हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-2 ☆ चौराहे पर गांधी! ☆ श्री प्रेम जनमेजय

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2 

श्री प्रेम जनमेजय

(-अभिव्यक्ति  में श्री प्रेम जनमेजय जी का हार्दिक स्वागत है. शिक्षा, साहित्य एवं भाषा के क्षेत्र में एक विशिष्ट नाम.  आपने न केवल हिंदी  व्यंग्य साहित्य में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है अपितु दिल्ली विश्वविद्यालय में 40 वर्षो तक तथा यूनिवर्सिटी ऑफ़ वेस्ट इंडीज में चार वर्ष तक अतिथि आचार्य के रूप में हिंदी  साहित्य एवं भाषा शिक्षण माध्यम को नई दिशाए दी हैं। आपने त्रिनिदाद और टुबैगो में शिक्षण के माध्यम के रूप में ‘बातचीत क्लब’ ‘हिंदी निधि स्वर’ नुक्कड़ नाटकों  का सफल प्रयोग किया. दस वर्ष तक श्री कन्हैयालाल नंदन के साथ सहयोगी संपादक की भूमिका निभाने के अतिरिक्त एक वर्ष तक ‘गगनांचल’ का संपादन भी किया है.  व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर. आपकी उपलब्धियों को कलमबद्ध करना इस कलम की सीमा से परे है.)

☆ चौराहे पर गांधी ☆

(मित्रों, आज महात्मा गाँधी का जन्मदिन है।  आज लाल बहादुर शास्त्री का ‘भी ‘ जन्मदिन है।  इन दिनों गाँधी बहुत याद आ रहे हैं।  पता नहीं क्यों लाल बहादुर शास्त्री इसी दिन याद आते हैं ! मुझे गाँधी जी पर लिखी  अपनी  एक कविता याद आ रही है –चौराहे पर गांधी। ‘ उसे साझा करने का मन हुआ सो कर रहा हूँ – प्रेम जनमेजय )

 

मंसूरी में, लायब्रेरी चौक  पर

राजधानी की हर गर्मी से दूर

आती -जाती भड़भडाती

सैलानियों की भीड़ में     अकेला खड़ा

सफेदपोश, संगमरमरी, मूर्तिवत, गांधी।

क्या सोच रहा होगा —

अपने से निस्पृह

भीड़ के उफनते समुद्र में

स्थिर,निस्पंद,जड़

नहीं होता इतना तो कोई हिमखंड भी

खड़ा ।

क्या सोच रहा है, गांधी ?

सोचता हूँ मैं ।

 

कोटि- कोटि पग

इक इशारे पर जिसके, बस

नाप लेते थे साथ- साथ हज़ारों कदम

अनथक

वो ही  थका -सा

प्रदर्शन की वस्तु बन साक्षात

अकेला

संगमरमरी  कंकाल में,       किताबी

मूर्तिवत खड़ा-सा

क्या सोच रहा है, गांधी ?

 

स्वयं में सिमटी सैलानियों की भीड़

नियंत्रित करतीं वर्दियां

कारों की चिल पौं को

पुलसिया स्वर से दबातीं सीटियां

एक शोर के बीच

दूसरे शोर की भीड़ को

जन्म देती

मछली बाजार -सी कर्कश दुनिया

किसी के पास समय नहीं

एक पल भी देख ले गांधी को

अकेले अनजान खड़े, गांधी को ।

 

क्या सोचता होगा गांधी ?

भीड़ में भी विरान खड़ा

क्या, सोचता होगा गांधी !

 

सोचता हूं,

सोचता होगा

भीड़ के बीच क्या है प्रासंगिकता… मेरी ?

