हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 185 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – विदा वेला ! ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “विदा वेला !। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा # 184 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – विदा वेला ! ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

आ गई लो विदा वेला, नयन गीले अश्रु छाये

और प्रायः यह घड़ी आती सदा ही बिन बुलाये ।।१।।

*

आगमन औ’ गमन कुछ भी जब न अपने हाथ में हो

यही कम सौभाग्य क्या हम रह सके कुछ साथ सँग जो ।।२।।

*

जा रहे हो दूर हो मजबूर तो मधुरिम विदाई

पंथ हो, आनंदमय, उत्कर्षमय, कल्याणदायी ।।३।।

*

साथ रहते यदि हुई हों भूल तो सब भूल जाना

कामना है याद रखना, प्रीति का नाता निभाना ।।४।।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ दोहे – सुरक्षा – संदेश के ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ दोहे – सुरक्षा-संदेश के ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

बढ़ती जब जनसंख्या, बढ़ता है तब भार।

हो जाती हर योजना, तब निश्चित बेकार।।

*

बढ़ता है जन भार जब, दुख पाता परिवार।

सभी तरह से देश में, फैले तब अँधियार।।

*

दोपहिया पर बैठ जब, एक साथ परिवार।

कहे सुरक्षा आ रहा, दुर्घटना का वार।।

*

ध्यान रखें जो वे रहें, सड़कों पर अनुकूल।

बिना कायदे जो रहें, चुभते उनको शूल।।

*

सड़कों पर खिलवाड़ तो, लेती जीवन लील।

 बहुत कीमती ज़िन्दगी, करो ज़रा तुम फील।।

*

लापरवाही त्याग दो, वरना तय है काल।

होगा तुमको हर कदम, वरना “शरद” मलाल।।

*

नियम सदा हित को रचें, उन्हें मान नहिं व्यर्थ।

डरो रोड कानून से, समझो उसका अर्थ।।

*

मन में धरकर जोश तुम, गँवा न देना होश।

वरना विधि या मौत तो, भर लेंगी आगोश।।

*

होगा जब सीमित यहाँ, हर इक का परिवार।

तभी प्रखर प्रतिकूलता, का होगा संहार।।

*

दोपहिया की नहिं अधिक, होती है औकात।

दो ही बैठेंगे अगर, बचे रहोगे तात।।

*

अर्थहीन गति-मति तजो, जाये वरना जान ।

 आंँसू की सौगात हो, बढ़े पीर का मान।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ कविता ☆ नदी ☆ डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक ☆

डॉ जसप्रीत कौर फ़लक

☆ कविता ☆ नदी ☆ डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक 

मैं नदी हूँ

कल-कल बहता जल ही मेरा परिचय है

मैं बने बनाये हुये

रास्तों पर नहीं चलती

 

मुझे आता है राह बनाने का हुनर

मेरा टेढ़ा मेढ़ा और लम्बा है सफ़र

 

मैं नदी हूँ

मेरा स्वभाव है ख़ामोश रहना

निरंतर बहना…निरंतर चलना

मैं राह के पत्थरों से,चट्टानों से

टकरा के गुज़र जाऊँगी

सूखी धरती मुस्कुरायेगी

मैं जिधर-जिधर जाऊँगी

 

मेरे अपने हैं उसूल

मैंने महकायीं फ़स्लें ,खिलाये हैं फूल

मुझे रोकने की ज़िद न करो

मुझे मोड़ने की ज़िद न करो

 

मेरी आज़ाद फ़िक्र ने

पाबंदियाँ क़ुबूल न कीं

जो बरखा रुतों ने नेमतें बख़्शीं

वो मैंने कभी फ़ुज़ूल न कीं

 

मैं हर पेड़ से कह रही हूँ

मैं  निस्वार्थ  बह  रही  हूँ

मुझमें प्रवाहित हैं मुहब्बत के पुष्प,आशाओं के दीप

मेरा अपना है रंग, मेरी अपनी है रीत

 

मुझमें सम्मिलित होती जा रही हैं

बहुत सी दिशायें,

मुझसे खेलती हैं

 बहुत सी हवायें

मुझमें डूबती जा रही है

डूबते सूर्य की लाली

मुझे छू रही है झुक कर

नर्म पेड़ की डाली

 

