हिन्दी साहित्य – राजभाषा दिवस विशेष – ☆ प्यारी बिटिया ‘हिंदी’ ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(राजभाषा दिवस पर श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की  विशेष कविता  प्यारी बिटिया ‘हिंदी.) 

 

☆ प्यारी बिटिया ‘हिंदी’ ☆

 

अपने वतन की जान है हिंदी,

हम सबका सम्मान है,

प्यारे बोल बोले हैं हिंदी,

हम सबकी पहचान है.

 

मिठास इसकी अमृत जैसी,

बहती पावन गंगा है,

पीकर धार माँ आँचल-सी,

बनता अपना जी चंगा है,

जहर मत घोलना इस अमृत में,

यह हमारी शान है,

प्यारे बोल….

 

सबका एक मेल है हिंदी,

न रखती दूजा भाव है,

जो भी हो सवार ले संग,

करती नैया पार है,

रखती सबसे इन्सानी नाता,

देश का यह गौरव गान है,

प्यारे बोल….

 

रंग-अंग हिंदी के कितने,

सबका बनी शृंगार है,

रंग न फीके पड़ेंगे इसके,

हम सब उसका हूँकार है,

नवेली दुल्हन पल-पल भाती,

चेहरे खिलाती मुस्कान है,

प्यारे बोल…..

 

प्यारी बिटिया हिंदी हमारी,

सवा-सवा बढ़ जाती है,

तोड़ के बंधन देश के अपने,

परदेस में गीत गाती है,

न इसकी अब कोई सीमा,

उसकी मुट्ठी में जहान है,

प्यारे बोल…..

 

चारों दिशाएँ गुँजाएँ हिंदी,

हम सबका यह काम है,

करते रहें हम इसकी सेवा,

अपने तन में चारों धाम है,

सिर न उसका झूकने देना,

इसमें सबका ही कल्याण है,

प्यारे बोल…..

 

© मच्छिंद्र बापू भिसे

भिराडाचीवाडी, डाक भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा – ४१५ ५१५ (महाराष्ट्र)

मोबाईल नं.:9730491952 / 9545840063

ई-मेल[email protected] , [email protected]

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हिन्दी साहित्य – राजभाषा दिवस विशेष – ☆ हिंदी पखवाड़ा…. ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

राजभाषा दिवस विशेष 

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(राजभाषा दिवस पर डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी   की विशेष  कविता  हिंदी पखवाड़ा…..) 

 

* हिंदी पखवाड़ा…. *

 

वर्ष भर जिस बेरुखी से

चिन्दियाँ करते रहे

जोड़ने उन चिन्दियों को

आ गया हिंदी दिवस है

मिला है फरमान सरकारी

बजट स्वीकृत हुआ है

अनिच्छित मन से मनाने को

इसे अब सब विवश हैं।

 

एक पखवाड़ा मगजपच्ची

चले आयोजनों की

आंग्ल में है सर्क्युलर

अनुवाद हिंदी में दिया है

बँट रहे सम्मान

स्वल्पाहार के संग बैठकों में

इस तरह फिर राजभाषा

हिंदी को उपकृत किया है।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – राजभाषा दिवस विशेष – हिंदी भाषा ☆ – श्री कुमार जितेंद्र

राजभाषा दिवस विशेष 

श्री कुमार जितेन्द्र

 

(राजभाषा दिवस पर श्री कुमार जितेंद्र जी की  विशेष कविता  हिन्दी भाषा.

☆ हिन्दी भाषा ☆

 

हिन्द देश की हिन्दी भाषा ।

भारत देश की है राजभाषा ।।

 

ऐतिहासिक प्रमाण हिन्दी है ।

प्रचुर साहित्य रचना हिन्दी है ।।

 

स्वतंत्रता में योगदान हिंदी है ।

विभिन्नता में एकता हिन्दी है ।।

 

हिंदुस्तान की एकता हिन्दी है ।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण हिन्दी है ।।

 

विभिन्न धर्मों में एकता हिन्दी है।

विभिन्न त्यौहारों में एकता हिन्दी है ।।

 

जग में पहचान निराली हिन्दी है ।

विभिन्न भाषाओं की संस्कृति हिंदी है ।।

 

भारत की शान हिन्दी भाषा है ।

भारत का गौरव राष्ट्रभाषा है ।।

 

ले दृढ़ संकल्प हिन्दी भाषा का ।

समझे महत्‍व हिन्दी भाषा का ।।

 

हिन्द देश की हिन्दी भाषा ।

भारत देश की है राजभाषा ।।

 

✍?कुमार जितेन्द्र

साईं निवास – मोकलसर, तहसील – सिवाना, जिला – बाड़मेर (राजस्थान)

मोबाइल न. 9784853785

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 13 ☆ माँ तुम याद बहुत आती हो ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की एक हृदयस्पर्शी कविता  “माँ तुम याद बहुत आती हो ”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 13  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ माँ तुम याद बहुत आती हो

 

माँ तुम याद बहुत आती हो
बस सपने में दिख जाती हो.

