श्री सदानंद आंबेकर
ब च प न
(श्री सदानंद आंबेकर,गायत्री तीर्थ शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण से जुड़े हैं एवं गंगा तट पर 2013 से निरंतर प्रवासरत हैं । )
श्री सदानंद आंबेकर
ब च प न
(श्री सदानंद आंबेकर,गायत्री तीर्थ शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण से जुड़े हैं एवं गंगा तट पर 2013 से निरंतर प्रवासरत हैं । )
डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल
यहाँ सब बिकता है
(प्रस्तुत है डॉ उमेश चंद्र शुक्ल जी की एक बेहतरीन गजल)
खुला नया बाज़ार यहाँ सब बिकता है,
कर लो तुम एतबार यहाँ सब बिकता है॥
जाति धर्म उन्माद की भीड़ जुटा करके,
खोल लिया व्यापार यहाँ सब बिकता है॥
बदल गई हर रस्म वफा के गीतों की,
फेंको बस कलदार यहाँ सब बिकता है॥
दीन धरम ईमान जालसाजी गद्दारी,
क्या लोगे सरकार यहाँ सब बिकता है॥
एक के बदले एक छूट में दूँगा मैं,
एक कुर्सी की दरकार यहाँ सब बिकता है॥
सुरा-सुन्दरी नोट की गड्डी दिखलाओ,
लो दिल्ली दरबार यहाँ सब बिकता है॥
अगर चाहिए लोकतन्त्र की लाश तुम्हें,
सस्ता दूँगा यार यहाँ सब बिकता है॥
© डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल, मुंबई
डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन)
सुश्री मीनाक्षी भालेराव
रसोई
(कवयित्री सुश्री मीनाक्षी भालेराव जी का e-abhivyakti में स्वागत है।)
जब हर रोज़ रसोई घर में
कैद हो जाती है सांसें
कुछ बदल नहीं सकती हूँ
अपनी सीमाओं को तब
कभी कभी खाने में परोस
दिया करती हूँ ।
अपना भरोसे से भरा परांठा
अपनी खुशी, नाराजगी, उदासी की मिक्स सब्जी
टुटे, बिखरे, सहमे ख्यालों का पुलाव
कभी तीखे, खट्टे, रूखे स्वभाव को
ढेर सारा उंडेल कर
बेस्वाद, बदहजमी वाला खाना
कभी-कभी खाने में परोस देती हूँ ।
खाने की टेबल पर बिछा देतीं हूँ
अपनी अधुरी महत्वाकांक्षाएं से बुना
टेबल क्लोथ
खाली ग्लास में भर देती हूँ
उम्मीदों का पानी ।
थाली, कटोरी, चम्मच जब सब को
भर देती हूँ
अपनी आंखों की नमीं से
मुंह में कैद हुऐ अलफाजों से
कुछ गीले लम्हों से
और थोड़ी सी खामोशी से
तब अस्तित्व टूट कर टेबिल के
नीचे बिखर जाता है
जूठन सा और
आत्मविश्वास सहम जाता है
खरखट सा हो जाता है ।
© मीनाक्षी भालेराव, पुणे
सुश्री गुंजन गुप्ता
(युवा कवयित्री सुश्री गुंजन गुप्ता जी का e-abhivyakti में स्वागत है।)
गीत
मैं चन्दा की धवल चांदनी,
तू सिन्दूरी शाम पिया।
मन्द-मन्द अधरों में पुलकित,
तू मेरी मुस्कान पिया॥
जैसे ब्रज की विकल गोपियाँ,
उलझ गयी हों सवालों में।
जैसे तम के दिव्य सितारे,
गुम हो जाएँ उजालों में।
बेसुध हो जाऊँ जिस मधुर-मिलन में,
तू ऐसी मुलाक़ात पिया॥
संदली स्वप्न की मिट्टी में,
बोकर अपने जीवन मुक्ता को।
भावों की नयी कोपलों को,
सींचा नित नयनों के जल से।
भीग जाऊँ जिस प्रेम सुधा से,
तू ऐसी बरसात पिया॥
मैं चन्दा की धवल चांदनी
तू सिन्दूरी शाम पिया।
मन्द-मन्द अधरों में पुलकित
तू मेरी मुस्कान पिया॥
© सुश्री गुंजन गुप्ता
गढ़ी मानिकपुर, प्रतापगढ़़ (उ प्र)
सुश्री नूतन गुप्ता
पेंसिल की नोक
(संयोग से इसी जमीन पर इसी दौरान एक और कविता की रचना श्री विवेक चतुर्वेदी जी द्वारा “पेंसिल की तरह बरती गई घरेलू स्त्रियां“ के शीर्षक से रची गई। मुझे आज ये दोनों कवितायें जिनकी अपनी अलग पहचान है, आपसे साझा करने में अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है।
प्रस्तुत है सुश्री नूतन गुप्ता जी की भावप्रवण कविता ।)
© नूतन गुप्ता
श्री विवेक चतुर्वेदी
पेंसिल की तरह बरती गई घरेलू स्त्रियां
(संयोग से इसी जमीन पर इसी दौरान एक और कविता की रचना सुश्री नूतन गुप्ता जी द्वारा “पेंसिल की नोक “ के शीर्षक से रची गई। मुझे आज ये दोनों कवितायें जिनकी अपनी अलग पहचान है, आपसे साझा करने में अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है।
प्रस्तुत है जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी की भावप्रवण कविता ।)
डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल
…. तो ज़िंदगी मिले
(प्रस्तुत है डॉ उमेश चंद्र शुक्ल जी की एक बेहतरीन गजल)
जी डी पी उछल रही हमें फक्र है खुदा,
तू खैरात बाँटना छोड़ दे तो जिंदगी मिले॥1॥
खेतों में सपने बोये फसल काटे जहर का,
रब को अगर तू बख्श दे तो ज़िंदगी मिले॥2॥
ऊपर औ नीचे बीच में मध्यम है पिस रहा,
नज़रें इनायत हो तो इधर ज़िंदगी मिले ॥3॥
जय जवान, जय किसान, विज्ञान की है जय,
तू धर्म बेचना छोड़ दे तो जिंदगी मिले ॥4॥
मजबूर नहीं था कभी, अब मजलूम हो गया,
मज़लूमों को अगर बख्श दे तो जिंदगी मिले ॥5॥
हमने खून-पसीने से सींचा है हिंदुस्तान ‘उमेश’
तू खून पीना छोड़ दे अगर तो जिंदगी मिले ॥6॥
© डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल