हिन्दी साहित्य – ☆ अटल स्मृति – कविता ☆ अटलजी आप ही ☆ सुश्री स्वप्ना अमृतकर

सुश्री स्वप्ना अमृतकर
(सुप्रसिद्ध युवा कवियित्रि सुश्री स्वप्ना अमृतकर जी का अपना काव्य संसार है । आपकी कई कवितायें विभिन्न मंचों पर पुरस्कृत हो चुकी हैं।  आप कविता की विभिन्न विधाओं में  दक्ष हैं और साथ ही हायकू शैली की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज प्रस्तुत है पूर्व प्रधानमंत्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी जी को श्रद्धांजलि अर्पित करती हुई उनकी एक कविता “अटलजी आप ही”। )

अटलजी आप ही ☆ 

शीतल कवि मन के व्यक्ति थे आप
संयम का बल रूप थे आप ।

धीरे धीरे सीढ़ी चढते गये आप 
मुस्कुराकर मुश्किलों को सुलझाते गये आप ।

सरल वाणी से आकर्षित करते गये आप
कठोर निर्णय से हानि को टालते रहे आप ।

 देश का अपमान सह ना सके आप
 दृढ़ निश्चय का प्रण लेते थे आप।

शत प्रतिशत सर्वगुण संपन्न थे आप
हर क्षेत्र मे सफलता का शिखर बने आप ।

सुहाना सफर अकेला मुसाफिर थे आप 
सबके दिलों मे घर कर चांद बन गये आप।

 

© स्वप्ना अमृतकर , पुणे

 

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हिन्दी साहित्य – स्वतन्त्रता दिवस विशेष – कविता ☆ स्वतंत्रता-मंथन ☆ – सुश्री पल्लवी भारती 

स्वतन्त्रता दिवस विशेष 

सुश्री पल्लवी भारती 

(सुश्री पल्लवी भारती जी का e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है। आज प्रस्तुत है आजादी के सात दशकों बाद भी देशवासियों की चेतना को जागृत करने हेतु स्वतंत्रता के मायनों का मंथन करने पर आधारित उनकी रचना  ‘स्वतन्त्रता मंथन’।)

संक्षिप्त परिचय:

शिक्षा– परास्नातक मनोविज्ञान, बनारस हिन्‍दू विश्वविद्यालय (वाराणसी)

साहित्यिक उपलब्धियाँ– अनेक पुरस्कार, सम्मान, उपाधियाँ प्राप्त, मुख्य पत्र-पत्रिकाओं एवं अनेक साझा काव्य संग्रहों में कविता एवं  कहानियाँ प्रकाशित।

 

स्वतंत्रता-मंथन 

 

विद्य वीरानों में सँवरती, कब तक रहेगी एक माँ?

घुट रही वीरों की धरती, एक है अब प्रार्थना।

ना रहे ये मौन तप-व्रत, एक सबकी कामना।

मानवता पनपें प्रेम नित्-नित्, लहु व्यर्थ जाए ना॥

 

हो रहे हैं धाव ऐसे, कर उन्मुक्त कालपात्र से।

है बदलते भाव कैसे, संत्रास भाग्य इस राष्ट्र के!

हो भगत-सुखदेव जैसे, वीर सुत जिस राष्ट्र में।

टिक सकेंगे पाँव कैसे, मोहांध धृतराष्ट्र के॥

 

बारूद में धरती धुली, कह रही है वेदना।

इस बलिवेदी की कीर्ति, बन गयी ब्रह्म-उपमा।

अमर गीत क्रांति की, बन गयी जन-चेतना।

स्वयं बद्ध पतनोत्थान की, जग कर रहा है मंत्रणा॥

 

पल्लवी भारती ✍

संपर्क –  बेलपाड़ा, मधुपुर (जिला –  देवघर) पिन –815353  झारखंड मो- 8808520987,  ई-मेल– pallavibharti73@gmail. com

 

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हिन्दी साहित्य – रक्षा बंधन विशेष – कविता – रक्षा बंधन – डॉ. हर्ष तिवारी

रक्षा बंधन विशेष 

डॉ हर्ष तिवारी 

 

(प्रस्तुत है डॉ  हर्ष तिवारी जी , डायनामिक संवाद टी वी .प्रमुख का e-abhivyakti में स्वागत है । आज प्रस्तुत है रक्षा बंधन के अवसर पर उनकी विशेष कविता  रक्षा बंधन ।)

 

? रक्षा बंधन  ?

