हिन्दी साहित्य – कविता (दोहा) – * आतंकवाद * – डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

आतंकवाद – (दोहा कृति)
(डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ जी की  5 फरवरी 2019 को विमोचित “किसलय मन अनुराग (दोहा कृति)” पुस्तक के पुस्तकांश स्वरूप उनकी सामयिक दोहा -कृति  “आतंकवाद” आपके अवलोकनार्थ प्रस्तुत है।)

 

विश्व शांति के दौर में, आतंकी विस्फोट

मानव मन में आई क्यों, घृणा भरी यह खोट

 

विकृत सोच से मर चुके, कितने ही निर्दोष

सोचो अब क्या चाहिए, मातम या जयघोष

 

प्रश्रय जब पाते नहीं, दुष्ट और दुष्कर्म

बढ़ती सन्मति, शांति तब, बढ़ता नहीं अधर्म

 

दुष्ट क्लेश देते रहे, बदल ढंग, बहुभेष

युद्ध अदद चारा नहीं, लाने शांति अशेष

 

मानवीय संवेदना, परहित जन कल्याण

बंधुभाव वा प्रेम ने, जग से किया प्रयाण

 

मानवता पर घातकर, जिन्हें न होता क्षोभ

स्वार्थ-शीर्ष की चाह में, बढ़ता उनका लोभ

 

हर आतंकी खोजता, सदा सुरक्षित ओट

करता रहता बेहिचक, मौका पाकर चोट

 

पाते जो पाखंड से, भौतिक सुख-सम्मान

पोल खोलता वक्त जब, होता है अपमान

 

रक्त पिपासू हो गये, आतंकी, अतिक्रूर

सबक सिखाता है समय, भूले ये मगरूर

 

सच पैरों से कुचलता, सिर चढ़ बोले झूठ

इसीलिए अब जगत से, मानवता गई रूठ

 

निज बल, बुद्धि, विवेक पर, होता जिन्हें गुरूर

सत्य सदा ‘पर’ काटने, होता है मजबूर

 

आतंकी हरकतों से, दहल गया संसार

अमन-चैन के लिए अब, हों सब एकाकार

 

मानव लुट-पिट मर रहा, आतंकी के हाथ

माँगे से मिलता नहीं, मददगार का साथ

 

आतंकी सैलाब में, मानवता की नाव

कहर दुखों का झेलती, पाये तन मन घाव

 

अपराधों की श्रृंखला, झगड़े और वबाल

शांति जगत की छीनने, ये आतंकी चाल

 

© विजय तिवारी  “किसलय”, जबलपुर 

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हिन्दी साहित्य – कविता – * Retired दोपहर * – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार 

Retired दोपहर

(श्री आशीष कुमार जी की एक प्रयोगात्मक कविता।)
वो दोपहर अब नहीं आती
वो दोपहर जिसकी गोद के किसी कोने में कुछ बच्चे
धूल में धुले हुए कंचे या गीली डंडा खेलते थे।
कुछ बच्चे उस दोपहर के गले में
उचक कर झट से अपनी हाथो की माला डाल कर
उसके गले में लटक कर झूला झूलने लगते थे।
वो दोपहर जिसमे खाने के बाद
पांच मिनिट की झपकी भी होती थी
कहीं पर चार -पांच लोग बैठ कर
ताश खेलते दिख जाते थे ।
वो प्याऊ का ठंडा पानी
जो दोपहर की प्यास बुझाता था,
उसके घड़े में छेद हो गया है,
पास में ही कुछ प्लास्टिक की बोतल रखी रहती है उसके,
उस दोपहर की प्यास उन बोतलों के पानी से नहीं बुझती है।
पकड़म-पकड़ाई जैसे खेल
अब दोपहर के सूनेपन को चिढ़ाते नहीं है।
त्यौहारो और उत्सवों के अपनेपन की आवाजें
अब उसे शोर लगने लगी है
अब वो दोपहर Retire हो गयी है।
अब उसकी जगह एक नयी दोपहर ने ले ली है
जो अपने को फिट रखती है
सूट बूट में रहती है।
ये नयी दोपहर
अब चार दीवारों से बाहर नहीं निकलती है।
वरना गर्मियों में लू लगने से,
बारिश में भीग जाने से
और
सर्दी में ठण्ड से इसकी तबीयत खराब हो जाती है।
ये नयी दोपहर
अपनी गोदी में बच्चो को नहीं बैठने देती।
क्योकि,
थोड़ी modern हो गयी है।
बल्कि पकड़ा देती है उनके हाथो में मोबाइल।
अब ज्यादातर जगह
ये नयी दोपहर ही मिलती है
वो पुरानी दोपहर
अब कही कही मजदूरो के पसीनो में,
किसानो के हलो में
और
गरीबो की लाचारी में बेबस सी दिखाई दे जाती है।
पर शायद ये ही नियम है
पुराना जाता है
और
उसकी जगह नया आता है……….
© आशीष कुमार 

