हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 398 ⇒ स्वप्न से निवृत्ति… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्वप्न से निवृत्ति।)

?अभी अभी # 398 ⇒ स्वप्न से निवृत्ति? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हमारी प्रवृत्ति के लिए हमारी वृत्ति जिम्मेदार है। क्या वृत्ति का हमारी स्मृति से भी कुछ लेना देना है। वैसे वृत्ति का संबंध अक्सर चित्त से जोड़ा गया है। जोड़ने को ही योग भी कहते हैं। योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः यानी चित्त वृत्ति के निरोध को ही योग कहा गया है। अगर प्रवृत्ति संग्रह है तो निवृत्ति असंग्रह। निरोध ही निवृत्ति का मार्ग है।

चेतना के चार स्तर माने गए हैं, जिन्हें हम अवस्थाएं भी कह सकते हैं, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीयावस्था।

सुषुप्ति अवस्था : गहरी नींद को सु‍षुप्ति कहते हैं। इस अवस्था में पांच ज्ञानेंद्रियां और पांच कर्मेंद्रियां सहित चेतना (हम स्वयं) विश्राम करते हैं। पांच ज्ञानेंद्रियां- चक्षु, श्रोत्र, रसना, घ्राण और त्वचा। पांच कर्मेंन्द्रियां- वाक्, हस्त, पैर, उपस्थ और पायु। अगर गहरी नींद ना हो, तो हमारे शरीर और मन को आराम नहीं मिल सकता।

आठ घंटे की स्वस्थ नींद में हम कितनी गहरी नींद सोते हैं, कितनी नींद कच्ची होती है, और कब स्वप्न देखते हैं इसका लेखा जोखा इतना आसान भी नहीं। लेकिन गहरी नींद एक स्वस्थ मन की निशानी है और कच्ची नींद और स्वप्न एक चंचल मन की अवस्था है। स्वप्नावस्था में अवचेतन मन नहीं सोता।

चित्त के संचित संस्कार, और स्मृति के साथ साथ हर्ष, शोक और भय के संस्कार भी स्वप्न में प्रकट होते रहते हैं।।

अच्छे स्वप्न हमें एक चलचित्र की तरह मनोरंजक लगते हैं तो बुरे सपने हमें नींद में ड्रैकुला की तरह डराने का काम करते हैं। अवचेतन का भय और दबी हुई इच्छाएं

स्वप्न के रास्ते मन में प्रवेश करती हैं। परीक्षा का भय भी कई वर्षों तक मन में बैठा रहता है और व्यक्ति स्वप्न में ही बार बार परीक्षा दिया करता है।

योग द्वारा चित्त वृत्ति का निरोध हमारे चेतन और अवचेतन दोनों पर सकारात्मक प्रभाव डालता है। हमारा शरीर केवल पांच तत्वों से ही नहीं बना, इसमें सात चक्र भी है और पांच महाकोश भी।

षट्चक्र भेदन से शक्ति मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि और आज्ञा चक्र से होती हुई सहस्रार तक पहुंच सकती है।।

अन्नं प्राणो मनो बुद्धिर्– आनन्दश्चेति पञ्च ते। कोशास्तैरावृत्तः स्वात्मा, विस्मृत्या संसृतिं व्रजेत्।

योग की धारणा के अनुसार मानव का अस्तित्व पांच भागों में बंटा हुआ है। इन्हें हम पंचकोश कहते हैं। इन पंचकोश में पहला अन्नमय कोश, दूसरा प्राणमय कोश, तीसरा मनोमय कोश, चौथा विज्ञानमय कोश और पांचवा व अंतिम आनंदमय कोश है।

योग केवल धारणा का विषय नहीं, यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का विषय भी है। इससे ना केवल स्वप्न से निवृत्ति संभव है, काम, क्रोध, लोभ, और मोह के संस्कारों पर भी अंकुश लगाया जा सकता है। जाग्रत अवस्था टोटल अवेयरनेस का नाम है जिसमें स्वप्न का कोई स्थान नहीं है।

अध्यात्म के सभी मार्गों में चित्त शुद्धि पर जोर दिया गया है। निर्मल मन जन सो मोहि पावा, मोहि कपट छल छिद्र न भावा। निग्रह ही निवृत्ति का मार्ग है। सपनों की खोखली दुनिया से ईश्वर के सुनहरे संसार में आग्रह, पूर्वाग्रह और दुराग्रह का मार्ग त्याग अनासक्त प्रेम और अनासक्त कर्तव्य कर्म का मार्ग ही श्रेयस्कर है। महामानव तो बहुत दूर की बात है, फिलहाल तो हमें मानवता की तलाश है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 120 ☆ ।।मुक्तक।। ☆ ।। योग भगाए रोग ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 120 ☆