 

आदमी निकल गया है

इक्कीसवीं सदी के सफर में

बहुत आगे

अब उसके लिए

बेमानी है

सूट के धागे

रिश्ते रिसने लगे हैं

घाव की तरह

रक्षा सूत्र हो गए हैं

कागज की नाव की तरह

कागज की नाव आखिर

किस मुकाम तक जायेगी

वो तो खुद डूबेगी

और

हमें भी डुबायेगी।

 

© डॉ. हर्ष तिवारी

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 12 ☆ घरौंदा ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी की  कविता  “घरौंदा ”।) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 12 ☆

 

☆ घरौंदा ☆

 

घरौंदा

 

मालिक की

नजर पड़ते ही

घोंसले में बैठे

चिड़ा-चिड़ी चौक उठते

और अपने नन्हें बच्चों के

बारे में सोच

हैरान-परेशान हो उठते

गुफ़्तगू करते

आपात काल में

इन मासूमों को लेकर

हम कहां जाएंगे

 

चिड़ा अपनी पत्नी को

दिलासा देता

‘घबराओ मत!

सब अच्छा ही होगा

चंद दिनों बाद

वे उड़ना सीख जाएंगे

और अपना

नया आशियां बनाएंगे’

 

‘परन्तु यह सोचकर

हम अपने

दायित्व से मुख

तो नहीं मोड़ सकते’

 

तभी माली ने दस्तक दी

और घोंसले को गिरा दिया

चारों ओर से त्राहिमाम् …

त्राहिमाम् की मर्मस्पर्शी

आवाज़ें सुनाई पड़ने लगीं

 

जैसे ही उन्होंने

अपने बच्चों को

उठाने के लिये

कदम बढ़ाया

उससे पहले ही

माली द्वारा

उन्हें दबोच लिया गया

और चिड़ा-चिड़ी ने

वहीं प्राण त्याग दिए

 

इस मंज़र को देख

माली ने मालिक से

ग़ुहार लगाई

‘वह भविष्य में

ऐसा कोई भी

काम नहीं करेगा

आज उसके हाथो हुई है

चार जीवों की हत्या

जिसका फल उसे

भुगतना ही पड़ेगा’

 

वह सोच में पड़ गया

‘कहीं मेरे बच्चों पर

बिजली न गिर पड़े

कहीं कोई बुरा

हादसा न हो जाए’

 

‘काका!तुम व्यर्थ

परेशान हो रहे हो

ऐसा कुछ नहीं होगा

हमने तो अपना

कमरा साफ किया है

दिन भर गंदगी

जो फैली रहती थी’

 

परन्तु मालिक!

यदि थोड़े दिन

और रुक जाते

तो यह मासूम बच्चे

स्वयं ही उड़ जाते

इनके लिए तो

पूरा आकाश अपना है

इन्हें हमारी तरह

स्थान और व्यक्ति से

लगाव नहीं होता

 

काका!

तुमने देखा नहीं…

दोनों ने

बच्चों के न रहने पर

अपने प्राण त्याग दिए

परन्तु मानव जाति में

प्यार दिखावा है

मात्र छलावा है

उनमें नि:स्वार्थ प्रेम कहां?

 

‘हर इंसान पहले

अपनी सुरक्षा चाहता

और परिवार-जनों के इतर

तो वह कुछ नहीं सोचता

उनके हित के लिए

वह कुछ भी कर गुज़रता

 

परन्तु बच्चे जब

उसे बीच राह छोड़

चल देते हैं अपने

नए आशियां की ओर

माता-पिता

एकांत की त्रासदी

झेलते-झेलते

इस दुनिया को

अलविदा कह

रुख्सत हो जाते

 

काश! हमने भी परिंदों से

जीने का हुनर सीख

सारे जहान को

अपना समझा होता

तो इंसान को

दु:ख व पीड़ा व त्रास का

दंश न झेलना पड़ता’

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 10 ☆ सपना ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  स्व. माँ  की स्मृति में  एक भावप्रवण कविता   “सपना”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 10 साहित्य निकुंज ☆

 

☆ सपना 

 

मैं नींद

के आगोश में सोई

लगा

नींद में

चुपके-चुपके रोई

जागी तो

सोचने लगी

जाने क्या हुआ

किसी ने

दिल को छुआ

कुछ-कुछ

याद आया

मन को बहुत भाया

देखा था

सपना

वो हुआ न पूरा

रह गया अधूरा

उभरी थी धुंधली

आकृति

अरेे हूँ मैं

उनकी कृति

वे हैं

मेरी रचयिता

मेरी माँ

एकाएक

हो गई

अंतर्ध्यान

तब हुआ यह भान

ये हकीकत नहीं

है एक सपना

जिसमें था

कोई अपना

 

© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची

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हिन्दी साहित्य – स्वतन्त्रता दिवस विशेष – कविता ☆ एक सुखद संयोग ☆ – डॉ. मुक्ता

स्वतन्त्रता दिवस विशेष 

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी की स्वतन्त्रता दिवस पर एक  सामयिक  कविता   “एक सुखद संयोग ”।)

 

   एक सुखद संयोग

 

70 वर्ष के पश्चात्

धारा 370 व 35 ए

के साथ-साथ वंशवाद

पड़ोसी देशों के हस्तक्षेप से छुटकारा

आतंकवाद से मुक्ति

एक सुखद संयोग

हृदय को आंदोलित कर सुक़ून से भरता

 

स्वतंत्रता दिवस से पूर्व स्वतंत्रता

15 अगस्त से पूर्व 5 अगस्त को

दीपावली की दस्तक

जो अयोध्या में 14 वर्ष के पश्चात् हुई थी

दीवाली से पूर्व दीपावली

पूरे राज्य में प्रकाशोत्सव

 

काश्मीर की 70 वर्ष के पश्चात्

गुलामी की ज़ंजीरों से मुक्ति

फांसी के फंदे की भांति

दमघोंटू वातावरण से निज़ात

निर्बंध काश्मीर बन गया केंद्र शासित राज्य

विशेष राज्य का दर्जा समाप्त

लद्दाख के लोगों की

लंबे अंतराल के पश्चात् इच्छापूर्ति

 

लद्दाख…एक केन्द्र-शासित प्रदेश

एक लम्बे अंतराल के पश्चात्

स्वतंत्र राज्य के रूप में प्रतिष्ठित

भाषा व समृद्धि की ओर अग्रसर

 

मात्र चोंतीस वर्षीय युवा सांसद

नामग्याल का भाषण सुन

पक्ष-विपक्ष के नेता अचम्भित

मोदी जी,अमित जी व लोकसभा अध्यक्ष

हुए उसके मुरीद

 

जश्न का माहौल था

पूरे लद्दाख व काश्मीर में

लहरा रहा था तिरंगा झण्डा गर्व से

आस बंधी थी कश्मीरी पंडितों की

उमंग और साध जगी थी

वर्षों बाद घर लौटने की

अपनी मिट्टी से नाता जोड़ने की

उनकी खुशी का ठिकाना नहीं था

जो छप्पन इंच के सीने ने कर दिखाया

उसकी कल्पना किसी के ज़ेहन में नहीं थी

 

परन्तु हर बाशिंदा आशान्वित था

एक दिन भारत के विश्व गुरू बनने

व अखण्ड भारत का साकार होगा स्वप्न

अब देश में होगा सबके लिए

एक कानून,एक ही झण्डा

न होगी दहशत, न होगा आतंक का साया

मलय वायु के झोंके दुलरायेंगे

महक उठेगा मन-आंगन

सृष्टि का कण-कण

भारत माता की जय के नारे गूंजेगे

और वंदे मातरम् सब गायेंगे

 

डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो•न• 8588801878

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हिन्दी साहित्य – स्वतन्त्रता दिवस विशेष – कविता – ☆ तिरंगा ! तू फिरा दे चक्र अशोक का… ☆ – सौ. सुजाता काळे

स्वतन्त्रता दिवस विशेष

सौ. सुजाता काळे

(आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी द्वारा रचित स्वतन्त्रता दिवस पर विशेष कविता तिरंगा ! तू फिरा दे चक्र अशोक का…)

 

तिरंगा ! तू फिरा दे चक्र अशोक का… 

 

हे तिरंगा ! तू फहराता

विशाल नभ पर कायम है ।

 

आन बान और शान में तेरी

हर भारतवासी नतमस्तक है।

 

तेरे अंदर शांति का प्रतीक

फिर क्यों हिंसा की हलचल है?

 

कुसुंबी रक्त सबकी धमनी में

फिर क्यों धर्मा धर्म का भेदा भेद है?

 

हरित धरती से अन्न उपजता

फिर क्यों केसरिया- हरा भेद है?

 

तू लहराता आसमान में

तेरी नज़र सब ओर बिछी है ।

 

सीमाओं को बाँटता मानव

सीमा के अन्दर अंधेर मची है ।

 

गरीबों से लिपटी है गरीबी

सस्ती हुई बेकारी क्यों है?