मैं तृप्त करती जा रही हूँ

अहसास की ज़मीं

मेरी मंज़िल है दूर कहीं

 

मैं चलते चलते समा जाऊँगी

एक दिन

प्रेम के महासागर में

जीवन प्रवाह की तरह है इसके रास्ते में भी आती  हैं दुखों की चट्टानें, समस्यायों के पर्वत, अगर हमारे धैर्य की धार तेज़ हो तो यह  टूट जाती हैं चट्टानें,धूल हो जाते समस्यायों के पर्वत…बस लक्ष्य बड़ा हो, दिशा सही हो…जुनूँ हो तो नदी पहुँच ही जाती है – महासागर तक…।

© डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक

संपर्क – मकान न.-11 सैक्टर 1-A गुरू ग्यान विहार, डुगरी, लुधियाना, पंजाब – 141003 फोन नं – 9646863733 ई मेल – [email protected]

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #240 ☆ भावना के दोहे – माँ का आँचल ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे – माँ का आँचल )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 240 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – माँ का आँचल ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

माँ का आँचल साथ है, मिलती शीतल छाँव।

बच्चों की मुस्कान माँ, चरणों में है ठाँव।।

*

प्यार माँ का मिले हमें, माँ ममता की छाँव ।

आँचल माँ का ओढ़कर, साथ घूमे हम गाँव।।

*

माँ का आँचल हैं नहीं, याद करें दिन रात।

संस्कार अच्छे दिए, यही करें हम बात।।

*

वो दिन हम भूले नहीं, छोड़ा माँ ने साथ।

लहर- लहर आँचल उड़ा, उठता सिर से  हाथ।।

*

जब जब देखा स्वप्न में, प्यार  भरी मुस्कान।

पाकर अपने साथ में, आ जाती है जान।।😢

*

आँचल की करें कल्पना, है वो बड़ा विशाल।

सुख – दुख सब बसते यहाँ, बना यही है ढाल।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 13 – नवगीत – माँ नर्मदा वंदन… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत –माँ नर्मदा वंदन

? रचना संसार # 12 – नवगीत – माँ नर्मदा वंदन…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

ब्रह्मचारिणी नमामि नर्मदा सँवार दो।

तापहारिणी प्रणाम माँ हमें निखार दो।।

बोध रूपिणी तपोबला सुपावनी कहें।

पापमोचनी सुपूजिता सुलोचनी कहें।।

बुद्धिवर्धनी हितेषिणी विभूति आस भी।

चन्द्रशेखरी कृपालु पैथिनी उजास भी।।

पुण्यदायिनी सुकर्ण धारके उबार दो।

तापहारिणी प्रणाम माँ हमें निखार दो

 *

साधना कुशाग्र दृष्टि हो प्रतीति स्वामिनी।

पद्मलोचनी विभूति आप तेजदामिनी।।

भक्ति भाव दो पुनीत मातु दैत्य भेदिनी।

हो पिकासभाशिनी सुमातु तीर्थ मेदिनी।।

वल्लभी शुभामला दयामयी विचार दो।

तापहारिणी प्रणाम माँ हमें निखार दो।।

 *

वारि धारिणी विवेक आप शंभु भावनी।

लोकतारिणी सुखासनी नमामि पावनी।।

सिद्धिधारिणी प्रतीति आप शक्ति धारिणी।

हे षडंगयोगिनी सुधर्म की प्रसारिणी।।

माँ फणीन्द्रहारभूषिणी समष्टि तार दो।

तापहारिणी प्रणाम माँ हमें निखार दो।।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected][email protected]

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #222 ☆ एक पूर्णिका – न करते मुहब्बत तो कुछ गम नहीं… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक पूर्णिका – न करते मुहब्बत तो कुछ गम नहीं आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 222 ☆