।।मुक्तक।। ☆ ।। योग भगाए रोग ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

।।विश्व योग दिवस।। – (21 – 06 – 2024)

[1]

योग से   बनता    है   मानव

शरीर   स्वस्थ  आकार।

योग एक  है   जीवन      की

पद्धति स्वास्थ्य आधार।।

योग से निर्मित होता तन मन

और  मस्तिष्क   सुदृढ़।

तभी तो   हम कर   सकते  हैं

हर जीवन स्वप्न साकार।।

[2]

भोग नहीं योग आज  की बन

गया   एक   जरूरत  है।  

रोग प्रतिरोधक क्षमता  से  ही

जीवन बचने की सूरत है।।

दस   वर्ष पूर्व सम्पूर्ण विश्व को

भारत ने दिखाया  रास्ता।

आज तो पूरी  दुनिया में भारत

बन गया योग की मूरत है।।

[3]

नित प्रतिदिन   व्यायाम  ही तो

योग का एक  रूप    है।

व्यवस्थित हो  जाती  दिनचर्या

बदलता    स्वरूप     है।।

निरोगी काया आर्थिक  स्थिति

भी होती योग  से सुदृढ़।

योग तो सारांश में तन मन की

सुंदरता का प्रतिरूप है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 182 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – दुख से घबरा न मन ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “अभी भी बहुत शेष है। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा # 182 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – दुख से घबरा न मन ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

दुख से घबरा न मन, कर न गीले नयन,

दुख तो मानव के जीवन का सिंगार है ।

इससे मिलता है बल, दिखती दुनियां सकल

आगे बढ़ने का ये सबल आधार है ।।۹ ۱۱

*

सुख में डूबा है जो, मन में फूला है जो,

समझो यह-राह भटका है, भूला है वो ।

दुख ही साथी है जो साथ चल राह में

रखता साथी को हरदम खबरदार है ।। २ ।।

*

सुख औ’ दुख धूप-छाया हैं बरसात की

उड़ती बदली शरद-चाँदनी रात की ।

सुख की साधे ललक, दुख की पाके झलक

जो भी डरता है वो कम समझदार है ।। ३ ।।

*

कर्म-निष्ठा से नित करते रहना करम भूलकर

सारे भ्रम आदमी का धरम फल तो देता है

खुद कर्म हर एक किया फल पै

कोई किसी का न अधिकार है ।। ४ ।।

*

जो भी चलते हैं पथ पै समझ-बूझकर

उन्हें सुख-दुख बराबर, नहीं कोई डर ।

उनकी मंजिल उन्हें देती अपना पता

सहना है जिंदगी – ये ही संसार है ।। ५ ।।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ दोहा – योग भगाये रोग ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ दोहा – योग भगाये रोग ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

(अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस विशेष)

योग भगाता रोग है, काया हो आदित्य।

स्वास्थ्य रहे हरदम खरा, मिले ताज़गी नित्य।।

*

योग कला है, ज्ञान है, रिषियों का संदेश।

तन-मन की हर पीर को, करे दूर, हर क्लेश।।

*

योग साधना मानकर, पाते हम बल-वेग।

गति-मति में हो श्रेष्ठता, मिले खुशी का नेग।।

*

दीर्घ आयु मिलती सदा, अपनाते जो ध्यान।

योग करो, ताक़त गहो, पाओ नित सम्मान।।

*

योग कह रहा नित्य यह, लेना शाकाहार।

तभी मिलेगा हर कदम, जीवन में उजियार।।

*

भारत चिंतन में प्रखर, देता उर-आलोक।

योग-ध्यान से बंधुवर, पास न आता शोक।।

*

योग दिवस मंगल रचे, अखिल विश्व में मान।

योगासन हर मुद्रा, पाती है यशगान।।

*

योग साधना दिव्य है, रामदेव जी संत।

जिन ने भारत से किया, सकल रुग्णता अंत।।

*

योग नया विश्वास है, चोखी है इक आस।

जो जीवन-आनंद दे, रचे नया मधुमास।।

*

योग-ध्यान से नेह कर, गाओ जीवन गीत।

तन-मन को बलवान कर, पाओ हरदम जीत।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 11 – नवगीत – जीवन को वसंत करो… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – जीवन को वसंत करो

? रचना संसार # 11 – नवगीत – जीवन को वसंत करो…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