 

ठेर ठेर चलता विवाद है

धर्म के नाम पर क्यों धूम मची है?

 

तू फिरा दे चक्र अशोक का

और मिटा दे अमानुषता।

 

तुझ सा ऊँचा मानव बन जाए

सदा रहे वह अचल अभेद सा।

 

© सौ. सुजाता काले

पंचगनी, महाराष्ट्रा।

9975577684

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हिन्दी साहित्य- स्वतन्त्रता दिवस विशेष – कविता – ☆ हमारी स्वतन्त्रता ☆ – सुश्री ऋतु गुप्ता

स्वतन्त्रता दिवस विशेष

सुश्री ऋतु गुप्ता

 

(प्रस्तुत है सुश्री ऋतु गुप्ता जी  द्वारा रचित स्वतन्त्रता दिवस पर विशेष कविता हमारी स्वतन्त्रता )

 

 हमारी स्वतन्त्रता 

 

कहने को हमें स्वतंत्र हुए वर्षों व्यतीत हुए

पर क्या हम सही मायने में स्वतंत्र हो पाए

पाश्चात्य संस्कृति अपनाने से कब चूक पाए

अपने संस्कारों को हृदय में जगह क्या दे पाए ?

 

यह अनगिनत अनगुथे सवाल जहन में

उतरते जाते हैं बस यूं ही कई बार

क्यों हमारे ख्याल पाश्चात्य संस्कृति में गिरफ्त

होकर रह गये पर रहती निरुत्तर हर बार।

 

कैसी विडंबना यह कि अपनी ही संस्कृति व

संस्कार नीरस लगने लगे हैं?

विरासत में मिले कायदे-कानून भी कहीं न

कहीं पांबदी से लगने लगे हैं।

 

माना तरक्की की है हर क्षेत्र में हमने बहुत

पर असली रूतबा खोने लगे हैं

इस भेड़ चाल में फंस स्वार्थप्रस्थ हो अपनी

कर्मठता व शौर्य को पीछे छोड़ने लगे हैं।

 

स्वछंद सही मायने में दरअसल तभी कहलायेंगे

जब मनोबल कभी किसी हाल में न गिरने देंगें

सुनेंगे सबकी, सीखेंगे, समझेंगें हर किसी से पर

आत्मसम्मान व संस्कारों की बलि न चढ़ने देंगें।

 

उन सब परतन्त्रता की बेड़ियों को तोड़ देगें जो हमारी

जन्मभूमि के हित में न हो जिनके लिए स्वतंत्र हुए

तब जाकर हम सही मायने में यह एहसास फिर कर

पायेंगे वाकई खुली हवा में साँस लेने के काबिल हुए।

 

© ऋतु गुप्ता, दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – रक्षा बंधन विशेष – कविता ☆ वीर बिजूखा और जुगनू ☆ – सौ. सुजाता काळे

रक्षा बंधन विशेष 

सौ. सुजाता काळे

(प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी  की  रक्षा बंधन के अवसर पर उनकी विशेष कविता वीर बिजूखा और जुगनू जो उन्होने उन वीर जवानों के लिए लिखी है जो अपना जीवन राष्ट्र के लिए समर्पित कर चुके हैं। रक्षा बंधन पर उनकी विशेष स्मृतियाँ हैं जो हम आपसे साझा कर रहे हैं। उनके ही शब्दों में –    

“हमारी स्कूल महाराणी चिमणाबाई हाईस्कूल, बड़ोदा,   गुजरात से जहाँ मैंने पढ़ाई की, हर साल सैनिकों के लिए राखी और पत्र भेजे जाते हैं और विद्यार्थी स्वयं राखी बनाते हैं । राखी के संग मैंने यह कविता लिखकर भेजी है। हे माँ भारती के वीर सपूतों!  मेरे शूरवीर  भाईयों आपको मेरे शत शत प्रणाम हैं। आपके लिए आपकी बहन की ओर से कविता के रूप में मनोगत प्रस्तुत है। ” – सौ. सुजाता काळे )

 

? वीर बिजूखा और जुगनू  ?