☆ एक पूर्णिका – न करते मुहब्बत तो कुछ गम नहीं ☆ श्री संतोष नेमा ☆

हम  मिलते रहे जिंदगी  की तरह

वो हमसे मिले अजनबी की तरह

*

प्यार में संजीदा वो हो नहीं सकते

हम  निभाते  रहे  बंदगी  की तरह

*

न करते मुहब्बत तो कुछ गम नहीं

पेश  आते  मगर  आदमी की तरह

*

उन्हें  दोस्ती  कबूल न थी  ना सही

पर मिला न करें  दुश्मनी  की तरह

*

प्यार क्या है समझ सके न वो कभी

अदा लगती रही  मसखरी की तरह

*

हम समझते रहे उनको  सबसे जुदा

वो निकले मगर हर  किसी की तरह

*

हमें  मंजूर है  हम अजनबी ही सही

संतोष मिलते रहो मजहबी की तरह

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय ११ — विश्वरूपदर्शनयोग — (श्लोक १ ते ११) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय ११ — विश्वरूपदर्शनयोग — (श्लोक १ ते ११) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

संस्कृत श्लोक… 

अर्जुन उवाच

मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसञ्ज्ञितम्‌ ।

यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम ॥ १॥

कथित अर्जुन 

कृपा करुनीया मजवरती कथिले गुह्य अध्यात्माचे

आकलन होउनिया तयाचे ज्ञान जाहले अज्ञानाचे ॥१॥

*

भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया ।

त्वतः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम्‌ ॥२॥

*

विस्ताराने ज्ञान ऐकले उत्पत्तीचे प्रलयाचे

कमलनेत्रा तसेच तुमच्या अविनाशी महिमेचे ॥२॥

*

एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर ।

द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम ॥३॥

*

वर्णन केले अपुले आपण तसेच तुम्ही हे परमेश्वर

रूप पाहण्या दिव्य आपुले नेत्र जाहले माझे आतुर ॥३॥

*

मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो ।

योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम्‌ ॥४॥

*

प्रभो असेन जर मी पात्र तुमच्या दिव्य दर्शनासी

दावावे मज योगेश्वरा तुमच्या अविनाशी स्वरुपासी॥४॥

श्रीभगवानुवाच

पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः ।

नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ॥५॥

कथित श्रीभगवान 

विविध वर्ण आकाराचे  शतसहस्र रूपे माझीअर्जुना

सिद्ध होई तू आता माझ्या अलौकीक या रूप दर्शना ॥५॥

*

पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा ।

बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत ॥६॥

*

माझ्याठायी दर्शन घेई आदित्यांचे वसूंचे तथा रुद्रांचे

अवलोकन होईल तुजला अश्विनीकुमारांचे मरुद्गणांचे

पूर्वी न देखिल्या अनेक देवतांच्या विस्मयकारी रूपांचे

भरतवंशजा इथेच तुजला दर्शन होइल त्या सकलांचे ॥६॥

*

इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्‌ ।

मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टमिच्छसि ॥७॥

*

दृष्टीगोचर एकठायी स्थित चराचर सारे जगत

देही माझ्या पहायचे जे अन्य त्यासी पाही पार्थ  ॥७॥

*

न तु मां शक्यसे द्रष्टमनेनैव स्वचक्षुषा ।

दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्‌ ॥८॥

*

दर्शन घेण्या या सर्वांचे चर्मचक्षु तव ना कामाचे

चक्षु अलौकिक प्रदान तुजला मम योगेश्वरी शक्तीचे ॥८॥

संजय उवाच

एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः ।

दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम्‌ ॥९॥

कथित संजय 

कथुनी ऐसे रूप दाविले पापनाशक महायोगेश्वर भगवंताने

परम  दिव्यस्वरूपी ऐश्वर्य-रूप प्रकटता पाहिले त्या पार्थाने ॥९॥

*

अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम्‌ ।

अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम्‌ ॥१०॥

*

दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम्‌ ।

सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम्‌ ॥११॥

*

बहुविधानने अनेक नयन दिव्याभूषण युक्त

दिव्यायुधे धारियलेली काया दिव्य गंध युक्त

मुखे व्यापिती सर्व दिशांना असीम विस्मय युक्त

विराट दर्शन परमेशाचे अवलोकित अर्जुन भक्त ॥१०, ११॥

 

अनुवादक : © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – शोषण ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – शोषण ? ?

मीलों यात्रा करती हैं,

फूल-फूल भटकती हैं,

बूँद-बूँद संचित करती हैं,

परिश्रम की पराकाष्ठा से

छत्ते का निर्माण करती हैं,

मधुमक्खियाँ…,

 

मनुष्य, तोड़कर

निकाल लाता है छत्ता,

चट कर जाता है शहद,

देखती रह जाती हैं

हताश, निराश मधुमक्खियाँ..,

 

आदिकाल से शोषित हैं

मधुमक्खियाँ,

पर अफ़सोस,

शोषण के इतिहास में

मधुमक्खी का उल्लेख नहीं मिलता..!