पतझड़ से इस जीवन को तुम,

आकर कंत वसंत करो।

साहित्यिक संप्रेषण को अब,

सदृश निराला ,पंत करो।।

 *

शब्द -शब्द  माणिक कर  दो तुम,

भरो प्रेम की गागर तुम।

गुंजित सारा जग हो जाए,

वंशी तुम नटनागर तुम।।

भाव  सुपावन गंगाजल कर,

लेखन को जीवंत करो।

 *

साहित्यिक संप्रेषण को अब,

सदृश निराला,पंत करो।।

 *

श्वेता की वीणा बजती हो,

सात सुरों की सरगम हो।

अलंकार रस छंद  निराले,

नवल सृजन का उद्गम हो,

नव रस की रसधारा में तुम,

पीडाओं का अंत करो।

साहित्यिक संप्रेषण को अब,

सदृश निराला,पंत करो।।

 *

निष्ठाओं की डोर पकड़कर ,

तन -मन अर्पण करना है।

दिनकर -सा उजियारा करने ,

सार्थक चिंतन  करना है।।

जग -कल्याण भावना रखकर,

मन को सज्जन संत करो ।

जीवन को वसंत करो

 *

साहित्यिक संप्रेषण को अब,

सदृश निराला ,पंत करो।।

 *

शब्द -शब्द  माणिक कर  दो तुम,

भरो प्रेम की गागर तुम।

गुंजित सारा जग हो जाए,

वंशी तुम नटनागर तुम।।

भाव  सुपावन गंगाजल कर,

लेखन को जीवंत करो।

 *

साहित्यिक संप्रेषण को अब,

सदृश निराला,पंत करो।।

श्वेता की वीणा बजती हो,

सात सुरों की सरगम हो।

अलंकार रस छंद  निराले,

नवल सृजन का उद्गम हो,

नव रस की रसधारा में तुम,

पीडाओं का अंत करो।।

 *

साहित्यिक संप्रेषण को अब,

सदृश निराला,पंत करो।।

निष्ठाओं की डोर पकड़कर ,

तन -मन अर्पण करना है।

दिनकर -सा उजियारा करने ,

सार्थक चिंतन  करना है।।

जग -कल्याण भावना रखकर,

मन को सज्जन संत करो ।

 *

साहित्यिक संप्रेषण को अब,

सदृश निराला,पंत करो।।

 

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected][email protected]

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #237 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 237 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

तपती है कैसे धरा, बादल सुनो पुकार।

पंछी व्याकुल हो रहे,पानी की दरकार।।

*

खेतों में हम गा रहे,सुनो मेघ मल्हार।

ईश्वर सुनिए आप अब, मेघ करो बौछार।।

*

जगह जगह पर बाढ़ है, यहां नहीं बरसात।

कब आओगे मेघ तुम,  नहीं बीतती   रात।।

*

आज हमें तो लग रहा,आएगी बरसात।

विनती सुन ली ईश ने, बदरा छाए रात।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #219 ☆ पूर्णिका – खूब परखते औरों को… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है पूर्णिका – खूब परखते औरों को आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 219 ☆

☆ पूर्णिका – खूब परखते औरों को… ☆ श्री संतोष नेमा ☆

राज  दिल  के  खोल दो जी

आज खुल कर बोल दो  जी

*

छोड़  कर  नफ़रत  जहन से

प्यार  दिल  में  घोल  दो  जी

*

रहो    झूठ    से    दूर   सदा

सच्चाई   का   मोल   दो  जी

*

खूब    परखते    औरों    को

खुद  को  भी  टटोल  लो जी

*

प्यार    चाहें    बेपनाह    गर

स्वयं  को  भी  तोल  लो  जी

*

हम   भी   हैँ    प्रेम    पुजारी

हमें   भी  कुछ  रोल  दो   जी

*

मिलेगा    “संतोष”   प्रेम    में

राग  प्रेम   का  बोल  दो   जी

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पात्र ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  पात्र  ? ?

(लघु कविता संग्रह – चुप्पियाँ से)

मेरे शब्द

चुराने आये थे वे

चुप्पी की मेरी

अकूत संपदा देखकर

मुँह खुला का खुला

रह गया,

मेरी चुप्पी के

वे भी पात्र हो गए!

