हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #265 – कविता – रास्ते कब खत्म होते हैं… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष—  सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता रास्ते कब खत्म होते हैं” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #265 ☆

☆ रास्ते कब खत्म होते हैं… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

रास्ते कब खत्म होते हैं

अनंतिम पथ स्वप्न बोते हैं।

मार्ग कोईं भी, सिरे अज्ञात है

फिर वहीं से इक नई शुरुआत है

है पड़ाव अनेक, पथ के बीच में

रास्तों की,  ये सुगम सौगात है,

अचल अविचल प्रदर्शक

 देते न न्योते हैं…..

है घने जंगल, कईं पगडंडियाँ

सटे हैं सब पेड़, प्रेमिल संधियाँ

जाति पंथ समाज का नही भेद है

है न अलगावी यहाँ पर झंडियाँ,

मौसमों के वार सहते

पर न रोते हैं……

बीच पथ में कौन रुकता है कभी

निरन्तर चलते ही रहते है सभी

है कईं राहें सरल कुछ जटिल सी

सुख-दुखों के अनुभवों से है सजी,

काग कर्कश तो यहाँ

कमनीय तोते हैं…

☆ 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 89 ☆ क्यों? ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “क्यों?” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 89 ☆ क्यों? ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

क्यों है चिड़िया गुमसुम बैठी

क्यों आँगन ख़ामोश हुआ है ।

*

क्यों किसने है क्या कर डाला

क्यों सबके मुँह पर है ताला

क्यों चमगादड़ रात हुई है

दिन दुबका ख़रगोश हुआ है ।

*

कितना तो मजबूर आदमी

क्यों पाले दस्तूर आदमी

क्यों जीवन बन गया त्रासदी

क्यों ठंडा सब जोश हुआ है ।

*

क्यों दुख हर घर की पहचान

क्यों सुख मरा बिना विष पान

क्यों तम बिकता दूकानों में

क्यों सूरज मदहोश हुआ है ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कस्तूरी मृग ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – कस्तूरी मृग ? ?

(कविता संग्रह ‘योंही’ से)

मैं परिधि पर जीना चाहता हूँ

पर केंद्र भी छोड़ नहीं पाता,

केंद्र और परिधि पर

एक साथ जीने की जिजीविषा,

अधर में बने रहने की

स्वयंसिद्ध तितिक्षा,

न वृत्त सिमटकर

बिंदु हो पाता है,

न सीमाओं का विस्तार कर

बिंदु परिधि बन पाता है,

लगता है

मनुष्य के विकास के

डार्विन के सिद्धांतों के साथ,

अनुभूति का

जब कोई इतिहास लिखेगा

तो यात्रा वृत्तांत में

वानरों के साथ

कस्तूरी मृग का नाम भी जुड़ेगा !

?

© संजय भारद्वाज  

24.09.2012

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा 💥

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अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 93 ☆ कुंभ में डुबकी लगा के आ गए… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “कुंभ में डुबकी लगा के आ गए“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 93 ☆

✍ कुंभ में डुबकी लगा के आ गए… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

मेरे हिस्से में ख़सारा रह गया

इश्क़ कर तन्हा का तन्हा रह गया

 *

ग़म कहाँ रोकर मैं अब हल्का करूँ

जब न मेरा तेरा शाना रह गया

 *

ख़्वाब क्यों आते मुझे है इस तरह

जो भी देखे हर अधूरा रह गया

 *

झोलियाँ भर भर के सबको दे रहे

मेरे घर ख़ुशियों का फ़ाक़ा रह गया

 *

जो ज़रूरी था वो लाया याद कर

माँ का चश्मा याद आना रह गया

 *

नाम पर इमदाद के कुछ तो मिला

हाथ में टूटा भरोसा रह गया

 *

ये सफेदी वक़्त लाया ज़ुल्फ़ में

दिल मगर बच्चा का बच्चा रह गया

 *

कुंभ में डुबकी लगा के आ गए

मन मगर मैला का मैला रह गया

 *

आँधियों से बुझ गया रोशन चिराग़

काम उसका पर अधूरा रह गया

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 223 – कथा क्रम (स्वगत)… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे सदैव हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते थे। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 223 – कथा क्रम (स्वगत)… ✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य) से )

क्रमशः आगे… 

अपनाया नहीं

किया है

तुम्हारा

उपयोग, उपभोग

और

दोहन!

माना कि

पितृ इच्छा का

किया सम्मान

तुमने,

बनीं

आज्ञाकारिणी

किन्तु

किस मूल्य पर ?

स्त्रीत्व के

विसर्जन के

नाम पर

माधवी ।

और हाँ !

