हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 33 ☆ ऐसी अनुभूति कुछ सजल में है ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण कविता ऐसी अनुभूति कुछ सजल में है । 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 33 ☆

☆ ऐसी अनुभूति कुछ सजल में है ☆

जाने क्या हो जाय पल में है

जिन्दगी का पता कल में है

 

चलने की ताकत तो पैरों  में है,

फिसलन तो होती दल दल में है

 

चलते ही जाना तो जीवन है

पावनता सरिता के जल में है

 

क्या होगा कल, ये पहेली है

मजा इस पहेली के हल में है

 

हो गुलाब काँटो की  सेज पर

ऐसी अनुभूति कुछ सजल में है.

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 41 ☆ नदी ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “नदी ”।  यह कविता आपकी पुस्तक एक शमां हरदम जलती है  से उद्धृत है। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 41 ☆

☆ नदी  ☆

कभी नदी को देखा है तुमने

अपने रास्ते खुद खोजते हुए?

 

इस बार जब गुजरो उसके करीब से

तो ज़रा ध्यान से देखना

उसके पागलपन को

जो उसे रुकने नहीं देता

और वो पत्थरों को काटती,

पहाड़ों को भेदती,

जंगलों को लांघती,

बढती ही जाती है…

 

यदि नदी

किसी सहारे या साथ को खोजती रहे

तो कहाँ चल पाएगी वो?

 

सुनो,

कोई साथ दे दे

तो उसकी ऊँगली ज़रूर पकड़ना,

पर कभी अपना वजूद मत भूल जाना

और बढती रहना

नदी सी

सिर्फ अपनी रूह के भरोसे पर!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिव्यक्ति # 21 ☆ कविता – मूर्ति उवाच ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा।  आज प्रस्तुत है  एक कविता  “मूर्ति उवाच ”।  अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दीजिये और पसंद आये तो मित्रों से शेयर भी कीजियेगा । अच्छा लगेगा ।)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 21

☆ मूर्ति उवाच ☆

मुझे

कैसे भी कर लो तैयार

ईंट, गारा, प्लास्टर ऑफ पेरिस

या संगमरमर

कीमती पत्थर

या किसी कीमती

धातु को तराशकर

फिर

रख दो किसी चौराहे पर

दर्शनीय पर्यटन स्थल पर

या

विद्या के मंदिर पर

अच्छी तरह सजाकर।

 

मैं न तो  हूँ ईश्वर

न ही नश्वर*

और

न ही कोई आत्मा अमर

किन्तु,

मैं रहूँगा तो  मात्र

मूर्ति ही

निर्जीव-निष्प्राण।

 

इतिहास भी नहीं है अमिट

वास्तव में

इतिहास कुछ होता ही नहीं है

जो इतिहास है

वो इतिहास था

ये युग है

वो युग था

जरूरी नहीं कि

इतिहास

सबको पसंद आएगा

तुममें से कोई आयेगा

और

मेरा इतिहास बदल जाएगा।

 

मेरा अस्तित्व

इतिहास से जुड़ा है

और

जब भी लोकतन्त्र

भीड़तंत्र में खो जाएगा

इतिहास बदल जाएगा

फिर

तुममें से कोई  आएगा

और

मेरा अस्तित्व बदल जाएगा

इतिहास के अंधकार में डूब जाएगा।

 

फिर

चाहो तो

कर सकते हो पुष्प अर्पण

या

कर सकते हो पुनः तर्पण।

 

 * विचारधारा (नश्वर)

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ सत्य ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ सत्य 

इसका सत्य

उसका सत्य,

मेरा सत्य

तेरा सत्य,

क्या सत्य सापेक्ष होता है?

अपनी सुविधा

अपनी परिभाषा,

अपनी समझ

अपना प्रमाण,

दृष्टि सापेक्ष होती है,

साधो! सत्य निरपेक्ष होता है!

©  संजय भारद्वाज

रात्रि 12:27 बजे, 16.6.19

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।#घर में रहें। सुरक्षित रहें।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 51 – कविता – मिले न  मुझको मेरे राम ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी  एक अप्रतिम अध्यात्म पर आधारित विरह गीत “मिले न  मुझको मेरे राम।   कविता की प्रथम पंक्ति ही कविता का सार है और शेष है  विरह एवं प्रतीक्षा के भाव।  इस सर्वोत्कृष्ट  रचना के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 51 ☆

☆ कविता  – मिले न  मुझको मेरे राम

 

हाथों की लकीरों पर लिखा हुआ उनका नाम।

ना जाने किस जगह मिलेंगे मुझको मेरे राम।

 

वन उपवन  राह निहारी उनका आठो याम

फिरते फिरते नैना  हारी  मिले न मुझको मेरे राम।

 

पंछी घोसला बना लिए चुन चुन तिनका सारा।

कैसे बनाऊं आशियाना मिले न  मुझको मेरे राम।

 

व्याकुल हिरनी सी भटकूं करती रही उनका इंतजार।

ढूंढ – ढूंढ ताल तलैया दिखे न मुझको मेरे राम।

 

सांझ ढले बिरहा की मारी दिनका व्याकुल मन।

अंतस मन लिए शांत बैठी नैनों में समाए राम।

 

हाथों के लकीरों पर लिखा हुआ उनका नाम।

ना जाने किस जगह मिलेंगे मुझको मेरे राम।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ सिंफनी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ सिंफनी 

उठना चाहता है

लहर की तरह,

उठ पाता है

बुलबुले की तरह,

समय, प्रयत्न

और भाग्य की सिंफनी

सफलता तय करती हैं,

स्वप्न और सामर्थ्य

के बीच की दूरी

उफ़ कितनी खीझ

उत्पन्न करती है!

 

©  संजय भारद्वाज

( मंगलवार, 7 जून 2016, प्रातः 6:51)

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।#घर में रहें। सुरक्षित रहें।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

writersanjay@gmail.com

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 6 – मुंबई के ये डिब्बे वाले  … ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है उनका अभिनव गीत  “मुंबई के ये डिब्बे वाले  …”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ #6 – ।। अभिनव गीत ।।

☆ मुंबई के ये डिब्बे वाले  …. ☆

 

आधी बस्ती

जिनके हवाले

मुम्बई के ये

डिब्बे वाले

 

लेकर के भूख

भरी कश्तियाँ

ढोते रहते

अनंत तृप्तियाँ

 

अपनी आजानु

बाहुओं में ले

धौंडु -पांडुरंग

के निवाले

 

बिना चूक डिब्बा

जिस का उसको

समय नहीं इतना

कि पूछ   सको

 

औाखों की सीमा

में जो कुछ है-

पहुँचेगा, वाशी

या रिवाले

 

कोई बोनस या

बख्शीस नहीं

सिर्फ मजूरी

कोई फीस नहीं

 

बस सफेद टोपी

कुर्ता कमीज

पाजामे में

चलें उजाले

 

अनुशासित बिना

किसी बंधन के

चर्चित यह दूत

हैं प्रबंधन के

 

ये खुद के सच्चे

उदाहरण

सेवा की ध्वजा

हैं सम्हाले

 

आधी बस्ती

जिनके हवाले

मुम्बई के ये

डिब्बे वाले

 

© राघवेन्द्र तिवारी

09-06-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #1 ☆ पितृ दिवस विशेष – बाबा! मैं तुम्हें  न भूल पाऊंगा ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है।  सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग  स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आखिर मैं भी तो वही कर रहा हूँ। आज से हम प्रत्येक सोमवार आपका साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी प्रारम्भ कर रहे हैं। आज पितृ दिवस के अवसर पर प्रस्तुत है  “बाबा! मैं तुम्हें  न भूल पाऊंगा”। ) 

☆ पितृ दिवस विशेष – बाबा! मैं तुम्हें  न भूल पाऊंगा ☆ 

ऊंगली पकड़कर मुझे चलना सिखाया

जब भी गिरा तुमने उठाया

दौड़ने का साहस बढ़ाया

जब थक गया तो

अपने कांधे पर बिठाया

वो बचपन के दिन

मैं कैसे भूल पाऊंगा?