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हिन्दी साहित्य – कविता – * तिरंगा अटल है * – हेमन्त बावनकर

 हेमन्त बावनकर

तिरंगा अटल है

 

अचानक एक विस्फोट होता है

और

इंसानियत के परखच्चे उड़ जाते हैं

अचानक

रह रह कर ब्रेकिंग न्यूज़ आती है

सोई हुई आत्मा को झकझोरती है

सारा राष्ट्र नींद से जाग उठता है

सबका रक्त खौल उठता है

सारे सोशल मीडिया में

राष्ट्र प्रेम जाग उठता है

समस्त कवियों में

करुणा और वीर रस जाग उठता है।

देखना

घर से लेकर सड़क

और सड़क से लेकर राष्ट्र

जहां जहां तक दृष्टि जाये

कोई कोना न छूटने पाये।

 

शहीदों के शव तिरंगों में लपेट दिये जाते हैं

कुछ समय के लिए

राजनीति पर रणनीति हावी हो जाती है

राजनैतिक शव सफ़ेद चादर में लपेट दिये जाते हैं

तिरंगा सम्मान का प्रतीक है

अमर है।

सफ़ेद चादर तो कभी भी उतारी जा सकती है

कभी भी।

शायद

सफ़ेद चादर से सभी शहीद नहीं निकलते।

हाँ

कुछ अपवाद हो सकते हैं

निर्विवाद हो सकते हैं

गांधी, शास्त्री, अटल और कलाम

इन सबको हृदय से सलाम।

 

समय अच्छे अच्छे घाव भर देता है

किन्तु,

समय भी वह शून्य नहीं भर सकता

जिसके कई नाम हैं

पुत्र, भाई, पिता, पति ….

और भी कुछ हो सकते हैं नाम

किन्तु,

हम उनको शहीद कह कर

दे देते हैं विराम।

 

परिवार को दे दी जाती है

कुछ राशि

सड़क चौराहे को दे दिया जाता है

अमर शहीदों के नाम

कुछ जमीन या नौकरी

राष्ट्रीय पर्वों पर

स्मरण कर

चढ़ा दी जाती हैं मालाएँ

किन्तु,

हम नहीं ला सकते उसे वापिस

जो जा चुका है

अनंत शून्य में।

 

समय अच्छे-अच्छे घाव भर देता है

जीवन वैसे ही चल देता है

ब्रेकिंग न्यूज़ बदल जाती है

सोशल मीडिया के विषय बदल जाते हैं

शांति मार्च दूर गलियों में गुम जाते हैं

कविताओं के विषय बदल जाते हैं।

तिरंगा अटल रहता है

रणनीति और राजनीति

सफ़ेद कपड़ा बदलते रहते हैं।

गंगा-जमुनी तहजीब कहीं खो जाती है

रोटी कपड़ा और मकान का प्रश्न बना रहता है

जिजीविषा का प्रश्न बना रहता है।

 

खो जाती हैं वो शख्सियतें

जिन्हें आप महामानव कहते हैं

उन्हें हम विचारधारा कहते हैं

गांधी, शास्त्री, अटल और कलाम

जिन्हें हम अब भी करते हैं सलाम।

 

© हेमन्त बावनकर 

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – * नर्मदा – विवेक की कविता * – श्री विवेक चतुर्वेदी

श्री विवेक चतुर्वेदी 

नर्मदा – विवेक की कविता 

(प्रस्तुत है जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी की एक भावप्रवण कविता  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय)

