हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 81 – रात को आफ़ताब मिल जाये… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – रात को आफ़ताब मिल जाये)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 81 – रात को आफ़ताब मिल जाये… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

काश, तेरा शबाब मिल जाये 

रात को, आफ़ताब मिल जाये

चूम लो, होंठ से जो खत मेरा 

मुझको, तेरा जवाब मिल जाये

 *

गमजदा हो न कोई दुनियाँ में 

है क्या मुमकिन जनाब, मिल जाये

 *

कोई बिरले, नसीब वाले हैं 

जिनको, मन का गुलाब मिल जाये

 *

तिश्नगी का मजा, तभी है जब 

होंठ वाली शराब, मिल जाये

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 154 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है  “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 154 – सजल – एक-एक कर बिछुड़े अपने ☆

 *जीवंत, सरोजिनी, पहचान, अपनत्व, अथाह।

 

सुख-दुख में हँस मुख *रहें,जीना है जीवंत

कर्म सुधा का पान कर, अमर बनें श्रीमंत।।

 **

मन सरोजिनी सा खिले, दिखे रूप लावण्य।

मोहक छवि अंतस बसे, प्रेमालय का पुण्य।।

 *

सतकर्मों से ही बनें ,मानव की पहचान

दुष्कर्मों के भाव से, रावण होता जान।।

 *

जीवन में अपनत्व का, जिंदा रखिए भाव।

प्रियतम के दिल में बसें, डूबे कभी न नाव।।

प्रेम सिंधु में डूब कर, नैया लगती पार।

दुख-अथाह, जीवन-खरा, प्रभु का कर आभार।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 316 ☆ कविता – “एक शब्द चित्र – भोपाल की गैस त्रासदी…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 316 ☆

?  कविता – एक शब्द चित्र भोपाल की गैस त्रासदी…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

कलम

कहती है

खींचो एक शब्द चित्र भोपाल की गैस त्रासदी का.

बुद्धि कहती है छेड़ो एक जिहाद मौत के सौदागरों के खिलाफ.

निर्दोष, अनजान लोगों को काल कवलित हुये जो,

अब दे ही क्या सकते हो ? श्रद्धांजलि के सिवाय.

लौटा सकते हो एक भी जिंदगी मुकदमों से,

मुआवजों से.

प्रगति के नाम पर कैसा षडयंत्र

रो उठता है दिल

विचार विभ्रम

कुंठित कलम अधूरी रचना… 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 216 – कथा क्रम (स्वगत)… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे सदैव हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते थे। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 216 – कथा क्रम (स्वगत)… ✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य) से )

क्रमशः आगे…

ऋषिवर

गालव,

जानते हो

गुरु दक्षिणा देने के

हठाग्रह ने

विस्फोटित किया

ज्वालामुखी

और

उसके लावे में

बह गई

तुम्हारी पवित्रता ।

तार-तार हो गई

संस्कृति

छिन्न-भिन्न हो गई

मर्यादा

दफन हो गया

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते

का पुण्य घोष ।

यानी

नारी को

माता को, बहिन, बेटी को

निर्वस्त्र कर

नीलाम पर चढ़ा दिया

भरे बाजार में।

चार बार ।

क्यों किया

यह हठाग्रह तुमने?

क्या ज्ञात नहीं थीं तुम्हें

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 216 – “लौट कर आया नहीं…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत लौट कर आया नहीं...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 216 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “लौट कर आया नहीं...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

मैं नयनका बोझ था

कैसे तुम्हारा

गिर गया तो कह रहे

आँसू हमारा

 

रोज के सपने तुम्हें

सोने न देते

अगर मुमकिन तो

समय अनुमान लेते

 

साथ में छल अनिश्चय

लेकर चले तो

डिग गया सम्बंध का

निश्चल सहारा

 

लौट कर आया नहीं

था राह में पर

टूटता ही रहा था

परवाह से घर

 

और था मुश्किल

तुम्हारा साथ लेकिन

जान पाया था जिसे

मैं दिशाहारा

 

यदि तुम्हारे प्रेम

का पर्याय होता

तो अभी तक

आँख में मैं बसा होता

 

और सब चेतन जगत

के असंतोषों का

बना होता कहीं

छोटा सा किनारा

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

24-11-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ जीत की मशाल… ☆ डॉ प्रेरणा उबाळे ☆

डॉ प्रेरणा उबाळे

☆ कविता – जीत की मशाल…  ☆  डॉ प्रेरणा उबाळे 

जीत की मशाल हूँ मैं

जीत की मशाल हूँ

*

तप्त ज्वाला जगा दें

अभिशप्त को मार दें

भीगी क्यों तेरी मशाल रे

जीत की मशाल हूँ मैं

*

चमका दो शिखर तरू

काट दे जहर को तू

भीगी क्यों तेरी मशाल रे

जीत की मशाल हूँ मैं

*

मृदंग-सा ताल पकड़

सृजन का आगाज कर

भीगी क्यों तेरी मशाल रे

जीत की मशाल हूँ मैं

*

ठिठकना तू छोड़ दें

लय, गति तेज कर दें

भीगी क्यों तेरी मशाल रे

जीत की मशाल हूँ मैं

*

स्वर्ण कडा पहन तू

बंद मुट्ठी खोल तू

भीगी क्यों तेरी मशाल रे

जीत की मशाल हूँ मैं

*

हाथ उठा आसमान तक

खींच ला सूरज भी अब

भीगी क्यों तेरी मशाल रे

जीत की मशाल हूँ मैं

*

तिलक लगेगा माथे पर

सुनहरी होगी तेरी राह

जला ले पुनः मशाल अब

जीत की मशाल हूँ मैं

जीत की मशाल हूँ l

■□■□■

© डॉ प्रेरणा उबाळे

रचनाकाल  : 24 नवंबर 2024

सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभागाध्यक्षा, मॉडर्न कला, विज्ञान और वाणिज्य महाविद्यालय (स्वायत्त), शिवाजीनगर,  पुणे ०५

संपर्क – 7028525378 / [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 200 ☆ # “मेरा आत्मसम्मान चाहिए…” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता मेरा आत्मसम्मान चाहिए…”।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 200 ☆

☆ # “मेरा आत्मसम्मान चाहिए…” # ☆

इस पल पल बदलती दुनिया में

मुझे आत्म गौरव, मान चाहिए

मुझे जीने के लिए बस

मेरा आत्मसम्मान चाहिए

 

कब तक जिएगा कोई

बैसाखियों के सहारे

वो हर बार ही जीते

हम हर बार ही हारे

चौसठ खानों की बिसात पर

शतरंज तुम्हारी, मोहरे भी तुम्हारे

इस शह और मात की बाजी में

सच्चाई और इमान चाहिए

मुझे जीने के लिए बस

मेरा आत्मसम्मान चाहिए

 

कितने उद्दंड है

बहते हुए धारे

डुबोने बेचैन है

कश्ती को हमारे

कश्ती भले ही जीर्ण हो

हममें जुनून है

पहुंचा ही देंगे

हम कश्ती को किनारे

दरिया के पानी में

बस एक तूफान चाहिए

मुझे जीने के लिए बस

मेरा आत्मसम्मान चाहिए

 

यह कैसा पाखंड है

हम बट रहे खंड खंड है

यह किस गुनाह का

मिल रहा दंड है

वहशी हवाओं में

वेग प्रचंड है

इस प्रलय को रोक सके

ऐसा एक इन्सान चाहिए

मुझे जीने के लिए बस

मेरा आत्मसम्मान चाहिए /

 

कविता

 

” जीवन चक्र  “

 

जीने के लिए हम

क्या क्या नहीं करते हैं

रोज जीते हैं

रोज मरते हैं

दो जून की रोटी के लिए

क्या क्या नहीं करते हैं

चाहे दिन हो या रात

ठंड हो, गर्मी हो

या हो बरसात

किसी भी मौसम में

खुद की परवाह नहीं करते हैं

सुबह घर से निकलते हैं

दौड़ लगाते हैं

भीड़ का हिस्सा

बन जाते हैं

परिश्रम करते हैं

पसीना बहाते हैं

तब –

दो रोटी का

परिवार के लिए

इंतजाम हो पाता है

कुछ पल के लिए

आदमी सो पाता है

रोज अपने परिवार

की जरूरते

जो अनंत हैं

पर जरूरी हैं

उसे पूरा करना

हर शख्स की

मजबूरी है

 

यह ऐसी जंग है

जिसका अलग ही रंग है

इससे हर कोई लड़ता है

एक एक कदम

आगे बढ़ता है

किसी के भाग्य का

सितारा चमकता है

तो वो नया इतिहास

गढ़ता है

और कोई

हर रोज संघर्ष करता है

पर निराश है

बेकारी, भूख , गरीबी

उसके पास है

झूठे वादे

अंधविश्वास ही

उसको रास है

वो जीवित तो है पर

एक जिंदा लाश है

 

जो तूफानों से टकराता है

आंधियों से नहीं घबराता है

वो भवसागर पार

कर जाता है

और

जो डरता है

हिम्मत हारता है

वो टूटकर

बिखर जाता है

जीवन चक्र में

अनजाना सा

मर जाता है

यही जीवन का

 अकाट्य सत्य है/

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – बूंद की कथा… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण कविता बूंद की कथा…।)