 

पूछा है तुमसे, एक सवाल
छोड़ गई क्यों हमें इस हाल
जीवन हो गया अब वीराना
तेरे बिना सब है बेहाल
कुछ मन की तो कह जाती तुम
मन ही मन क्यों मुस्काती हो ?

 

माँ तुम याद बहुत आती हो
बस सपने में दिख जाती हो .

 

मुमुझमे बसती तेरी धड़कन
पढ़ लेती हो तुम अंतर्मन
तुमको खोकर सब है खोया
एक झलक तुम दिखला जाती .
जाने की इतनी क्यों थी जल्दी
हम सबसे क्यों नहीं कहती हो?

 

माँ तुम याद बहुत आती हो
हम सबको तुम तरसाती हो.

 

© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 1 ☆ फूटी मेड़ें बही क्यारी ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  हम श्री संतोष नेमा जी के  ह्रदय से अभारी हैं जिन्होंने  हमारे आग्रह को स्वीकार कर  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” के लिए रचनाएँ प्रेषित करना स्वीकार किया है.   हमें पूर्ण विश्वास है कि “इंद्रधनुष” को पाठकों का स्नेह /प्रतिसाद मिलेगा और उन्हें इस स्तम्भ में हिंदी के साथ ही बुंदेली रचनाओं को पढनें का इंद्रधनुषीय अवसर प्राप्त होगा. आज प्रस्तुत है वर्षा ऋतु पर एक सामयिक बुंदेली कविता “फूटी मेड़ें बही क्यारी “. अब आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़ सकेंगे . ) 

 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष #1 ☆

 

☆  फूटी मेड़ें बही क्यारी ☆

 

फूटी मेड़ें बही क्यारी ।

जा साल भई बरखा भारी ।।

 

गरज गरज,बादर डरा रये ।

बिजली भी,अब कौंधा रये ।।

जा बरस की बरखा न्यारी ।

फूटी मेड़ें बही क्यारी  ।।

 

नाले नरवा भी इतरा रए ।

गांव कस्बा डूब में आ गए ।।

बहकी नदियां भरे खुमारी ।

फूटी मेड़ें बही क्यारी। ।।

 

नदी सीमाएं लांघ गई हैं  ।

छलक रए अब बांध कईं हैं ।।

परेशान है जनता सारी ।

फूटी मेड़ें बही क्यारी ।।

 

मंदिरों के शिखर डूब गये ।

हम सें भगवन भी रूठ गये ।।

अति वृष्टि सें दुनिया हारी ।

फूटी मेड़ें बही क्यारी ।।

 

हैरां हो रये ढोर बछेरु  ।

ठिया ढूंडे पंक्षी पखेरू ।।

अब “संतोष”करो तैयारी ।

फूटी मेड़ें बही क्यारी ।।

जा साल भईं बरखा भारी ।।

 

कछु अपनी भी जिम्मेदारी ।

जा साल भई बरखा भारी ।।

फूटी मेड़ें बही क्यारी। ।।

———————-

@संतोष नेमा “संतोष”

@ संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य # 13 – बाल कविता-वरदायी चक्की और मेरी चाह ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  बाल कविता  “वरदायी चक्की और मेरी चाह।  आदरणीय डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय ‘ जी ने बड़ी ही सादगी से बाल अभिलाषा को वरदायी चक्की के माध्यम से सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया है । )

(अग्रज डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी की फेसबुक से साभार)

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 13 ☆

 

☆ बाल कविता – वरदायी चक्की और मेरी चाह ☆  

 

सोच रहा हूं अगर मुझे

मनचाही चीजे देने वाली

वह चक्की मिल जाती

तो जीवन में मेरे भी

ढेरों खुशियां आ जाती.

 

सबसे पहली मांग

मेरी होती कि

वह मम्मी के सारे काम करे

और हमारी मम्मी जी

पूरे दिनभर आराम करे…

 

मांग दूसरी

पापा जी की सारी

चिंताओं को पल में दूर करे

और हमारे मां-पापाजी

प्यार हमें भरपूर करे…

 

मांग तीसरी

भारी भरकम बस्ता

स्कूल का ये हल्का हो जाए

जो भी पढ़ें, याद हो जाए

और प्रथम श्रेणी पाएं…

 

चारों ओर रहे हरियाली

फल फूलों से लदे पेड़

फसलें लहराए

चौथी मांग

सभी मिल पर्यावरण बचाएं…

 

मांग पांचवी

देश से भ्रष्टाचार

और आतंकवाद का नाश हो

आगे बढ़ें निडरता से

सबके मन में उल्लास हो…

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ काव्य कुञ्ज – # 4 – तेरी बद्दुआएँ ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की अभिरुचिअध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य वाचन, लेखन एवं समकालीन साहित्यकारों से सुसंवाद करना- कराना है। यह निश्चित ही एक उत्कृष्ट  एवं सर्वप्रिय व्याख्याता तथा एक विशिष्ट साहित्यकार की छवि है। आप विभिन्न विधाओं जैसे कविता, हाइकु, गीत, क्षणिकाएँ, आलेख, एकांकी, कहानी, समीक्षा आदि के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।  आप महाराष्ट्र राज्य हिंदी शिक्षक महामंडल द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी अध्यापक मित्र’ त्रैमासिक पत्रिका के सहसंपादक हैं। अब आप प्रत्येक बुधवार उनका साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज पढ़ सकेंगे । आज प्रस्तुत है उनकी नवसृजित कविता “तेरी बद्दुआएँ”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज – # 4☆

 

☆ तेरी बद्दुआएँ 

 

(विधा:कविता)

कवि: मच्छिंद्र भिसे,

 

अरे सुन प्यारे पगले,

देख तेरी बद्दुआएँ काम कर गईं,

पटकना था जमीं पर हमें,

यूँ आसमाँ पर बिठा गईं।

 

तेरी रंग बदलती सूरत ने,

परेशान बारंबार किया,

यही रंगीन सूरत मुझे,

हर बार सावधान कर गई।

 

आप एहसास चाहा जब भी,

नफरत ही नफरत मिली,

न जाने कैसे तेरी यह नफरत,

खुद को सँजोये प्रीत बन गई।

 

छल-कपट की सौ बातें,

इर्द-गिर्द घूमती रहीं,

तेरा बदनसीब ही समझूँ,

जो उभरने का गीत बन गई।

 

तेरी हर एक बद्दुआ,

मेरी ताकत बनती गई,

देनी चाही पीड़ा हमें,

वह तो दर्द की दवा बन गई।

 

सुन, अभिशाप से काम न चला,

आशीर्वचन का चल एक दीप जला,

आएगा जीवन में एक नया विहान,

दीप की ज्योति बार-बार कह गई।

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 7 ☆ हिस्सा ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा ☆

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “हिस्सा”। )

 

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 7  

☆ हिस्सा  

 

तुमने

कर दिया है बंद मुझे

किसी सूने से लफ्ज़ की तरह

जो छुपा हुआ है

किसी ठहरी सी नज़्म में,

किसी किताब के मौन सफ्हे पर!

 

खामोश सी मैं

एक टक देख रही हूँ

तुम्हारी आँखों के चढ़ते-उड़ते रंगों को

और निहार रही हूँ

तुम्हारे होठों की रंगत को,

तुम्हारे माथे की चौड़ाई को

और तुम्हारे जुल्फों के घनेरेपन को!

 

सुनो,

मैं तुम्हारी मुहब्बत का

एक छोटा सा हिस्सा हूँ,

तुम ही हो मुझे बनाने वाले

और मेरी पहचान भी तभी तक है

जब तक तुम मुझे चाहो;

वरना मिटाने में तो

बस एक लम्हा लगता है!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – रोज़ रात ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ रोज रात ☆

रोज रात
सो जाता हूँ
इस विश्वास से कि
सुबह उठ जाऊँगा,
दर्शन कहता है
साँसें बाकी हैं
सो उठ पाता हूँ,
मैं सोचता हूँ
विश्वास बाकी है
सो उठ जाता हूँ..।

विश्वास बना रहे।

(आगामी कविता संग्रह से।)

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

 

 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – कालचक्र ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ कालचक्र ☆

 

उम्र की दहलीज पर
सिकुड़ी बैठी वह देह
निरंतर बुदबुदाती रहती है,
दहलीज की परिधि के भीतर
बसे लोग अनपढ़ हैं,
बड़बड़ाहट और बुदबुदाहट में
फर्क नहीं समझते!
मोतियाबिंद और ग्लूकोमा के
चश्मे लगाये बुदबुदाती आँखें
पढ़ नहीं पातीं वर्तमान
फलत: दोहराती रहती हैं अतीत!
मानस में बसे पुराने चित्र
रोक देते हैं आँखों को
वहीं का वहीं,
परिधि के भीतर के लोग
सिकुड़ी देह को धकिया कर
खुद को घोषित
कर देते हैं वर्तमान,
अनुभवी अतीत
खिसियानी हँसी हँसता है,
भविष्य, बिल्ली-सा पंजों को साधे
धीरे-2 वर्तमान को निगलता है,
मेरी आँखें ‘संजय’ हो जाती हैं…..,
देखती हैं चित्र दहलीज किनारे
बैठे हुओं को परिधि पार कर
बाहर जाते और
स्वयंभू वर्तमान को शनै:-शनै:
दहलीज के करीब आते,
मेरी आँखें ‘संजय’ हो जाती हैं…..!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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