नर्मदा पर प्रपात..
गरजता हुआ जल..
मैंने तखत पर लेटे
बाबा को याद किया
उद्दाम हंसी से हिलती
उनकी सफेद दाढ़ी
जैसे प्रपात का जल फेनिल
आगे शांत होती नर्मदा
जान पड़ी.. दादी…
आधी धूप-छांव के आंगन में
पालथी लगा बैठी
पहने कत्थई किनारी की
सफेद धोती
दुलारती मचलते नवजातों को
गली से निकलते नागरों को बुलाती
कहती.. बेटा राम-राम
फिर नदी पर विशाल
तटबंध से पिता
सुबह से रात सहेजते कितना कुछ
थामते अपने बाजुओं में जीवन जल
उतारते गहराई में
हम को पकड़ कर हाथ
कृशकाय होती गई नर्मदा में
मां को देखा
अपना रक्त मज्जा सुखा
घर पोसती
सब की भूख जोहती
रांधती सबकी  चाह का अन्न
देर रात रखती अपनी थाली में
एक आखिरी रोटी
बटुलिया लुढ़का निकालती
कटोरी में पनछिटी दाल
कटी गर्भनाल से संतानों में रिस गया
मां का पूरा जीवन
मैंने सूखती उपनदियों के
निशान परखे
बहनें हैं ये
जो अब नर्मदा से
मिलने नहीं आ पातीं
हुईं ससुराल में दमित
या सूख गईं रास्ते में
कारखाने की ओर
मोड़ दी गई
नहर के साथ चला..
ये भैया थे… जो कब का
छोड़ चुके गांव
बसे शहर की किसी तंग गली में
पत्थरों की खोह में ठहर चुका जल दिखा
ये भाभी थीं… जो हुईं विक्षिप्त..
और…  छोड़ गए भैया..सदा के लिए
मैं नर्मदा और इस के सुख दुख की बात कहता हूं
ये नदी मेरे घर में है
ये वो नर्मदा नहीं.. जिसकी बात अखबार में है

© विवेक चतुर्वेदी

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हिन्दी साहित्य- कविता – * ब च प न * – श्री सदानंद आंबेकर

श्री सदानंद आंबेकर 

ब च प न

(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। )
मैंने देखा-
कि पास से गुजरती एक स्कूल बस में,
एक बच्चा पूरी सांस से बांसुरी फूंके जा रहा था
मानों बताना चाह रहा हो कि,
बस कारों वाहनों की पें पें में भी – बचपन अभी ज़िंदा है।
मैंने देखा-
कि मेरी कॉलोनी के संकरे से तथाकथित ग्राउंड में,
बच्चे पूरी ताकत से गेंद उछाल रहे थे
मानो कहना चाह रहे हों कि,
ऊँची- ऊँची इमारतों के बीच भी – बचपन अभी ज़िंदा है।
मैंने देखा-
कि मोबाइल टॉवरों के समूह एवं डीटीएच की छतरियों के बीच,
एक बच्चा लगन से पतंग उड़ाने का असफल प्रयास कर रहा था
मानो दिखलाना चाह रहा हो कि,
संचार की इस गगनचुंबी उड़ान में भी – बचपन अभी ज़िंदा है।
मैंने देखा-
कि हर व्यक्ति के दोनों कानों से सुनी जा रहा अनवरत-
मोबाइल चर्चा के बीच भी
एक बच्चा अपनी नन्हीं सी सखी के कान में फुसफुसा रहा था
मानो अहसास दिलाना चाह रहा हो कि,
इलेक्ट्रॉनिक्स के भावनाशून्य संसार में भी –
बच्चे,
बचपन,
और
उनका प्यारा संसार
अभी ज़िंदा है।
©  सदानंद आंबेकर

(श्री सदानंद आंबेकर,गायत्री तीर्थ  शांतिकुंजहरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण  से जुड़े हैं एवं गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवासरत हैं । )

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हिन्दी साहित्य- कविता/गजल – * यहाँ सब बिकता है  * – डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल

डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल  

यहाँ सब बिकता है 

(प्रस्तुत है  डॉ उमेश चंद्र शुक्ल जी  की एक बेहतरीन गजल)

 

खुला नया बाज़ार यहाँ सब बिकता है,
कर लो तुम एतबार यहाँ सब बिकता है॥

जाति धर्म उन्माद की भीड़ जुटा करके,
खोल लिया व्यापार यहाँ सब बिकता है॥

बदल गई हर रस्म वफा के गीतों की,
फेंको बस कलदार यहाँ सब बिकता है॥

दीन धरम ईमान जालसाजी गद्दारी,
क्या लोगे सरकार यहाँ सब बिकता है॥

एक के बदले एक छूट में दूँगा मैं,
एक कुर्सी की दरकार यहाँ सब बिकता है॥

सुरा-सुन्दरी नोट की गड्डी दिखलाओ,
लो दिल्ली दरबार यहाँ सब बिकता है॥

अगर चाहिए लोकतन्त्र की लाश तुम्हें,
सस्ता दूँगा यार यहाँ सब बिकता है॥

 

©  डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल, मुंबई 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ‘शब्द’ – डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन)

शब्द !
यह जानते हुए भी कि
हर शब्द
हर कविता में फिट नहीं बैठता
ज़िद बस
कवि गण
बिना ढक्कन की
कोने में फेंक दी जाने वाली
खाली बोतल-सी
 कविता में
ऊपर से ठोंकी गई
खुखड़ी की तरह
ठोंकते ही रहते हैं
छवि विहीन
मनचाहे शब्द
और ,
शब्द हैं कि
ठुँक भी जाते हैं
अपनी कमर छिलाकर
कुछ कम नहीं हैं
ये भी
नई चाल की हर कविता पर
लार टपकाते …
थिरक उठते हैं
किसी कामी की तरह
असमय विधुर हुए शब्द !
© डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