मैं तो बन न सका

भीड़ का भी हिस्सा

बस, खड़ा हूं शव-सा औपचारिक

इक माला के सम्मान का बोझ उठाए

किसी एक तारीख की प्रतीक्षा में

अपनेपन की सच्चाई को तरसता

अनुपयोगी, अनप्रेरित अनजान बिसुरता ।

 

हमारे पराएपन को झेलता

हमारा अपना ही

बंजर बेजान खड़ा है गांधी ।

मेरा गांधी, तेरा गांधी

अनेक हिस्सों में बंटा गांधी

सड़कों और चैराहों को

नाम देता गांधी

हमारी बनाई भीड़ में

वीरान- सा चुपचाप,

खड़ा है, अकेला गांधी ।

क्या सोचता है गांधी ?

क्या, सोचता है गांधी !

 

©  प्रेम जनमेजय

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -2☆ हे राम ! ☆ डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।  वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा संस्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए  प्रसिद्ध. 

 

व्यंग्य कविता – हे राम! ☆

 

हे राम!

तुम

कितने काम के थे

यह राम जानें

किसी के लिए

किसी काम के थे भी या नहीं

यह भी राम जानें

पर

तुम्हारे आशीष से

बदले हुए देश में

हम जो देखते हैं वह ये है

कि तुम्हारी एक सौ पचासवीं जयंती पर

बड़ी रौनक है/धूम है

मेले लगे हैं जगह-जगह

प्रदर्शनी में

खूब बिक रहे हैं

फैशन में भी हैं

तुम्हारी लाठी और चश्मे

जहाँ देखो

तुम्हारे बंदरों की ही नहीं

हर आंख पर तुम्हारा ही चश्मा है

हर हाथ में तुम्हारी ही लाठी

लेकिन खरीदने वालों को

इनके इस्तेमाल का पता नहीं

आयोजकों का भी नहीं है कोई स्पष्ट निर्देश

कि कब और कैसे करें इस्तेमाल

इसीलिये ‘ सूत न कपास’ फिर भी लट्ठम लट्ठा है

बाकी तो सब ठीक-ठाक है

तुम्हारे इस देश में

बस खादी के कुर्ते और टोपियाँ

‘खादी भण्डार’ के बाहर धरने पर हैं

और रेशमी धागों वाली कीमती मालाएँ

सजी हैं भीतर

तुम्हारे नाम की एक माला

हमारे गले में भी

उतनी ही शोभती है जितनी

कि तुम्हारे नाम के पेटेंट धारकों के

(तथाकथित सुधारकों के)

इसी माला को पहनकर

हम बड़े मज़े से

मुर्गा उदरस्थ कर अहिंसा पर बोलते हैं

और इस तरह आपके हृदय परिवर्तन पर

‘सत्य और अहिंसा के साथ प्रयोग’करते हैं

सुना है

पहनकर तुम्हारा गोल-गोल चश्मा और

हाथ में लाठी लेकर

कोई

माँगने वाला है

शन्ति का नोबेल पुरस्कार

तुम्हारे लिए

इसी 2अक्तूबर को

यकीन मानिये बापू!

तुम्हारी अहिंसा में बहुत दम है

तुमने बस एक बार किया था माफ़

अपने हत्यारे को

पर लाल-लाल कलंगी वाला मुर्गा

हमें रोज़ माफ़ करने हमारे घर आता है

खुद ही

‘हे राम’ कहकर अपनी खाल उतरवाता है

और हांडी में पक जाता है

अहिंसा का ऐसा उदात्त उदाहरण

क्या किसी और देश में मिल पाता है

आके देखना कभी राजघाट

अपनी नंगी आंखों से

कि जिसने किया था तुम्हारे लहू से तिलक

वही बिना नागा

हर 30 जनवरी को

तुम्हारी समाधि पर फूल चढ़ाता है।

 

©  डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -२ ☆ प्रश्नचिन्ह ☆ श्री रमेश सैनी

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2

श्री रमेश सैनी

(प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध वरिष्ठ  साहित्यकार  श्री रमेश सैनी जी   की महात्मा गांधी जी एवं लाल बहादुर शास्त्री जी  के जन्मदिवस पर एक कविता. श्री रमेश सैनी जी व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं. )

 

☆ प्रश्नचिन्ह ☆

 

हम हर वर्ष

मनाते हैं, जयंती

गाँधी और नेहरू की

खाते है,कसम

पदचिंहों पर चलने की

कसम वही रेखा है,

रेत पर खींची हुई

जिन्हें हर वर्ष

हम पीटते हैं

भूल गए हम उन्हें

उनके स्मारक बनाकर

चढ़ा देते हैं, पुष्प

वर्ष में एक बार जाकर

क्या ?