© संजय भारद्वाज  

प्रातः 8:07 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ 💥 श्री हनुमान साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी। 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 209 ☆ बाल गीत – चंदा मामा मित्र हमारे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 209 ☆

☆ बाल गीत – चंदा मामा मित्र हमारे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

भरें उड़ानें चंद्रयान से

चंदा मामा मित्र हमारे।

शीतल छाया मनमोहक है

लाएँ आसमान से तारे।।

जय भारत की , जय इसरो की

विजय ज्ञान – विज्ञान की।

विजयी विश्व तिरंगा ऊँचा

है मानव कल्याण की।

 *

हर्ष – विमर्श जगत उजियारा

झूम उठे खुशियों से सारे।

चंदा मामा मित्र हमारे।।

 *

बना लिए निज ठाँव चंद्र पर

विक्रम लैंडर साथ गया है।

गौरवान्वित है राष्ट्र हमारा

ध्रुव दक्षिणी नया – नया है।

 *

घर अपना चंदा पर होगा

मजे करेंगे बच्चो प्यारे।

चंदा मामा मित्र हमारे।।

 *

नई – नई धातुएँ वहाँ पर

धरा और चट्टानें हैं।

खोज रहा है चंद्रयान सब

कौन खनिज की खानें हैं।

 *

टूर करेंगे चंद्रयान से

खेल करेंगे तारे न्यारे ।

चंदा मामा मित्र हमारे।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #234 – कविता – ☆ एक पाती वृक्ष की, मानव के नाम… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता एक पाती वृक्ष की, मानव के नाम…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #234 ☆

☆ एक पाती वृक्ष की, मानव के नाम… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

(पर्यावरण विषयक)

आदरणीय मानव जी,

तुम को नमस्कार है

लिखने वाला वृक्षों का प्रतिनिधि मैं

जिसका जल जंगल से सरोकार है।

खूब तरक्की की है तुमने

अंतरिक्ष तक पहुँच रहे हो

चाँद और मंगल ग्रह से संपर्क बनाए

पहुँचे जहाँ,

वहाँकी मिट्टी लेकर आए

होना तो यह था

धरती की मिट्टी और कुछ बीज

हमारे लेकर जाते

और वहाँ की मिट्टी में यदि हमें उगाते

तो शायद हो जाती परिवर्तित जलवायु

और वहाँ भी तुम उन्मुक्त साँस ले पाते।

लगता है वृक्षों का वंश मिटाने का

संकल्प लिया मानव जाति ने

जब कि हमने उपकारी भावों से

मानव जाति के हित

आरी और कुल्हाड़ी के

सब वार सहे हँस कर छाती में।

अपने सुख स्वारथ के खातिर

हे मनुष्य! तुम अपनी आबादी तो

निशदिन बढ़ा रहे हो

और जंगलों वृक्षों की बलि

आँख बंद कर चढ़ा रहे हो,

नई तकनीकों से विशाल वृक्षों को

बौने बना-बना कर

फलदाई उपकारी वृक्षों को घर पर

अपने गमलों में लगा रहे हो।

भला बताओ बोनसाई पेड़ों से

मनचाहे फल तुम कैसे पाओगे

क्या इन गमलों के पेड़ों से

सावन के झूलों का वह आनंद

कभी भी ले पाओगे,

सोचा है तुमने वृक्षों से वनस्पति से

कितना कुछ तुमको मिलता है

औषधि जड़ी बूटियाँ

पौष्टिक द्रव्य रसायन

विविध सुगंधित फूलों से

सुरभित वातायन।

अमरुद, अंगूर आम

आँवले केले जामुन

सेब, संतरे, सीताफल

और नीम की दातुन

सबसे बड़ी बात

हम पर्यावरण बचाएँ

और प्रदूषण से होने वाले

रोगों को दूर भगाएँ।

हम हैं तो,

संतुलित सभी मौसम हैं सारे

सर्दी गर्मी वर्षा से संबंध हमारे

इस चिट्ठी को पढ़कर मानव!

सोच समझकर कदम बढ़ाना

नहीं रहेंगे हम तो निश्चित ही

तुमको भी है मिट जाना।

पानी बोतल बंद लगे हो पीने

रोगों से बचने को,

आगे शुद्ध हवा भी

बिकने यदि लगेगी

तब साँसें कैसे ले पाओगे

मानव! जीवन जीने को।

सोचो! जल जंगल वृक्षों की

रक्षा करके

तुम अपने

मानव समाज की रक्षा भी

तब कर पाओगे

और प्रकृति के प्रकोप से

विपदाओं से

खुद को तभी बचा पाओगे।

आबादी के अतिक्रमणों से हमें बचाओ

बदले में हमसे जितना भी चाहो

तुम उतना सुख पाओ

नमस्कार जंगल का

सब मानव जाति को

जरा ध्यान से पढ़ना

लेना गंभीरता से इस पाती को

चिट्ठी पढ़ना,

पढ़कर तुम सब को समझाना

और शीघ्र संदेश

सुखद हमको पहुँचाना।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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