सुश्री नूतन गुप्ता
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पेंसिल की नोक
(संयोग से इसी जमीन पर इसी दौरान एक और कविता की रचना श्री विवेक चतुर्वेदी जी द्वारा “पेंसिल की तरह बरती गई घरेलू स्त्रियां“ के शीर्षक से रची गई। मुझे आज ये दोनों कवितायें जिनकी अपनी अलग पहचान है, आपसे साझा करने में अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है।
प्रस्तुत है सुश्री नूतन गुप्ता जी की भावप्रवण कविता ।)
छिलते छिलते घायल हो गई ये पेंसिल की नोक
लिखने के अब क़ाबिल हो गई ये पेंसिल की नोक।
मीठा लिखते रहना इस पेंसिल की आदत था
आज अचानक क़ातिल हो गई ये पेंसिल की नोक
हरदम इसके लफ़्ज़ों से बस लहू टपकता था
पायल जैसी पागल हो गई ये पेंसिल की नोक।
कभी मनाती फिरती थी नाराज़ समंदर को
अब कितनों का साहिल हो गई ये पेंसिल की नोक
नूतन’ क्या मालूम नहीं था फटे मुक़द्दर की है तू
खुशियों में क्यूँ गाफ़िल हो गई ये पेंसिल की नोक।
© नूतन गुप्ता