हिन्दी साहित्य – कविता ☆ भीड़ के अभिभावक ☆ डॉ प्रेरणा उबाळे ☆

डॉ प्रेरणा उबाळे

☆ कविता – भीड़ के अभिभावक ☆  डॉ प्रेरणा उबाळे 

भीड़ में चलते हैं

बहुत अकेले होते हैं

*

जीते सबके खातिर

सोचते कमाते लुटाते

अपनों के खातिर

प्रेम बरसाते

बस सभी के लिए l

*

सादगी कपड़ों में

सहजता बातों में

सरलता आँखों में

निश्चलता व्यवहार में

झरना बहता अखंड।

*

होठों की मुस्कान

छुपाता समंदर गहरा

कर्मठ कर्मरत

अखंड अविरत।

*

मारना पड़ता है

खुदको

भावनाओं को

संभलना पड़ता है

बारंबार l

*

प्राणों पर बन आए

तब भी

जिलाए रखती है जिंदगी

निखरती रहती है जिंदगी।

हो कोई भी क्षेत्र

रहना पड़ता है अडिग

नदी के द्वीप की तरह l

*

भीड़ में चलते हैं

बिल्कुल अकेले होते हैं

कार्य करने वाले –

कार्यकर्ता

अफसर

अध्यापक

नेता

*

हर ईमानदार में है मौजूद

वह अकेला

हर निष्ठावान में है मौजूद

वह अकेला

सबके साथ रहने वाला

है अकेला l

*

भीड़ का अभिभावक होना

नहीं है आसान

लहरें बाधाओं की

करनी पड़ती है पार।

पर

भीड़ साथ हो न हो

पूरे ब्रम्हांड का मिलता है

आशीष और दुलार l

■□■□■

© डॉ प्रेरणा उबाळे

17 अगस्त 2024

सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभागाध्यक्षा, मॉडर्न कला, विज्ञान और वाणिज्य महाविद्यालय (स्वायत्त), शिवाजीनगर,  पुणे ०५

संपर्क – 7028525378 / [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #246 ☆ भावना के दोहे – रक्षा बंधन… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे – रक्षा बंधन)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 246 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – रक्षा बंधन☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

रक्षा बंधन प्यार का, प्यारा सा त्योहार।

खुशियां भाई बहिन की, मना रहा संसार।।

भैया घर पर आ रहे, यही बहन की चाह।

धागा राखी का लिए , देख रही है राह।।

 *

लगी द्वार पर टकटकी, देख रही हूँ राह।

राखी का त्योहार है, है बहना को चाह।।

 *

चौमासे की धूम है,  हर दिन है त्यौहार।

संग सखी,  भाई बहन, मिले पिया का प्यार।।

 *

धागा प्यारा लग रहा, है बहन का प्यार।

यह केवल धागा नहीं, रक्षा का त्योहार।।

 *

भाव समाहित हो रहे, मिलता है आशीष।

भाई आदर कर रहा, झुके सदा ही शीष।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #228 ☆ दो मुक्तक… जागरुकता ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है दो मुक्तकजागरुकता आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 228 ☆

☆ दो मुक्तक जागरुकता ☆ श्री संतोष नेमा ☆

(संस्कारधानी जबलपुर पर आधारित)

दवाओं   में   लूट   बहुत   है

प्रशासन   की  छूट  बहुत  है

जनप्रतिनिधि जाग कर सोते

नेताओं   में   फूट   बहुत   है

*

शहर  के लिए एक हो जाओ

करो  विकास  नेक हो जाओ

जबलपुर  का मान रखो  सब

जागरूक  प्रत्येक  हो  जाओ

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ भारत देश… ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

(डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी  बेंगलुरु के नोबल कॉलेज में प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं  साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, दो कविता संग्रह, पाँच कहानी संग्रह,  एक उपन्यास (फिर एक नयी सुबह) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आपका उपन्यास “औरत तेरी यही कहानी” शीघ्र प्रकाश्य। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता भारत देश … ।)  

☆ कविता भारत देश… ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

आज फिर लिखने बैठी…

हिन्दोस्तान की गाथा…

तिरंगा नहीं मात्र तीन रंग,

शक्ति है भारत देश की,

स्वाभिमान है देश का,

यह प्रतीक है आज़ादी का,

बड़ी निराली यह कहानी,

सुनो! लोगों हमारे भारत की कथा,

अरे! यहाँ पर बसते हर धर्म के लोग,

अवतरित हुए राम औ’ कृष्ण भी,

लिखे गये गीता, रामायण औ’ महाभारत,

धार्मिक ग्रंथ जिस पवित्र धरती पर…

ऋषि मुनियों ने जहाँ जन्म लिया,

ऐसी भारत की पावन धरा पर,

हर कोई अपना न कोई पराया,

फिर भी रक्षा करता हर किसी की,

उत्तर में हिमालय खड़ा,

पूरब में बंगाल की खाड़ी………….

