोशिश ”। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 10 ☆

 

☆ गरीबासन ☆ 

 

धूप है कि चिलचिलाती

भूख है फिर कुलबुलाती

जीवन भर की चाकरी

पर पटती नहीं उधारी

सुख चैन छिना कैसी तरक्की

मंहगे गुड़चने में फसी बेबसी

 

☆ कोशिश ☆ 

 

साजिशें वो रचते है

दुनिया में

जिन्हें कोई

जंग जीतनी हो…….

हमारी कोशिश तो

दिल जीतने की होती है…

ताकि रिश्ता

कायम रहे

जब तक जिंदगी हो ..

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ गंतव्य की ओर ☆ – सुश्री पल्लवी भारती

सुश्री पल्लवी भारती 

 

(प्रकृति अपने प्रत्येक रूप के रंगो- छंदों से केवल एक ही इशारा करती है, कि “आओ, अपने गंतव्य की ओर चलो”… इसी विषय पर आधारित है  सुश्री पल्लवी भारती जी की यह कविता- “गंतव्य की ओर”।) 

 

? गंतव्य की ओर ?

 

प्रात: रश्मि की किरण से,

और सांध्य के सघन से;

रक्त-वर्णित अंबुधि में,

अरूण के आश्रय-सुधि में;

सप्ताश्र्व-रथ पे आरूढ़,

सदैव से निश्चयी दृढ़।

दीप्त भाल विशाल ज्यों क्षितिज के उस छोर।

चलें गंतव्य की ओर॥

 

खग- गणों के कलरवों में,

मौन हुए गीतों के स्वर में;

एक चिंतन भोज्य-कण,

और तिनकों का संरक्षण।

अस्थिर गगन और धूलिमय नभ;

ध्येय अपना पीछे हुआ कब?

शीघ्रतम दिन व्यतीत ज्यों अब हुआ है भोर।

चलें गंतव्य की ओर॥

 

पुष्प तरूवर वाटिका,

चाहे लतिका वन-कंटिका;

तृण-शिशु और पल्लवित पर,

सहला रहे हैं मारूत्य-कर।

फल फूल मुखरित कंठ से,

सेवा आगाध आकंठ से।

नव-शाख पुलकित हरिताभ पट-धर और पुष्पित डोर।

चलें गंतव्य की ओर॥

 

उन्माद गिरि का निर्झर है,

उल्लास नदी का प्रखर है;

संसृति कूल-किनारें सिंचित,

नानाविधि जीवन संरक्षित।

पथ दुर्गमों को कर पार,

लहरें हैं नाची बारंबार।

जीवन प्रदत्त अस्थिर चपलता द्रुत गति अघोर।

चलें गंतव्य की ओर॥

 

दिन-रैन संग में सन्निहित,

काल-भाल पट्टिका पर उद्धृत।

हो बाल रवि या नव निशा,

हो तुच्छ प्राणी या वसुन्धरा;

वायु पतझड़ कोकिला स्वर,

द्वंद्व संगम लीन कर।

फिर कहाँ कैसी प्रतीक्षा प्रलाप का है शोर!

चलें गंतव्य की ओर॥.

 

पल्लवी भारती ✍

संपर्क –  बेलपाड़ा, मधुपुर (जिला –  देवघर) पिन –815353  झारखंड मो- 8808520987,  ई-मेल– pallavibharti73@gmail. com

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हिन्दी साहित्य – अटल स्मृति – कविता -☆ श्रद्धांजलि ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

 

(आज प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा  पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयी की प्रथम पुण्यतिथिपर श्रद्धांजलि अर्पित करती हुई कविता  “श्रद्धांजलि”।)

 

☆ अटल स्मृति – श्रद्धांजलि ☆

 

हे राजनीति के भीष्म पितामह!

हे कवि हृदय, हे कवि अटल!

हे  शांति मसीहा प्रेम पुजारी!

जन महानायक अविकल।

हे राष्ट्र धर्म की मर्यादा,

हे चरित महा उज्जवल।

नया लक्ष्य ले दृढ़प्रतिज्ञ,

आगे बढ़े चले अटल।

हे अजातशत्रु जन नायक ॥1॥

 

आई थी अपार बाधाएं,

मुठ्ठी खोले बाहे फैलाये।

चाहे सम्मुख तूफान खड़ा हो,

चाहे  प्रलयंकर घिरे घटाएँ।

राह तुम्हारी रोक सकें ना ,

चाहे अग्नि अंबर बरसाएँ।

स्पृहा रहित निष्काम भाव,

जो डटा रहे वो अटल।

हे अजातशत्रु जन नायक ॥2॥

 