 

याद है मुझको स्कूल में

मेरा पहला दिन

रोते रहना, बिलखना तुम बिन

गिनती सिखाई

कांच की गोलियां गिन गिन

टाॅफियां खिलाई मां से छिन छिन

तुम्हारे सबक से ही तों

हमेशा जीवन में अव्वल आऊंगा।

 

पढ़ाई में मेरी सब कुछ लगा दिया

जो भी था गांठ में वो गंवा दिया

खुद भूखे  रहकर रोटी मुझे खिला दिया

कुछ बनने की जिद

मुझमें जगा दिया

इस जिद से ही तों

मैं ऊंचाइयों पर चढ़ पाऊंगा।

 

आशीर्वाद से तुम्हारे

जीवन में बहार है

छोटा सा सुखी संसार है

हर कदम पर जीत है

ना कोई हार हैं

बस आज तुम नहीं हो

ये दुःख अपार है

तुम्हें खोने का ग़म

आंखों में कैसे छिपाऊंगा?

 

भारी व्यस्तताओं मे भी अवकाश लिया है

तुम्हारी बरसी पर तुम्हें याद किया है

पूजा कर एक प्रण लिया है

तुमसा बनने का बच्चों को वादा किया है

सोच में डूबा हूं

क्या मै तुमसा बन पाऊंगा?

बाबा! मैं तुम्हें न भूल पाऊंगा।

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़)

मो  9425592588

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – प्रेम के सन्दर्भ में दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं।

आज 21 जून परम आदरणीय गुरुवर डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ जी के जीवन का अविस्मरणीय दिवस है। उनकी सुपुत्री डॉ भावना शुक्ल जी  एवं डॉ हर्ष तिवारी जी स्मरण  करते हैं  कि –  यदि आज आदरणीय माता जी स्व डॉ गायत्री तिवारी जी साथ होती तो हम सपरिवार उनके विवाह की 55वीं सालगिरह मनाते, योग दिवस मनाते।

? हम सब की और से पितृ दिवस पर उन्हें सादर चरण स्पर्श एवं इस अविस्मरणीय दिवस हेतु हार्दिक शुभकामनायें ?

 

 ✍  लेखनी सुमित्र की – प्रेम के सन्दर्भ में दोहे  ✍

 

नाम रूप क्या प्रेम का, उत्तर किसके पास।

प्रेम नहीं है और कुछ, केवल है अहसास।।

 

निराकार की साधना, कठिन योग पर्याय।

योग शून्य का शून्य में, शून्य प्रेम – संकाय ।।

 

गोप्य  प्रेम बहुमूल्य है, जैसे परम विराग ।

प्रकट प्रेम की व्यंजना, जैसे ठंडी आग ।।

 

आयु वेश की परिधि में, बंधे न बांधे प्यार ।

सागर रहता संयमित, रुके न रोके ज्वार ।।

 

सृष्टि समाहित प्रेम में, प्रेम अलौकिक गीत।

प्रेमिलता अनुभव करें, हृदयों का संगीत ।।

 

गोपनीय है प्रेम यदि, जाने केवल व्यक्ति ।

सहज प्रेम की सदा ही, होती है अभिव्यक्ति ।।

 

अंधा कहते प्रेम को, वही नयन विहीन।

दृष्टि दिव्य  हैं प्रेम की, करती ताप विलीन।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

9300121702

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 13 ☆ मुक्तिका ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपके मुहावरेदार दोहे. 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 13 ☆ 

☆ मुक्तिका☆ 

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

धीरे-धीरे समय सूत को, कात रहा है बुनकर दिनकर

साँझ सुंदरी राह हेरती कब लाएगा धोती बुनकर

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

मैया रजनी की कैयां में, चंदा खेले हुमस-किलककर

तारे साथी धमाचौकड़ी मच रहे हैं हुलस-पुलककर

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

बहिन चाँदनी सुने कहानी, धरती दादी कहे लीन हो

पता नहीं कब भोर हो गयी?, टेरे मौसी उषा लपककर

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

बहकी-महकी मंद पवन सँग, क्लो मोगरे की श्वेतभित

गौरैया की चहचह सुनकर, गुटरूँगूँ कर रहा कबूतर

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

सदा सुहागन रहो असीसे, बरगद बब्बा करतल ध्वनि कर

छोड़न कल पर काम आज का, वरो सफलता जग उठ बढ़ कर

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com

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