तुम्हारा कवच

वेद ऋषि का वरदान,

ऐसा ही कवच

दिया था

पाराशर ने

सत्यवती को ।

(तुमने

स्वयं

रहस्योदघाटित किया था )

क्या

तुम्हारे मन में भी

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 223 – “हँसे लगे वीणा को छेड़ा…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत हँसे लगे वीणा को छेड़ा...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 223 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “हँसे लगे वीणा को छेड़ा...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

यह है वह दीवार रही

थी जिसमें खिड़की ।

खिडकी में दुवली-पतली

सी बादल- लड़की ॥

 

बारबार खिड़की में

जो आया करती भी ।

हर दिन बिन बरसात

बरस जाया करती थी ।

 

बुझते दिये सरीखी

लौ लहराया करती –

वैसे तो वह रानी थी

रौशन इस गढ़ की ॥

 

बूँदों बूँदों में झरती

मोती माला सी ।

कभीकभी होतीओझल

ज्यों मधुबाला सी ।

 

वह मधुमास लिये

बैजंती और कुमुदनी –

ले पूजा करती है

घर की बेटी बड़की ॥

 

हँसे लगे वीणा को छेड़ा

अल्हड़ पन में ।

पुष्पराग बो दिया

देवता ने दरपन में ।

 

जहाँ परावर्तित होती

छवि तन – मौसम की।

लगे शिराओं में जीवन

की आशा धड़की ॥

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

26-01-2025

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अनुभव ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – अनुभव ? ?

ज़मीन से कुछ ऊपर

कदम उठाए चला था,

आसमान को मुट्ठी में

कैद करने का इरादा था,

अचानक-

ज़मीन ही खिसक गई

ऊँचाई भी फिसल गई,

आसमान व्यंग से

मुझ पर हँस रहा था,

अपनी जग-हँसाई

मैं भी अनुभव कर रहा था,

किंतु अब फिर से

प्रयासों में जुटा हूँ,

इतनी सी मुट्ठी,

उतना बड़ा आसमान है,

पर इस बार आसमान

भयभीत नज़र आता है,

अनुभव जीवन को

नये मार्ग दिखाता है,

जानता हूँ, अब

विजय सुनिश्चित है

क्योंकि इस बार मेरे कदम

ज़मीन से ऊपर नहीं

बल्कि ज़मीन पर हैं।

?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

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संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 206 ☆ # “जय संविधान…” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता जय संविधान…”।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 206 ☆

☆ # “जय संविधान…” # ☆

जीने का महामंत्र है

प्रशासन का अचूक तंत्र है

हर आंख का सपना है

सबसे अलग अपना गणतंत्र है

 

खत्म हो गई पेशवाई

चली गई श्रीमंत शाही

नियंत्रित हो गई बेबंदशाही

तब आई है लोकशाही

 

हर चेहरे पर नई उमंग है

हर दिल में नई तरंग है

तम की काली रात ढल गई

नई सुबह में खुशियों के रंग है

 

खिले हुए हैं बगिया के फूल

दूर हो गई परतंत्र की धूल

भ्रमर पराग लूटा रहे हैं

चाहे फूल हो या हो शूल

 

सजे हुए हैं यह कार्यालय

राष्ट्रगीत बजाते यह विद्यालय

परेड करती यह नव पीढ़ी

उनके हौसलों के आगे नतमस्तक है ऊंचा हिमालय

 

कुछ संकीर्ण विचार वालों ने उठाया यह बेड़ा है

आस्थाओं के नाम पर कह रहे हैं कि यह टेढ़ा है

परिवर्तित करने इस महाग्रंथ को

एक अघोषित युद्ध छेड़ा है

 

यह जंग अब हमको लड़नी होगी

इन कुत्सित इरादों पर पाबंदी जड़नी होगी

जन-जन में अलख जगा कर

उनके चेहरे पर कालीख मढ़नी होगी

 

अब तक परतंत्र का जहर बहुत पीया है

गुलामी का जीवन बहुत जीया है

हम सब हैं इंसान बराबर

गणतंत्र ने अधिकार सबको दिया है

 

इसमें बसते हैं जनता के प्राण

इससे है हम सब का सम्मान

यह है हर भारतवासी की शान

गर्व से बोलो जय संविधान /

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – बचाओ मानवता को… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण कविता बचाओ मानवता को।)

☆ कविता – बचाओ मानवता को… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

निःशब्द हूं, आहत हूं,

सोच पर, दुष्कृत्य पर,

शर्मसार हुई मानवता,

कराह उठी मानवता,

फिर वही चेहरे,

फिर वही लोग,

स्थान बदल गया,

नाम बदल गया,

चिता नहीं जली,

संस्कार जल गए,

रिवाज जल गए,

मुखोटे जल गए,

पर जला नहीं अहंकार,

क्रूरता, वीभत्सता,

हम किस दिशा में चलने लगे हैं,

यही सभ्यता है,

यही सभ्य समाज है,

कुछ कमी रह गई परवरिश में,

 संस्कार नहीं दे पाए बच्चों को,

संस्कारित नहीं बना समाज,

बहुत हो चुका, दंभ को त्यागो,

अस्वीकृति में हाथ उठाओ,

विरोध में खड़े रहो,

ऐसे दुष्कृत्य ना हों,

बचाओ मानवता को.