पश्चिम में अरब महासागर…..

तो दक्खन में खड़ा हिन्द महासागर,

भारत के लोगों की शान,

न आँच आने देंगे इस पर,

यहाँ बसते हर संस्कृति के लोग,

सभ्यता लोगों की शान कहलाई,

विविधता में एकता लेकर आई,

उद्योग में भी सबसे आगे,,

विश्व में सर्वप्रथम कहलाई,          

तकनीकी में भी सर्वप्रथम,

 

अरे !!! शून्य दिया भारत ने,

आँखों में समायी मूरत माँ भारती की,

अनेक रंगों से रंगी माँ भारती,

हाथों में हरे रंग की चूडिया शोभती,

कृषि की जान हुई माँ भारती,

हर तरफ़ छाई हरियाली,

संपूर्ण विश्व में एक अलग पहचान,

आज़ाद हवा में सांसे ले रही,

डर ने किसी को नहीं छुआ,

संकीर्ण विचारों से परे…

कभी स्वयं को न खोनेवाली,

सबकी ताकत बननेवाली,

आज़ादी रुपी स्वर्ग में…

हँसते हुए विचरण करनेवाली,

उसकी रक्षा के लिए तैनात वीर…

नहीं है हाथों में चूड़ियाँ,

नतमस्तक है भारत के शहीद…

जिन्होंने अपनी जान देकर…

भारतीयों को बचाया है…

ये मात्र वीर नहीं बल्कि!!!

शेर की दहाड़ दुश्मन को डराने,

नहीं आँसू बहायेगा भारतीय,

नहीं दुश्मनी करना इनसे,

खत्म करेंगे समूल,

इल्म तक होने नहीं देंगे,

हमारा प्यारा भारत देश,

माँ भारती की ललकार,

भारत माता की जय… जय हिन्द,

वंदे…मातरम्‌ … वंदे… मातरम्‌ ।

© डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

संपर्क: प्राध्यापिका, लेखिका व कवयित्री, हिन्दी विभाग, नोबल कॉलेज, जेपी नगर, बेंगलूरू।

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – कविता ☆ प्राणान्तक पुकार !! ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ कविता ☆ प्राणान्तक पुकार !! ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

पाषाणी प्रतिमा से

धर्मग्रन्थ के पन्नों से

बाहर निकल आओ

माँ

महिषासुरमर्दिनी

सकल आयुध साथ लेकर

*

हाहाकार कर रही हैं

दिशाएं

ठठा रहा है रक्तबीज

फाँसी का फंदा, बंदूक की गोली

काल कोठरी

उसमें  खौफ़ पैदा नहीं करती

*

वह जानता है

उसका जिस्म मरेगा

वो नहीं

*

उसके कुत्सित विचारों के

रक्तबिन्दु

हर दिशा में हो रहे हैं

साकार

*

कहां हैं योगिनियां

कहाँ हो माँ दुर्गा

प्रतीक्षा का अंत करो

क्या तुम्हें सुनाई

नहीं देती

प्राणान्तक पुकार !!

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – दशरथ मांझी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  दशरथ मांझी ? ?

वे खड़े करते रहे

मेरे इर्द-गिर्द

समस्याओं के पहाड़

धीरे-धीरे….,

मेरे भीतर

पनपता गया

एक ‘दशरथ मांझी’

धीरे-धीरे…!

© संजय भारद्वाज  

रात्रि 8:17 बजे, 7 अप्रैल 2023

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्रवण मास साधना में जपमाला, रुद्राष्टकम्, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना करना है 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ स्वतंत्र नहीं, स्वच्छंद हो गये… ☆ डॉ सुमन शर्मा ☆

डॉ. सुमन शर्मा 

(ई-अभिव्यक्ति मे सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवं शिक्षाविद डॉ सुमन शर्मा जी का हार्दिक स्वागत। आपने “यशपाल साहित्य में नारी चित्रण” विषय पर पी एच डी। की है। पाँच पुस्तकें (सैलाब (कविता संग्रह), मन की पाती (कविता संग्रह), रहोगी तुम वही (कहानी संग्रह), आहटें (कविता संग्रह) एवं यशपाल के उपन्यासों में नारी के विविध रूप) प्रकाशित। इसके अतिरिक्त पत्र पत्रिकाओं में विविध विषयों पर आलेख, शोध पत्र, कविताएँ प्रकाशित, आकाशवाणी से अनेक वार्तालाप, कविताएँ प्रसारित। अखिल भारतीय कवयित्री सम्मेलन तथा पूर्वोत्तर साहित्य अकादमी द्वारा सम्मानित। संप्रति – सेवानिवृत्त प्राध्यापिका (हिन्दी), श्रीमती वी पी कापडिया महिला आर्ट्स कॉलेज, भावनगर)। आज प्रस्तुत है 78वें स्वतन्त्रता दिवस पर आपकी भावप्रवण कविता स्वतंत्र नहीं, स्वच्छंद हो गये।)

☆ स्वतंत्र नहीं, स्वच्छंद हो गये… ☆ डॉ सुमन शर्मा ☆

(78 वाँ स्वतंत्रता दिवस 🇮🇳)

कैसे करें गर्व देश पर,

हो कैसे स्वतंत्रता दिवस का अभिमान?