 

सीना तान खड़े रहते हैं,

सभी दर्द सीने में छुपाकर,

यादों को मन में सहलाते,

बर्फीली श्वेत चादर ओढ़कर ।

 

दिल में संजोई ममता को

बारिश संग आँसू में बहाते,

देख न पाता कोई उनको,

किस सागर में जाकर मिलते।

 

कड़ी धूप को चाँदनी बनाते,

कर्तव्य अपना न बिसराते,

कभी बिजूखा या जुगनू बनकर,

आँखों में तारों को सजाते।

 

बाढ़ में घर कभी डूब रहा हो,

सूखे से खेत भी सूख रहा हो,

माँ भारती की रक्षा के लिए,

अपने खून की चुनरी हैं ओढ़ाते।

 

हाथ न बढ़ा सकता हैं कोई,

भारत माँ की आँचल की ओर,

छेदते हो गोलों से  उनके सीने,

जो कदम उठे  भारत की ओर ।

 

आपकी कृतज्ञ बहन,

 

सुजाता काळे ✍

पंचगनी, महाराष्ट्र।

9975577684

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हिन्दी साहित्य – रक्षा बंधन विशेष – कविता ☆ राखी की सौंधी सुगंध ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

रक्षा बंधन विशेष 

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(रक्षा बंधन के विशेष पर्व पर प्रस्तुत है  श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी  अपनी बहनों के लिए रचित कविता “राखी की सौंधी सुगंध“। इस रचना के बारे  श्री भिसे जी के ही शब्दों में

“मेरी सगी बहन तो नहीं है परंतु मेरी ५ चचेरी बहनों का बहुत प्यार मिला. अब वह तो सरुराल चली गई. कभी वह आती हैं तो कभी पतियाँ. परंतु राखी के पर्व पर भाई का इंतजार करना बहन के लिए सौगात से कम नहीं होता है. अपनी बहनों के इंतजार में रची यह रचना. आपको पसंद जरुर आएगी. यह संदेश मेरी उन सभी बहनाओं के लिए है जो अपने भाई से दूर तो है परंतु दिल के करीब…..” – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे)

 

? राखी की सौंधी सुगंध ?

 

मेरी प्यारी बहना,

एक ऐसी राखी जरुर ले आना,

बचपन की यादों की,

सौंधी सुगंध मुझको तू दे जाना.

 

राखी का उत्साह देखा था मैंने,

सुबह उठकर जल्दी माँ से

तोतले बोल रूपए माँगे थे तूने,

याद है आज भी मुझे,

राखी न दे पाई बेबस माँ,

सफ़ेद धागे को कुमकुम कर,

बांध दिया था हाथ पर तूने,

वो राखी का अनुबंद खो गया है कहीं,

वो वापस इस भाई के वास्ते जरुर ले आना

बचपन की …….

 

ढल गया बचपन यौवन हमारे द्वार खड़ा,

यह भाई ही लगता था एक आधार बड़ा,

अब माँ के पास नहीं था कोई बहाना,

राखी के दिन अब एक आँसू नहीं था बहाना,

लाई तू एक राखी मोर पंख से बनी,

नहीं था तेज उसपर था तेरे मुख पर,

देखा जब आरती की थाल जो बनी,

वो राखी के पंख और थाल आज लगती है सूनी

उजड़े सारे रंग उनके वो रंग वापस ले आना,

बचपन की ….

 

हाथ पीले कर एक दिन अपने गाँव तू चली,

राखी पर इंतजार में खड़ा मैं,

प्यार की अपनी वहीँ पुरानी गली,

शाम ढले तू न आई, आई बस एक पाति,

चूमा मैंने, सिर पर ले धरा चिपकाया छाती,

बहना का प्यार उमड़ आया ह्रदय में,

अठखेली देख यह पाति भी गीत है गाती,

‘भाई के प्यार में एक बहना आँसू है बहाती’,

बहना वहीँ पीली हथेली में तेरी मुस्कान ले आना,

बचपन की ….

 

जिम्मेदारियाँ आ गई तुझपर और,

मुझपर भी कुछ आए बंधन,

चाहे बहें मेरी आँखें याद से तेरी,

सिंचाई करना उससे तेरा जीवन हो नंदन,

राखी के दिन याद तू जरुर करेगी मुझको,

एक ही तो भाई है दिल सताएगा तुझको,

संभालकर रिश्तों की डोर दोनों घर की,

लाँघकर परिधि यादें और जज्बात से निकलकर,

वहीँ बचपन की प्यारी बहना जरुर तू ले आना,

बचपन की….

 

© मच्छिंद्र बापू भिसे

भिराडाचीवाडी, डाक भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा – ४१५ ५१५ (महाराष्ट्र)

मोबाईल नं.:9730491952 / 9545840063

ई-मेल[email protected] , [email protected]

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