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गणतंत्र दिवस विशेष – संविधान गीत – ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

श्री अजीत सिंह

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है गणतंत्रता दिवस पर विशेष संविधान गीत…’।)

(The song is based on the preamble of the Indian constitution given below)

WE, THE PEOPLE OF INDIA, having solemnly resolved to constitute India into a SOVEREIGN, SOCIALIST, SECULAR DEMOCRATIC REPUBLIC and to secure to all its citizens:

 JUSTICE, social, economic and political;

 LIBERTY of thought, expression, belief, faith and worship;

 EQUALITY of status and of opportunity; and to promote among them all

 FRATERNITY assuring the dignity of the individual and the unity and integrity of the Nation;

 IN OUR CONSTITUENT ASSEMBLY this twenty-sixth day of November, 1949, do HEREBY ADOPT, ENACT AND GIVE TO OURSELVES THIS CONSTITUTION.

☆ गणतंत्र दिवस विशेष – संविधान गीत – अजीत सिंह ☆

मेरा देश हिंदुस्तान,

मेरा बढ़िया संविधान

मेरी आन, मेरी शान,

इस पर जान भी कुर्बान।

 

संविधान से बना है भारत, संप्रभुता संपन्न।

संविधान ने दिया है हम को, प्रजातंत्र।

संविधान से मिला है हमको,

सर्व धर्म सम्भाव।

संविधान ने दिया है हमको,

समाजवाद का भाव।

 

संविधान ने दिए हैं,

तीन स्तंभ सरकार के,

विधायिका,

न्यायपालिका,

कार्यपालिका ,

ये हैं तीन स्तंभ सरकार के।

 

संविधान से मिलता,

 इंसाफ,

सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक इंसाफ।

संविधान है देता आज़ादी, विचारों की,

धर्मों की, पूजा की,

त्योहारों की।

 

संविधान देता अवसर बराबरी के,

शिक्षा के, रोजगार के,

प्रगति के, व्यापार के।

ऊंच नीच का भेद न होगा,

गरीब अमीर का छेद न होगा,

कहीं किसी को खेद न होगा।

 

व्यक्ति का सम्मान होगा,

मूलभूत अधिकार होंगे।

 

समाज में भाईचारा होगा,

अनेकता में एकता से,

देश मेरा यह न्यारा होगा।

 

संसद कानून बनाएगी,

पर संविधान का मूल ढांचा, संसद भी बदल न पाएगी।

सुप्रीम कोर्ट न्याय करेगा,

प्रशासन हुकम बजाएगा,

कानून से राज चलाएगा।

 

राज करेगी,

भारत की जनता ।

सरताज रहेगी,

भारत की जनता।

 

यही है  संदेश सबको

26 जनवरी का,

समझो और समझाओ मकसद,

26 जनवरी का।

 

संविधान है रूपरेखा,

हमारे आदर्शों की,

हमारे मूल्यों की,

हमारे सिद्धांतों की।

 

सुप्रीम कोर्ट प्रहरी

हमारे संविधान का,

हर नागरिक है रक्षक

इसकी आन बान का

 

मेरे देश का संविधान,

मेरे सपनों की उड़ान,

 

मंजिल बेशक दूर बड़ी है,

मुश्किल भी अगम खड़ी है

अभी तो बस दो कदम चले हैं,

अभी तो कदम कदम से मिले हैं।

 

रास्ता नहीं आसान,

फिर भी दिल में है अरमान

छूना चाहूं आसमान,

जब तक तन में है ये जान

देखूं सच्चा संविधान।

 

सही रास्ता दिखाया,

डॉक्टर अंबेडकर ने ,

 बढ़िया संविधान बनाया,

डॉक्टर अंबेडकर ने ।

मेरे देश का संविधान,

मेरी आन, मेरी शान,

इस पर जान भी कुर्बान

जीवे मेरा संविधान

जीवे मेरा हिंदुस्तान।

जीवे मेरा संविधान

जीवे मेरा हिंदुस्तान।

 🇮🇳 भारत माता की जय 🇮🇳 

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 © श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन हिसार।

मो : 9466647037

26.01.2025

(लेखक श्री अजीत सिंह हिसार से स्वतंत्र पत्रकार हैं । वे 2006 में दूरदर्शन केंद्र हिसार के समाचार निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए।)

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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