☆ कविता – बूंद की कथा… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

********

एक नन्ही सी बूंद जल की,

आशा की किरण लिए मन में,

कितने अरमान संजोये थे,

जब छुपी मेघ के अंचल में,

नन्हे दिल में बड़े प्रेम से,

साहस का अंकुर बोया,

कीर्ति रहे इस जग में,

यह अरमान संजोया,

आखिर वह दिन भी आया,

  स्वजनों से जब किया किनारा,

रोया दिल भीगे नैनों से,

बहने लगी अश्रु की धारा,

यादें धूमिल हो गई,

सामने भविष्य था

आस निराशा के घेरे में,

अनंत का रहस्य था,

वायु के उज्जवल रथ पर,

अश्व जुते जिसमें सपनों के,

पल पल थी वह सोच रही,

क्यों दामन छूटे अपनों के,

सोचा किसी सीप में गिर,

मैं मोती बन जाऊंगी,

किसी हार में लगा कर फिर,

  दुल्हन के गले लग जाऊंगी,

रूप सौंदर्य की वृद्धि करके,

जीवन सफल बनाऊंगी,

प्यार करूंगी हर पल से,

हर पल को सुखद बनाऊंगी,         

  किसी नवेली दुल्हन की,

 मांग में जा छुप जाऊंगी,

कृतार्थ करूंगी अपने को,

मांग का मान बढ़ाऊंगी,

दुखद बिदा की बेला में,

नैनो के आंसू बन जाऊंगी,

स्वजनों की आंखों में भरकर,       

 डोली का मान बढ़ाऊंगी,

या फिर मंदिर में जाकर,

ईश को शीश झुकाऊंगी,

ईश के चरणों में गिरकर,

चरणामृत कहलाऊंगी,

भक्त जनों की अंजलि में जा,

प्रेम की प्यास बुझाऊंगी,

शांति मिले मन को ऐसी,

भक्ति भाव बढ़ाऊंगी,

फिर सोचा कि जब मजदूर,

कार्य से बोझिल थक कर चूर,

अपने घर जब वापस आता,

जल पीने को जी ललचाता,

इतने में गृह लक्ष्मी भी,

जल लुटिया ले बाहर आती,

बूंद सोच में पड़ी कि वह भी,        

 लुटिया के जल में मिल जाती,     

  प्यासे श्रमिक की प्यास बुझा,   

  यह जीवन सफल बना जाती,    

  फिर बदला नन्हा सा दिल,

सुन,पपीहे की पुकार उदास,

गिर जाऊं इसके मुंह में तो,

बुझ जाए इसकी भी प्यास,

क्रूर काल का खेल ये कैसा,

हाय विधाता की माया,

नन्हा सा दिल टूट गया,

स्वप्न न पूरा हो पाया,

कालचक्र फिर जर्जर सा,

मंद गति से चला

रोम रोम भी कांप उठा,

आशंका से दिल दहला,

आस ना पूरी हो पाई,

राज,आ गई कैसी घड़ी,

अंतिम सांसें ले रही,

बूंद कीचड़ में पड़ी,

कली पुष्प ना बन पाई,

निशि की छाया आ गई,

जीवन भी ना मिल पाया,

मृत्यु कहीं से आ गई… 

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #256 – कविता – ☆ नफरतों के बीज बो दिए… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “नफरतों के बीज बो दिए…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #256 ☆

☆ नफरतों के बीज बो दिए… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

थी जरा सी बात इसलिए

नफरतों के बीज बो दिए।।

 

लिया सूर्य से उबाल, चंदा से चतुराई

तारों के बहुमत से, उर्वर कुमति पाई,

धरती ने पोषित कर

पुष्पित पल्लवित किये

नफरतों के बीज बो दिए।

 

खरपतवारों ने, दायें-बायें साथ दिया

ईर्ष्यालु वायु के, झोंकों का नशा नया,

मदमाते लहराते

गर्वीले घूँट पिये

नफरतों के बीज बो दिए।

 

बीज सबल स्वस्थ उन्हें,अलग-अलग बाँट दिया

प्राकृत फसलों ने, आपस में प्रतिघात किया,

धरती की शुष्क दरारों को

अब कौन सिये

नफरतों के बीज बो दिए।।

 

खेतों में नई-नई, मेढ़ों की भीड़ बढ़ी

उपजाऊ माटी पर, अलगावी पीर चढ़ी,

संकट में नई पौध

कैसे निर्द्वन्द्व जिये

नफरतों के बीज बो दिए।।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 80 ☆ अकेलापन… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “अकेलापन…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 80 ☆ अकेलापन… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

मौन ही

करते रहे हैं बात

मेरे अकेलेपन में।

 

दूर ढलती साँझ

मादल के स्वरों पर

सूर्य रक्तिम सा

खड़ा परछाइयों में

घाटियों में उतर

आया है अँधेरा

दीप जलता है

कहीं वीरानियों में

 

सुलगती

है अँगीठी सी रात

गहरे निस्तब्ध वन में।

 

पहरुए सा समय

काँधे पर धरे दिन

जोतता अँधियार

बोता भोर उजली

कातता है चाँद

भूरे बादलों सँग

चाँदनी के तार

लेकर स्वप्न तकली

 

झील भी

ले कँवल की सौग़ात

आँजती काजल नयन में।

 

उड़े पंछी गगन

नापे पर क्षितिज से

चहकते जंगल

नहाती धूप आँगन

मंज़िलों पर जा

रुके हारे थके से

पाँव आ ठहरे

लिए आशा के सगुन

 

उम्र भर

पढ़ते रहे हालात

बैठकर अपने भुवन में।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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