© संजय भारद्वाज  

प्रात: 7:51 बजे, 10 जुलाई 2024

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना ज्येष्ठ पूर्णिमा तदनुसार 21 जून से आरम्भ होकर गुरु पूर्णिमा तदनुसार 21 जुलाई तक चलेगी 🕉️

🕉️ इस साधना में  – 💥ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। 💥 मंत्र का जप करना है। साधना के अंतिम सप्ताह में गुरुमंत्र भी जोड़ेंगे 🕉️

💥 ध्यानसाधना एवं आत्म-परिष्कार साधना भी साथ चलेंगी 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #178 – बाल कविता – वो भी क्या दिन थे… ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक बाल कविता – “वो भी क्या दिन थे)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 178 ☆

☆ बाल कविता – वो भी क्या दिन थे ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

सुबह सैर को जाते

नदी में खूब नहाते

 तैरा करते जी भर

थक हार के घर आते।

मोबाइल से हीन थे ।।

वो भी क्या दिन थे ।।

 *

शाम ढले घर आते

दादाजी  संग बतियाते

खेला करते दिन भर

कभी ना हम सुस्ताते ।

कई मित्र अभिन्न थे ।।

वे भी क्या दिन थे ।।

 *

गप्पी भी मारा करते

भूत प्रेत से ना डरते

खेलखेल में सब कोई 

आपस में ही लड़ते।

दोस्त नहीं, जिन थे।।

वो भी क्या दिन थे।।

 *

पेड़ देख कर जाते

आपस में स्पर्धा करते

कलमडाल जैसे ही

खेल कई खेला करते।

मस्ती में ही लीन थे।।

वो भी क्या दिन थे।।

 *

खेतों पर भी जाते थे

नई चीजें खाते थे

ना कोई मोलभाव था

मुफ्त तोड़ लाते थे।

उनके हम पर ऋण थे।।

वह भी क्या दिन थे।।

 *

दिवाली खूब मनाते

नए कपड़े सिलवाते

ईदी भी सबसे लेते

सेवइयां भी खाते।

हम शैतानी के जिन्न थे।।

वो भी क्या दिन थे।।

 *

खेल कई खेला करते

आपस में ही लड़ते

क्षण भर में मिलते

बिल्डिंग पर चढ़ते ।

राग द्वेष से भिन्न  थे।।

वो भी क्या दिन थे।।

चना चबैना लाते

मिल बांट कर खाते

नित नई चीजें पाकर

खुशियां खूब मनाते।

रिश्ते हमारे अभिन्न थे।।

वो भी क्या दिन थे।।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

09-09-20200

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 211 ☆ बाल कविता – कैम्पटी फॉल मसूरी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 211 ☆

बाल कविता – कैम्पटी फॉल मसूरी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

चले सैर को पवन , सारिका

सँग – सँग मम्मी पापा के ।

मन में नूतन लिए उमंगें

हर्षित झूमे मुस्का के ।।

लिए साथ में वस्त्र उन्होंने

टॉवल ली रोएं वाली।

चले कैम्पटी फॉल नहाने

सर्पीली सड़कें काली।।

 *

बैठ कार में चले मसूरी

पर्वत भी खूब सुहाए।

माह सितंबर खिला – खिला – सा

फूलों से पौधे मुस्काए।।

 *

ठंडी पावन वायु बह रही

ऊँचे , पर्वत हैं घाटी।

छोटे – छोटे गाँव पहाड़ी

खेतों में उगती साठी।।

 *

कहीं हैं झरने नदियाँ कल  – कल

झरने का पीया पानी।

ठंडा पानी मीठा – मीठा

मन पर लिखी इक कहानी।।

 *

कैम्पटी फॉल अद्भुत झरना

देख सभी मन हरषाए।

खूब नहाए झरने मिलजुल

तन में सुन्नी – सी चढ़ जाए।।

 *

पानी गिरता चाँदी – चाँदी

ऋतु लगती बड़ी सुहानी।

खुशियाँ लेकर वापस आए

मसूरी – सा न है सानी।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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