हो रहा जब अपने ही देश में,

डॉक्टर बेटियों का अपमान!

*

नारा देते बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ,

आत्म निर्भर उनको बनाओ।

पढ़ लिख डाक्टर बन जाती,

क्या मिल पाता उनको आत्म सम्मान?

*

लोगों की जान बचाने ख़ातिर

जन सेवा करती, भूल ऐशो-आराम।

छत्तीस घंटे सेवा देकर भी भक्षकों,

अत्याचारियों से न बचा पाती अपनी जान।

*

हीं सुरक्षित देश की नारी,

करते विचरण स्वतंत्र देश में,

खुलेआम आज भी व्यभिचारी।

स्वतंत्र नहीं, स्वच्छंद हो गये,

भूल गए हम नैतिकता सारी।

*

बलिदानों से क्रांतिकारियों के

मिल गयी स्वतंत्रता, मान सम्मान,

पर आज़ादी का मतलब क्या

ये आज भी क्या हम सके हैं जान?

*

होगा नहीं हमें इस स्वतंत्रता दिवस पर

देश पर गर्व और अभिमान,

जब तक नहीं रूकेगा देश में,

नारी का दमन ओर अपमान!

© डॉ सुमन शर्मा 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 217 ☆ बाल सजल – बचपन में न बचपन पाते… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 217 ☆

बाल सजल – बचपन में न बचपन पाते… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

बोझ पढ़ाई से घबराते।

बच्चे लाइब्रेरी कब आते।।

शेष समय मोबाइल खाता,

टीवी देख देख हर्षाते।।

 *

भोजन रुचि से कब हैं खाते।

पिज्जा , बर्गर  खूब सुहाते।।

 *

भाता है क्रिकेट गेम अब,

चौका , छक्का दे मुस्काते।।

 *

पानी की कीमत क्या जानें,

नल खोलें फिर खूब नहाते।।

 *

दादी, नानी दूर हो गईं,

किस्से कथा कहाँ अब भाते।।

 *

गई नमस्ते , बाय हाय है,

अब न गलतियों पर शर्माते।।

 *

चक्र’ देख बच्चों की दुनिया ,

बचपन में न बचपन पाते।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #243 – कविता – ☆ जहर भी अब शुध्द मिलता है कहाँ… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता जहर भी अब शुध्द मिलता है कहाँ” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #243 ☆

☆ जहर भी अब शुध्द मिलता है कहाँ… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

जहर भी अब मोल महँगे, शुद्ध मिलता है कहाँ

जरूरी जो वस्तुएं, उनकी करें हम बात क्या।

*

माह सावन और भादो में, तरसते रह गए

बाद मौसम के, बरसते मेह की औकात क्या।

*

तुम जहाँ हो, पूर्व दो दिन और कोई था वहाँ

कल कहीं फिर और, ऐसा अल्पकालिक साथ क्या।

*

चाह मन की तृप्त, तृष्णायें न जब बाकी रहे

सहज जीवन की सरलता में, भला शह-मात क्या।

*

छोड़कर परिवार घर को, वेश साधु का धरा

चिलम बीड़ी न छुटी, यह भी हुआ परित्याग क्या।

*

अब न बिकते बोल मीठे, इस सजे बाजार में

एक रँग में हैं रँगे सब, क्या ही कोयल काग क्या।

*

अनिद्रा से ग्रसित मन, जो रातभर विचरण करे

पूछना उससे कभी, सत्यार्थ में अवसाद क्या।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 67 ☆ गाँव में शहर… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “गाँव में शहर…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 67 ☆ गाँव में शहर… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

कच्चे से पक्के

घर हो गये मकान

गाँवों में घुस गया शहर।

*

चौपालें ठंडी

आँगन गुमसुम

छप्परों ने पाले

छतों के भरम

*

सीढ़ियाँ उतरते

हैं सहमें दालान

खिड़की में खुल गया शहर।

*

पगडंडी पूछती

सड़क का पता

खेतों की मेड़ें

हुईं लापता

*

सूरज के पाखी

भूल गए उड़ान

आलस बन चुभ गया शहर।

*

मेल मुलाक़ातें

खुरदरे ख़याल

चाय पान के टपरे

नित नये सवाल

*

पीढ़ियाँ जड़ों से

बस खोखली ज़ुबान

साँसों में घुल गया शहर।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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