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हिन्दी साहित्य – कविता – * रसोई * – सुश्री मीनाक्षी भालेराव 

सुश्री मीनाक्षी भालेराव 

रसोई

(कवयित्री सुश्री मीनाक्षी भालेराव जी का e-abhivyakti में स्वागत है।)

 

जब हर रोज़ रसोई घर में
कैद हो जाती है सांसें
कुछ बदल नहीं सकती हूँ
अपनी सीमाओं को तब
कभी कभी खाने में परोस
दिया करती हूँ ।

अपना भरोसे से भरा परांठा
अपनी खुशी, नाराजगी, उदासी की मिक्स सब्जी
टुटे, बिखरे, सहमे ख्यालों का पुलाव
कभी तीखे, खट्टे, रूखे स्वभाव को
ढेर सारा उंडेल कर
बेस्वाद, बदहजमी वाला खाना
कभी-कभी खाने में परोस देती हूँ ।

खाने की टेबल पर बिछा देतीं हूँ
अपनी अधुरी महत्वाकांक्षाएं से बुना
टेबल क्लोथ
खाली ग्लास में भर देती हूँ
उम्मीदों का पानी ।

थाली, कटोरी, चम्मच जब सब को
भर देती हूँ
अपनी आंखों की नमीं से
मुंह में कैद हुऐ अलफाजों से
कुछ गीले लम्हों से
और थोड़ी सी खामोशी से

तब अस्तित्व टूट कर टेबिल के
नीचे बिखर जाता है
जूठन सा और
आत्मविश्वास सहम जाता है
खरखट सा हो जाता है ।

© मीनाक्षी भालेराव, पुणे 

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हिन्दी साहित्य – कविता – * गीत * – सुश्री गुंजन गुप्ता

सुश्री गुंजन गुप्ता

(युवा  कवयित्री  सुश्री गुंजन गुप्ता जी का e-abhivyakti में स्वागत है।)

गीत 

मैं चन्दा की  धवल चांदनी,
तू सिन्दूरी शाम पिया।
मन्द-मन्द अधरों में पुलकित,
तू मेरी मुस्कान पिया॥

जैसे ब्रज की विकल गोपियाँ,
उलझ गयी हों सवालों में।
जैसे तम के दिव्य सितारे,
गुम हो जाएँ  उजालों में।
बेसुध हो जाऊँ जिस मधुर-मिलन में,
तू ऐसी मुलाक़ात पिया॥

संदली स्वप्न की मिट्टी में,
बोकर अपने जीवन मुक्ता को।
भावों की नयी कोपलों को,
सींचा नित नयनों के जल से।
भीग जाऊँ जिस प्रेम सुधा से,
तू ऐसी बरसात पिया॥

मैं चन्दा की धवल चांदनी
तू सिन्दूरी शाम पिया।
मन्द-मन्द अधरों में पुलकित
तू मेरी मुस्कान पिया॥

 

© सुश्री गुंजन गुप्ता

गढ़ी मानिकपुर,  प्रतापगढ़़ (उ प्र)

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हिन्दी साहित्य – कविता – * पेंसिल की नोक * – सुश्री नूतन गुप्ता

सुश्री नूतन गुप्ता 

 

पेंसिल की नोक

(संयोग से  इसी जमीन  पर इसी  दौरान एक और कविता  की रचना श्री  विवेक चतुर्वेदी जी द्वारा पेंसिल की तरह बरती गई घरेलू स्त्रियां के शीर्षक से रची गई। मुझे आज  ये  दोनों कवितायें  जिनकी अपनी अलग  पहचान है, आपसे साझा करने में अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है। 

प्रस्तुत है  सुश्री  नूतन गुप्ता  जी की भावप्रवण कविता ।)

 

छिलते छिलते घायल हो गई ये पेंसिल की नोक
लिखने के अब क़ाबिल हो गई ये पेंसिल की नोक।
मीठा लिखते रहना इस पेंसिल की आदत था
आज अचानक क़ातिल हो गई ये पेंसिल की नोक
हरदम इसके लफ़्ज़ों से बस लहू टपकता था
पायल जैसी पागल हो गई ये पेंसिल की नोक।
कभी मनाती फिरती थी नाराज़ समंदर को
अब कितनों का साहिल हो गई ये पेंसिल की नोक
नूतन’ क्या मालूम नहीं था फटे मुक़द्दर की है तू
खुशियों में क्यूँ गाफ़िल हो गई ये पेंसिल की नोक।

©  नूतन गुप्ता

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