वतन पर मरने वालों का यही बाँकी निशां होगा ?

 

रमेश सैनी

मोबा. 8319856044  9825866402

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -2 ☆ पूछ रहे बैकुंठ से बापू ☆ श्री मनोज जैन “मित्र”

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2

श्री मनोज जैन “मित्र”

 

(श्री मनोज जैन “मित्र” जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है. विगत 22 वर्षों से ग्रामीण अंचलों में सद् साहित्य के प्रचार हेतु निपोरन प्लस एवं दिया बत्ती नामक पत्रिकाओं के 36अंकों का निरंतर संपादन एवं प्रकाशन.  प्रस्तुत है श्री मनोज जैन “मित्र” जी की कविता “पूछ रहे बैकुंठ से बापू”.)

 

पूछ रहे बैकुंठ से बापू

 

सिर्फ किताबों में मिलती है,

गांधी जी की अमर कहानी

नई पीढ़ी तैयार नहीं है,

सुनने तेरी कथा पुरानी

 

त्याग, तपस्या,आदर्शों के,

तिथि बाह्य सब तथ्य हो गए

जिनको बापू ने त्यागा था,

आज वही सब पथ्य हो गए

 

किसको चिंता रही देश की,

अब आहार बन गया भारत

चाटुकारिता की स्याही में,

निष्ठा की छुप गई इबारत

 

जनहित पर निज हित चढ़ बैठा,

अपना उल्लू सीधा करते

मरे वतन की खातिर बापू,

ये वेतन की खातिर मरते

 

बढ़ते हैं अपराध दिनों दिन,

अमन-चैन है आहत,खंडित

भ्रष्टाचार हुआ सम्मानित,

सत्य हुआ निर्वासित,दंडित

 

सर्वोपरि राष्ट्र की सेवा,

अब ऐसे अरमान कहां हैं?

पूछ रहे बैकुंठ से बापू,

मेरा हिंदुस्तान कहां है?

 

© मनोज जैन “मित्र”

पता- मुख्य पथ निवास, जिला मंडला (मध्य प्रदेश)

मो.9424931962

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-1 ☆ अहिंसा का दूत ☆ सुश्री निशा नंदिनी भारतीय

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक -1

सुश्री निशा नंदिनी भारतीय 

 

(सुदूर उत्तर -पूर्व  भारत की प्रख्यात  लेखिका/कवियित्री सुश्री निशा नंदिनी जी  की 150 वे गाँधी जयंती पर यह विशेष कविता. )

☆ कविता – अहिंसा का दूत ☆

 

अहिंसा का दूत एक

चला लकुटिया टेक

सर्वोदय की मांग लेकर

ज्ञान का भाल लेकर

चरखा चला कातता सूत

खादी का संदेश लेकर

साबरमती का साधु संत

करने चला शत्रु का अंत

चला बदलने देश को

भारत के परिवेश को

 

आजादी का परवाना

सत्याग्रह का साथ लेकर

असहयोग आंदोलन को

महिला शिक्षा नीति को

घर घर पहुंचाने को

अहिंसा नीति के बल पर

स्वावलंबन की ज्योति से

राम राज्य की तर्ज पर

जीवन का उत्सर्ग कर

देश को आजाद कर गया।

 

अस्पृश्यता को दूर कर

आत्मानुशासन के बल

सत्य की तलवार लेकर

नैतिकता की ढाल पर

अड़ा रहा मार्ग पर

अहिंसा के द्वार पर

देश प्रेम के बल पर

आदर्श बन युवाओं का

हर प्रहार सह गया

वीर गति पा गया।

 

© निशा नंदिनी भारतीय 

तिनसुकिया, असम

9435533394

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 10 ☆ जब कभी मैं तनहा होती हूँ ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “जब कभी मैं तनहा होती हूँ”। )

 

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 10

☆ जब कभी मैं तनहा होती हूँ 

जब कभी मैं तनहा होती हूँ,

नज्मों की धार पकड़ लेती हूँ

और झूल जाती हूँ

दहर के किसी कोने में छुपे

एहसासों के खूबसूरत से जंगल में!