थी राह कठिन पर रुके न तुम,

सह ली पीड़ा पर झुके न तुम,

ईमान से अपने डिगे न तुम,

परवाह किसी की किए न तुम,

धूमकेतु बन अम्बर में

एक बार चमके  थे तुम।

फिर आऊंगा कह कर के,

करने से कूच न डरे थे तुम।

हे अजातशत्रु जन नायक ॥3॥

 

काल के कपाल पर,

खुद लिखा खुद ही मिटाया।

बनकर प्रतीक शौर्य का,

हर बार गीत नया गाया।

लिख दिया अध्याय नूतन,

ना कोई अपना पराया ।

सत्कर्म से अपने सभी के,

आंख के तारे बने।

पर काल के आगे विवश हो,

छोड़कर हमको चले।

हम सभी दुख से है कातर

श्रद्धा सुमन अर्पित किये।

सबके हृदय छाप अपनी

आप ही अंकित किये ॥4॥

 

 

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 3 ☆ अरबी के पत्तों का  पानी ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  ऐसी ही एक संवेदनात्मक भावप्रवण कविता  ‘नजरें पार कर’।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 3 ☆

☆ अरबी के पत्तों का  पानी

 

प्रिये,

तुम नक्षत्रों से चमकती हो,
मैं अदना सा टिमटिमाता हुआ तारा हूँ ।

 

तुम बवंड़र सी चलती आँधी हो,
मैं पुरवाई की मंद बहती हवा हूँ ।

 

तुम कोहरे से लिपटी हुई सुबह हो
मैं दूब पर रहती की ओस की बूँद हूँ ।

 

तुम शंख में रहनेवाला मोती हो
मैं अरबी के पत्तों का चमकता पानी हूँ ।

 

© सुजाता काळे ✍

पंचगनी, महाराष्ट्र।

9975577684

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं… ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

⌚ संजय दृष्टि  – वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं… ⌚

उहापोह में बीत चला समय

पाप-पुण्य की परिभाषाएँ

जीवन भर मन मथती रहीं

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

इक पग की दूरी पर था जो

आजीवन हम पा न सके वो

पग-पग सांकल कसती रही

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

जाने कितनी उत्कंठाएँ

जाने कितनी जिज्ञासाएँ

अबूझ जन्मीं-मरती गईं

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

सीमित जीवन, असीम इच्छाएँ

पूर्वजन्म, पुनर्जन्म की गाथाएँ

जीवन का हरण  करती रहीं

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

साँसों पर  है जीवन टिका

हर साँस में इक जीवन बसा

साँस-साँस पर घुटती रही

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

अवांछित ठुकरा कर देखो

अपनी तरह जीकर तो देखो

चकमक में आग छुपी रही

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं.!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – अटल स्मृति – कविता -☆ गीत नया गाता था, अब गीत नहीं गाऊँगा ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

श्री हेमन्त बावनकर

 

(युगपुरुष कर्मयोगी श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी की ही कविताओं से प्रेरित उन्हें श्रद्धा सुमन समर्पित।)

 

☆ गीत नया गाता था, अब गीत नहीं गाऊँगा ☆

 

स्वतन्त्रता दिवस पर

पहले ध्वज फहरा देना।

फिर बेशक अगले दिन

मेरे शोक में झुका देना।

 

नम नेत्रों से आसमान से यह सब देखूंगा।

गीत नया गाता था अब गीत नहीं गाऊँगा।

 

स्वकर्म पर भरोसा था

कर्मध्वज फहराया था।

संयुक्त राष्ट्र के पटल पर

हिन्दी का मान बढ़ाया था।

 

प्रण था स्वनाम नहीं राष्ट्र-नाम बढ़ाऊंगा।

गीत नया गाता था अब गीत नहीं गाऊँगा।

 

सिद्धान्तों की लड़ाई में

कई बार गिर पड़ता था।

समझौता नहीं किया

गिर कर उठ चलता था।

 

प्रण था हार जाऊंगा शीश नहीं झुकाऊंगा।

गीत नया गाता था अब गीत नहीं गाऊँगा।

 

ग्राम, सड़क, योजनाएँ

नाम नहीं मांगती हैं।

हर दिल में बसा रहूँ

चाह यही जागती है।

 

श्रद्धांजलि पर राजनीति कभी नहीं चाहूँगा।

गीत नया गाता था अब गीत नहीं गाऊँगा।

 

काल के कपाल पे

लिखता मिटाता था।

जी भर जिया मैंने

हार नहीं माना था।

 

कूच से नहीं डरा, लौट कर फिर आऊँगा।

गीत नया गाता था अब गीत नहीं गाऊँगा।

© हेमन्त  बावनकर,  पुणे 

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