 

कभी-कभी इस धार को पकड़

मैं ऊपर को बढती रहती हूँ,

छू लेती हूँ आसमान
और उड़ने लगती हूँ

मस्त परिंदों की तरह…

 

और कभी-कभी गिर जाती हूँ

नीचे अलफ़ाज़ के दरिया में,

अपनी नाज़ुक उँगलियों से

तब मैं चुनती जाती हूँ एक-एक हर्फ़

और फिर अपनी कलम से

भरती रहती हूँ न जाने कितने सफ्हे,

लिखती रहती हूँ न जाने कितनी किताब…

 

जीत

दोनों में ही मेरी है,

और फिर जब वापस पहुँचती हूँ

तो देखती हूँ

कि ख़ुशी का एक समंदर

बह रहा है

मेरे ही ज़हन में!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

 

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हिन्दी साहित्य – नवरात्रि विशेष – कविता/गीत ☆ नौ रूपों में नारी-नारायणी  ☆ – श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी”

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी” 

 

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है. आज प्रस्तुत है  श्रीमती हेमलता मिश्रा ‘मानवी’ जी की  नवरात्रि पर विशेष कविता/गीत  “नौ रूपों में नारी-नारायणी ”.)

 

☆  नौ रूपों में नारी-नारायणी ☆

 

भरा हुआ भीतर तक तुम वो अमृत घट हो

एक बार अपनी क्षमताओं सी हो जाओ।

मूरत नहीं खुद को खुद में ही पहचानो

एक बार तुम नारी-नारायणी हो जाओ।।

 

पूजाघर या चौराहों पर क्यों पुजो-पुजाओ

मानवी बनकर अपने नौं रूपों में आओ।

जन्म लेने वाली कन्या हो शैलपुत्री हो।

 

कौमार्यावस्था तक पवित्र पावनी ब्रह्मचारिणी

विवाह पूर्व चंद्र सी निर्मल चंद्रघंटा

जन्मदात्री गर्भधारिणी हो कूष्मांडा

जन्म देने के बाद संतान की हो स्कंदमाता।

संयम-साधन की धारिणी कात्यायनी जगत्राता

अपने संकल्पों से पति की जीत ले जो

मृत्यु अकाला कालरात्रि वो सुरभूता

कुटुंब रूपी संसार पर नित उपकारी महागौरी

देती महाप्रयाण से पूर्व संतानों को सब सिद्धि वो सिद्धिदात्री।।

 

नौ निधि नौ विधि नौ रिद्धि नौ सिद्धि नौ शक्ति नौ भक्ति नौ अनुरक्ति नौ नवधा

नौ दुर्गा के नौ अवतारों में नारी का पूरा जीवन नौ निधि अनपायनी प्रिय वसुधा।

 

नारी । नारी-नारायणी। गृहिणी।

खुद में अमृत घट पूरा तुम

एक बार खाली हो जाओ

देवी नहीं मानवी बन आओ।

हां घट-घट वासिनी अमृत दायिनी

संतानों के तन मन जीवन में बस जाओ।।

देवी नहीं मानवी बन आओ।।

देवी नहीं मानवी बन आओ।

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

 

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हिन्दी साहित्य – नवरात्रि विशेष – कविता – ग़ज़ल/गीतिका ☆ – माँ का  उपवास ☆ – डॉ. अंजना सिंह सेंगर

डॉ. अंजना सिंह सेंगर

 

(आज प्रस्तुत है  डॉ. अंजना सिंह सेंगर जी  द्वारा रचित  नवरात्रि पर्व पर  माँ दुर्गा देवी  जी को  समर्पित  ग़ज़ल/गीतिका  – माँ का  उपवास)

 

☆ ग़ज़ल/गीतिका  – माँ का  उपवास  

 

माँ का जब उपवास करोगे,

ख़ुशियों का आभास करोगे।

 

मन  में  श्रद्धा-भाव  जगेंगे,

पूजन पर विश्वास करोगे।

 

यश, वैभव, आशीष मिलेगा,

जीवन  हर्षोल्लास   करोगे।

 

माँ मंत्रों को रोज जपोगे,

हर संकट का नाश करोगे।

 

मृत्यु लोक से मोक्ष मिलेगा,

माँ चरणों में वास करोगे।

 

मंज़िल से आगे पहुँचोगे,

जीवन को इतिहास करोगे।

 

आज चलो फिर ये प्रण ले लो,

हर दुर्गुण का ह्रास करोगे।

 

©  डॉ. अंजना सिंह सेंगर  

जिलाधिकारी आवास, चर्च कंपाउंड, सिविल लाइंस, अलीगढ, उत्तर प्रदेश -202001

ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – बंदीगृह- ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

We present an English Version of this poem with the title  ☆ Prisons  ☆published today. We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation.)

 

☆ संजय दृष्टि  – बंदीगृह ☆

बंदीगृह के सारे दरवाजे खोल दो,
कारागार अप्रासंगिक हो चुके।
मजबूत फाटकों पर टंगे
विशाल ताले
जड़े जा चुके हैं
मनुष्य के मन पर,
हथकड़ियाँ,
हाथों में बेमानी लगती हैं,
वे, उग, जम, और
कस रही हैं नसों पर,
पैरों की बेड़ियाँ
गर्भस्थ शिशु के साथ ही
जन्मती और बढ़ती हैं
क्षण-प्रतिक्षण,
बस बुढ़ाती नहीं..,
विसंगतियों के फंदे
फाँसी बनकर
कसते जा रहे हैं,
यहाँ-वहाँ टहलते जानवर
रुपये के खूँटे से बंधे
आदमी पर तरस खा रहे हैं,
भूमंडलीकरण के दायरे में
सारा विश्व बड़े से
बंदीगृह में तब्दील हो चुका,
इसलिए कहता हूँ-
बंदीगृह के सारे दरवाजे खोल दो
कारागार अप्रासंगिक हो चुके।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – नवरात्रि विशेष – कविता / गीत ☆ तुम्हीं को गीत अर्पित है ☆ – डॉ. अंजना सिंह सेंगर

डॉ. अंजना सिंह सेंगर

 

(आज प्रस्तुत है  डॉ. अंजना सिंह सेंगर जी  द्वारा रचित  नवरात्रि पर्व पर  माँ दुर्गा देवी  जी को  समर्पित गीत  – तुम्हीं को गीत अर्पित है.)

 

☆ तुम्हीं को गीत अर्पित है  

 

तुम्हीं को गीत अर्पित है, तुम्हीं को प्रीति अर्पित है,

करूँ वंदन नमन तुमको, तुम्हें श्रद्धा समर्पित है।

 

सुशोभित नौ स्वरूपों में, शरद वासंत में आए,

सजे हर गेह तेरा दर, दिलों में भी सुसज्जित है।

 

हरे दुख-दर्द, पीड़ा तू, सदा मंगल करे माता,

तेरे ही  प्यार की महिमा, पुराणों में सुवर्णित है।

 

करे संहार दुष्टों का, मनुजता का करे पालन,

अपरिमित शक्ति से माँ की, विनिर्मित सृष्टि पोषित है।

 

करूँ सब कुछ समर्पित मैं, करो स्वीकार पूजा को,

शरण में लो जगत जननी, मुझे तो मोक्ष इच्छित है।

 

©  डॉ. अंजना सिंह सेंगर  

जिलाधिकारी आवास, चर्च कंपाउंड, सिविल लाइंस, अलीगढ, उत्तर प्रदेश -202001

ईमेल : [email protected]

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